5 ‘रखने’ की भावना से ‘होने’ की भावना तक का सफर

3
327

लेखक- एरिक फ्रॉम
अनुवाद- प्रणव एन

मार्क्स के मुताबिक मनुष्य ‘गतिशीलता के सिद्धांत’ के जरिए चित्रित किया जाता है और यह मार्के की बात है कि वे इस संबंध में महान सूफी जैकब बोहमे को उद्धृत करते हैं। गतिशीलता के सिद्धांत को शाब्दिक रूप में नही लिया जा सकता। इसका मतलब प्रवृत्ति से है, रचनात्मक स्फूर्ति या ऊर्जा से है। मार्क्स के मुताबिक इंसानी लालसा वह मूल शक्ति है जो उसे विभिन्न उद्देश्यों के लिए आगे बढ़ने, संघर्ष करने की ऊर्जा देती रहती है।
ग्रहणशीलता के बरक्स उत्पादकता की अवधारणा को तब आसानी से समझा जा सकता है जब हम यह देखते हैं कि मार्क्स ने कैसे इसे प्यार की प्रवृत्ति पर लागू किया। वह लिखते हैं, ‘आइए मुनष्य को हम मनुष्य के रूप में लें और इस दुनिया से उसके रिश्ते को मानवीय मान लें। इस स्थिति में प्यार को केवल प्यार से बदला जा सकता है और विश्वास को विश्वास से। ऐसे में अगर आप दूसरे लोगों को प्रभावित करना चाहते हैं तो आपको ऐसा व्यक्ति बनना होगा जो दूसरों का उत्साह बढ़ाता हो, उन्हें प्रोत्साहित करता हो। मनुष्य और प्रकृति के साथ आपका हर रिश्ता अनिवार्य तौर पर आपकी वास्तविक इच्छा से मेल खाता हुआ, आपकी वास्तविक वैयक्तिक जिंदगी की निश्चित अभिव्यक्ति होगा। अगर आप अपने प्यार से दूसरों के मन में अपने लिए प्यार नहीं जगा सकते, यानी आप अपने प्यार को प्रदर्शित करते हुए दूसरों की नजर में प्यारा इंसान नहीं बन सकते तो आपका प्यार नपुंसक और दुर्भाग्यपूर्ण है।‘ इतना ही नहीं, मार्क्स ने पुरुष और स्त्री के बीच प्यार की सार्थकता को खास तौर पर मनुष्य और मनुष्य के बीच निकटतम रिश्ते के रूप में व्यक्त किया। सेक्स संबंधी तमाम रिश्तों के सामुदायीकरण का प्रस्ताव करने वाले भौंडे साम्यवाद के खिलाफ दलील देते हुए मार्क्स ने लिखा, महिलाओं के साथ ऐसा रिश्ता, जिसमें उन्हें शिकार के रूप में देखा जाए या पूरे समुदाय की हवस की दासी बना दिया जाए, समाज के अंतहीन पतन की अभिव्यक्ति है जिसमें आदमी सिर्फ अपने लिए जीता है। क्योंकि संबंधों का रहस्य सबसे स्पष्ट, निर्विवाद, खुली और उद्घाटित अभिव्यक्ति पुरुष और स्त्री के रिश्ते में ही पाता है और वह भी इस रूप में जैसे कि प्रत्यक्ष नैसर्गिक प्रजातियों के रिश्ते तैयार होते हैं। मनुष्य और मनुष्य के बीच का एक नजदीकी, नैसर्गिक और आवश्यक रिश्ता पुरुष और स्त्री के बीच का रिश्ता होता है। तो इस नजदीकी नैसर्गिक रिश्ते में मनुष्य का प्रकृति के साथ वही रिश्ता होता है जो उसका मनुष्य के साथ होता है और उसका मनुष्य के साथ रिश्ता सीधे तौर पर उसका प्रकृति के साथ यानी अपनी प्राकृतिक गतिविधियों के साथ रिश्ता बन जाता है। तो इस क्रम में यह रिश्ता इन्द्रियग्राह्य रूप में उद्घाटित होता है और एक प्रेक्षणीय तथ्य मात्र बनकर रह जाता है। इस हद तक कि मानवीय प्रकृति मनुष्य के लिए प्रकृति बन जाती है और प्रकृति हो जाती है मानवीय प्रकृति। इस रिश्ते के हिसाब से मनुष्य के विकास का पूरा स्तर मापा जा सकता है। इस रिश्ते के चरित्र से यह बात साफ होती है कि मनुष्य किस सीमा तक बना है। एक प्रजाति के रूप में, इंसान के रूप में इसने किस हद तक खुद को समझा है। पुरुष और स्त्री का रिश्ता मनुष्य और मनुष्य के बीच का सबसे स्वाभाविक रिश्ता होता है। इसलिए इससे यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य का स्वाभाविक व्यवहार किस हद तक मानवीय बना है और किस हद तक उसका मानवीय सत्व उसके लिए प्राकृतिक सत्व बन सका है, किस हद तक उसकी मानवीय प्रकृति उसके लिए प्रकृति बनी है। इससे यह भी पता चलता है कि मनुष्य की जरूरतें किस हद तक मानवीय जरूरतों में तब्दील हो पाई हैं और इसके परिणामस्वरूप किस हद तक दूसरा व्यक्ति एक व्यक्ति के तौर पर उसकी जरूरतों में शामिल हो पाया है। और यह भी कि वह अपने वैयक्तिक अस्तित्व को कायम रखते हुए किस हद तक सामाजिक प्राणी भी बना रहता है।‘’
