“फोन पर बस एक बीप बजने की देर है, हम तुरंत फोन उठा लेते हैं और फिर लतीफे फॉरवर्ड करना, चैट करना, संदेशों का जवाब देना जैसे एक मूर्खतापूर्ण सिलसिला चल निकलता है।
एक महाशय जो तकरीबन 50 साल के होंगे , 16 घंटे जगे रहने के दौरान कम से कम 150 बार फोन चेक करते हैं, रोजाना 35 कॉल या तो करते हैं या रिसीव करते हैं , रोजाना 25 से ऊपर ही संदेश भेजते हैं या प्राप्त करते है; दिन में 50 या 60 बार मोबाइल में समय देखते है। यह सब करते हुए भारत के 97.8 करोड़ मोबाइल उपयोगकर्ताओं की तरह उन्हें भी इस बात का इल्म नहीं है कि वह फोन कहां ले जा सकते हैं और कहां नहीं (जैसे शौचालय में, बिस्तर पर, खाने के वक्त और गाड़ी चलाने के दौरान), उन्हें इन सभी बातों के बीच का अंतर नहीं मालूम है।
हर रोज कोई न कोई व्हाट्सऐप पर किसी दूसरे देश में विमान हादसे से लेकर मुंबई में बारिश का अपडेट भेजता है तो कोई हँसी मजाक, चुटकुले वगैरह । “कोई खबर सही हो या नहीं, लेकिन उसे साझा करने पर अगर दूसरे आपकी सराहना करते हों तो लोग अपने आप को ही को महत्वपूर्ण समझने लगते हैं।”
फ्रोमो का मतलब है फियर ऑफ मिसिंग आउट यानी छूट जाने का डर। अब चाहे इसे ध्यानाकर्षण की चाहत कहें, सामाजिक स्वीकार्यता की सनक कहें और दूसरों की जिंदगियों में झांकने की इच्छा, लेकिन यह बीमारी एक हकीकत है। ये लक्षण हैं इंटरनेट गेमिंग सिंड्रोम जो कि आजकल चिंता का विषय बनता जा रहा है।
मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने वाले लगभग नब्बे प्रतिशत लोगों को अक्सर कपड़ों में सरसराहट या मांसपेशियों में ऐंठन होने से बार-बार ऐसा लगता है जैसे उनका या उनके आसपास का कोई मोबाइल वाइब्रेट हो रहा हो। वास्तविकता में ऐसा कुछ नहीं होता चेक करने के बाद ये अहसास होता है कि ये उनकी गलतफहमी थी। मनोवैज्ञानिको ने इस बीमारी को नाम दिया है :- फैंटम वाइब्रेशन सिंड्रोम। इसे पैरिडोलिया भी कह सकते हैं।
पैरीडोलिया में भी तकनीक के लत के शिकार लोगों का दिमाग ऐसी चीजों के बारे में सोच लेता है जो दरअसल होती ही नहीं हैं। जैसे बिना मतलब वाइब्रेशन को महसूस करना, ऐसा विशेष रूप से तब होता है जब हम फोन को वाइब्रेशन पर लगा देते हैं और अचानक हमारा फोन किसी ना किसी वजह से वाइब्रेट करता है। इसके बाद जब हमारा दिमाग किसी एक्टिविटी में बिजी होता है और आपके अवचेतन में ये बात होती है कि फोन फिर वाइब्रेट होगा और उसी वजह से बिना किसी वजह के आपको लगता है कि फोन वाइब्रेट हो रहा है। ये कोई हैल्यूसिनेशन नहीं है बल्कि यह आपके दिमाग का फोन के प्रति बिना अहसास के ज्यादा सचेत हो जाना है। जो लोग बुरी तरह डिजिटल लत से ग्रसित होते हैं उनके दिमाग में एंडोर्फिन रसायन का तेजी से संचार होने लगता है, ठीक वैसे ही जैसे कि सेक्स के दौरान, कसरत करते वक्त या फिर मादक दवाओं को लेने से होता है। इनकी उंगलियां काफी तेजी से मोबाइल पर घूमती हैं और वह लगातार “स्वाइप” करते पाये जाते हैं। ऐसे लोग फेसबुक या इंस्टाग्राम पर तस्वीरों और पोस्ट को अपलोड करने के बाद “अगला घंटा अश्लील साइटों” को देखने मे पाये जाते हैं और आखिर में सवेरे चार बजे इन्हें गेम ऑफ थ्रोन्स ऑनलाइन देखने के बाद थककर नींद आ जाती है।
चीन दुनिया का पहला देश है जहां इंटरनेट की लत को क्लिनिकल डिसॉर्डर माना गया है और जिसका इलाज होता है और इन्हें बेहद खतरनाक “डिप्रोग्रामिंग” थेरपी से गुजरना होता है।
दरअसल ऑनलाइन खेलों की गति तेज होती है और जब वास्तविक दुनिया में वह चाल नहीं दिखती, तो ऐसे लोग बेचैन हो जाते है।”
हर मनुष्य में लोकप्रिय होने की चाहत होती है। ऑनलाइन फ़ोटो या स्टेटस अपलोड करने के बाद जितनी तारीफ मिलती है, उतनी वास्तविक जीवन मे नही मिलती, क्योंकि वास्तविक जीवन में हमें सिर्फ संबंध बनाने ही नहीं होते, उन्हें संभालने भी पड़ते हैं। और लगातार मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने से गरदन, हाथ और उंगलियों में तनाव से दर्द पैदा होता है जो गलत मुद्रा या ज्यादा टेक्स्ट करने से उन्हीं मांसपेशियों पर बार-बार दबाव पड़ने से होता है। “विद्