गतिविधि की मार्क्स की अवधारणा को समझने के लिहाज से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कर्ता और वस्तु (सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट) के बीच रिश्ते के बारे में उनके विचार को समझना। मनुष्य की चेतना जिस बिंदु तक पाशविक चेतना जैसी अपरिपक्व होती है, वहां तक उसके मायने बड़े सीमित होते हैं। ‘भूख से मरते किसी व्यक्ति के लिए भोजन करने का कोई मानवीय ढंग नहीं होता। बस, भोजन के रूप में खाद्य सामग्री का एक अमूर्त चरित्र होता है। भोजन का तरीका बिल्कुल भौंडा हो सकता है और यह बताना असंभव होगा कि यह जानवरों के भोजन करने के ढंग से किस मायने में अलग है। परेशानियों से घिरा जरूरतमंद व्यक्ति सबसे खूबसूरत दृश्य का भी आनंद लेने की स्थिति में नहीं होता।‘ मनुष्य के अंदर जो ज्ञानेंद्रियां होती हैं, उन्हें स्थापित करने के लिए उसके बाहर स्थित वस्तुओं की जरूरत होती है। कोई भी वस्तु मेरे अंदर की मेरी ही किसी क्षमता की पुष्टि भर हो सकती है। ‘क्योंकि न केवल पांच ज्ञानेंद्रियां बल्कि तथाकथित आध्यात्मिक चेतना, व्यावहारिक चेतना (चाहत, प्यार आदि) संक्षेप में मानवीय अनुभूतियां और मानवीय संवेदनाओं का चरित्र – ये सब वस्तुओं के अस्तित्व के जरिए, मानवीकृत प्रकृति के जरिए ही अस्तित्व में आते हैं।’ मार्क्स के मुताबिक वस्तुएं ‘उसकी (मनुष्य की) वैयक्तिकता (इंडिविजुअलिटी) की पुष्टि करतीं और उसे वास्तविक रूप देती हैं… जिस ढंग से ये वस्तुएं उसकी अपनी बन जाती हैं, वह वस्तु की प्रकृति और संबंधित चेतना की प्रकृति पर निर्भर करता है;… हर चेतना का विशिष्ट चरित्र बिल्कुल उसका चारित्रिक सत्व होता है और इस प्रकार यह उसके पदार्थीकरण का, उसके वास्तविक सजीव अस्तित्व का भी चारित्रिक लक्षण होता है। इसलिए यह केवल विचारों में नहीं होता बल्कि मनुष्य की तमाम इन्द्रियों के जरिए जरिए वास्तविक दुनिया में आ जाता है।”
अपनी शक्तियों के जरिए जब मनुष्य खुद को वास्तविक दुनिया से जोड़ता है तो यह बाहरी दुनिया उसके लिए वास्तविक बन जाती है और सच कहें तो यह बस ‘प्यार’ ही है जो मनुष्य को अपने से बाहर की वास्तविक दुनिया की वास्तविकता का सही मायनों में यकीन दिलाता है। सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट (वस्तु और देखने वाला) को अलग नहीं किया जा सकता। ‘आंख तब मानवीय आंख बनती है जब इसे दिखने वाली चीज मानवीय होती है, एक सामाजिक वस्तु जो मनुष्य के लिए और मनुष्य द्वारा तैयार की गई हो…’। वे (इन्द्रियां) वस्तुओं से खुद को वस्तुओं की खातिर जोड़ती हैं लेकिन अपने आप में वस्तु भी एक वस्तुनिष्ठ मानवीय रिश्ता होती है खुद के साथ और मनुष्य के साथ और इसके उलट भी। इस तरह जरूरत और आनंद अपना अहंवादी चरित्र गंवाते हैं और प्रकृति अपना उपयोगितावादी चरित्र गंवाती है इस तथ्य की बदौलत कि इसका उपयोग मानवीय उपयोग बन जाता है। (नतीजतन, मैं अपने आप को किसी वस्तु से मानवीय ढंग से सिर्फ तभी जोड़ पाता हूं जब वस्तु इंसान से मानवीय तौर पर जुड़ी हो)
मार्क्स के मुताबिक, साम्यवाद निजी संपत्ति का और इंसान के आत्म अलगाव का सकारात्मक उन्मूलन है और इस प्रकार यह मनुष्य के जरिए और मनुष्य के लिए मानवीय प्रकृति का वास्तविक विनियोग (रियल एप्रोप्रिएशन) है। इस प्रकार यह मनुष्य की सामाजिक यानी वास्तविक मानवीय रूप में वापसी है, एक संपूर्ण और सचेत वापसी जिसमें पहले के विकास की संपूर्ण निधि समाहित होती है। साम्यवाद एक पूर्ण विकसित नैसर्गिकवाद के रूप में मानववाद होता है और पूर्ण विकसित मानववाद के रूप में नैसर्गिकवाद होता है। यह मनुष्य और प्रकृति के बीच तथा मनुष्य और मनुष्य के बीच विरोध की समाप्ति का विश्वसनीय संकल्प है। यह अस्तित्व और सत्व के बीच, वस्तुकरण और आत्म स्वीकार्यता के बीच, आजादी और आवश्यकता के बीच तथा जीव और प्रजाति के बीच टकराव का सच्चा समाधान है। यह इतिहास की पहेली का हल है और खुद को इसके हल के रूप में जानता है।’ वस्तुनिष्ठ विश्व के साथ इस सक्रिय रिश्ते को मार्क्स ‘उत्पादक जीवन’ कहते हैं। “यह जीवन के द्वारा जीवन की रचना है। जीवन की गतिविधियों की किस्मों में प्रजातियों का पूरा चरित्र होता है, इसका प्रजाति चरित्र दिखता है; और मुक्त सचेत गतिविधि मानव जाति का प्रजातीय चरित्र है।” प्रजातीय चरित्र से मार्क्स का मतलब है मनुष्य का सत्व; यही वह चीज है जो शाश्वत रूप से मानवीय है और जो इतिहास की प्रक्रिया में मनुष्य द्वारा अपनी उत्पादक गतिविधियों के जरिए सामने लाई जाती है।
मनुष्य के आत्म साक्षात्कार की इस अवधारणा से मार्क्स संपत्ति और गरीबी की एक नई अवधारणा तक पहुंचते हैं जो पॉलिटिकल इकोनॉमी की संपत्ति और गरीबी से अलग होती है। मार्क्स कहते हैं, “ यह इस बात से देखा जाएगा कि हम कैसे पॉलिटिकल इकोनॉमी की संपत्ति और गरीबी की जगह अमीर आदमी और ढेर सारी मानवीय जरूरतों को पाते हैं। जो आदमी अमीर होता है वह ऐसा शख्स भी होता है जिसे जीवन के जटिल मानवीय पहलुओं से अवगत होने की जरूरत होती है और जिसे खुद अपने आत्म साक्षात्कार की अंदरूनी जरूरत होती है। संपत्ति ही नहीं, मनुष्य की गरीबी भी, समाजवादी संदर्भों में, एक मानवीय और इस प्रकार सामाजिक अर्थ हासिल कर लेती है। गरीबी एक ऐसा निष्क्रिय बंधन है जो मनुष्य को सबसे बड़ी संपत्ति, दूसरे इंसान, की कमी महसूस करने की ओर ले जाती है। मेरे अंदर की वस्तुनिष्ठ पहचान की हलचल, मेरी जैविक गतिविधियों का फूट पड़ना ऐसा जुनून है जो यहां मेरे अस्तित्व की गतिविधि बन जाता है।” कुछ साल पहले भी मार्क्स ने ऐसे ही विचार प्रकट किए थे, “ जिसे मैं सचमुच प्यार करता हूं (यहां उनका मतलब खास तौर पर प्रेस की आजादी से है) उसका अस्तित्व महसूस करना मेरी आवश्यकता बन जाता है, एक ऐसी आवश्यकता जिसके बगैर मेरा सत्व पूर्ण, संतुष्ट, संपूर्ण नहीं होता।”
जैसा कि शुरू में समाज निजी संपत्ति के विकास के जरिए अपनी संपत्ति और गरीबी (बौद्धिक और भौतिक दोनों तरह की) , दूसरे शब्दों में अपने सांस्कृतिक विकास के लिए जरूरी चीजें हासिल करता है, वैसे ही पूर्णतया निर्मित समाज ऐसे मनुष्य तैयार करता है जो अपने अस्तित्व की प्रचुरता से संपन्न होते हैं, जो अमीर होने के साथ-साथ स्थायी तौर पर सारी संवेदनाओं से युक्त होते हैं। आत्मनिष्ठतावाद और वस्तुनिष्ठतावाद, आध्यात्मिकतावाद और भौतिकतावाद तथा सक्रियता और निष्क्रयता जैसी चीजों का विरोधाभास सामाजिक संदर्भों में ही भंगुर होता है, इसलिए समाज में तो वह विरोधाभास दिखना बंद हो जाता है। लेकिन, सैद्धांतिक अंतर्विरोधों का समाधान केवल व्यावहारिक उपायों से, मनुष्य की व्यावहारिक ऊर्जा से ही संभव है। इसलिए इनका समाधान किसी भी सूरत में ज्ञान या जानकारी की समस्या नहीं बल्कि जिंदगी की एक वास्तविक समस्या है जिसे सुलझाने में दर्शनशास्त्र असमर्थ है क्योंकि वह इसे शुद्ध सैद्धांतिक समस्या की तरह देखता है।”
अमीर आदमी की अवधारणा की ही तर्ज पर मार्क्स ने रखने की भावना और होने की भावना में अंतर के बारे में भी अपने विचार व्यक्त किए हैं। वह कहते हैं, “निजी संपत्ति ने हमें ऐसा बेवकूफ और अधूरा बना दिया है कि कोई चीज हमारी अपनी तभी हो पाती है जब उस पर हमारा स्वामित्व हो, जब वह पूंजी के रूप में हमारे पास रहे या जब वह सीधे तौर पर खाने, पीने, पहनने या रहने के काम आ सके, यानी किसी भी रूप में इस्तेमाल की जा सके। हालांकि खुद निजी संपत्ति विभिन्न प्रकार के इन स्वामित्वों को जीवन के साधन के रूप में देखती है और वह जीवन जिसके साधन के रूप में ये इस्तेमाल किए जाते हैं, निजी संपत्ति का जीवन – श्रम और पूंजी का सृजन – है। इस प्रकार सारी दैहिक और बौद्धिक संवेदनाएं दरकिनार कर दी जाती हैं और यह एक संवेदना यानी स्वामित्व की भावना, रखने की भावना उनकी जगह ले लेती है। अपनी आंतरिक संपत्ति को जन्म देने के लिए इंसान को इस संपूर्ण गरीबी की स्थिति तक आना पड़ता है।”
मार्क्स ने इस बात को पहचाना कि दुनियावी और फायदा लेने की मानसिकता से निर्देशित दिखने के बावजूद पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का विज्ञान “वास्तव में नैतिक विज्ञान होता है, यह सभी विज्ञानों में सबसे ज्यादा नैतिक होता है। इसका मुख्य विषय होता है जिंदगी का, मानवीय जरूरतों का त्याग। आप जितना ही कम खाएंगे, पिएंगे, किताबें खरीदेंगे, थिएटरों में जाएंगे और जितना कम गाएंगे, प्यार करेंगे, तस्वीरें बनाएंगे, सोचेंगे, सैद्धांतिक सूत्रीकरण करेंगे उतना ज्यादा बचाएंगे और उतना ही ज्यादा होता जाएगा आपका पूंजी का खजाना जिसे न तो कीड़े खा पाएंगे और न जंग ही लगेगी। आप जितना कम होंगे, जिंदगी की धड़कन आपमें जितनी कम होगी, आपके पास उतना ज्यादा होगा, अलगाव वाली आपकी जिंदगी उतनी बड़ी होगी और उतनी बड़ी होगी अलगाव वाली आपकी हस्ती की बचत। अर्थशास्त्री आपसे जो कुछ भी जिंदगी और इंसानियत के रूप में लेता है, वह आपको पैसे और संपत्ति के रूप में वापस लौटाता है। और जो कुछ भी आप नहीं कर पाते, आपका पैसा आपकी तरफ से कर सकता हैः यह खा सकता है, पी सकता है, थिएटरों में जा सकता है। यह कला, ज्ञान, ऐतिहासिक खजाने, राजनीतिक सत्ता सब कुछ हासिल कर सकता है और यात्राएं भी कर सकता है। यह आपके लिए सब कुछ अर्जित कर सकता है, हर चीज खरीद सकता है। यह सही मायनों में समृद्धि का दूसरा नाम है। पर हालांकि यह सब कुछ कर सकता है, इसका मन रमता है अपने ही सृजन में, खुद को ही खऱीदने में क्योकि बाकी सारी चीजें इसके अधीन होती हैं। अगर मालिक आपके नियंत्रण में है तो उसके नौकर तो खुद-ब-खुद अधीन होंगे, आपको अलग से मालिक के नौकरों को नियंत्रण में लेने की जरूरत नहीं है। इस प्रकार सारे जुनून (पैशन), सारी गतिविधियां अर्थ लोभ में ही समाहित हो जाती हैं। श्रमिकों को उतना ही मिलेगा जितना उनके जीने के लिए जरूरी है और उन्हें जीना है तो बस इसी बात के लिए।”

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here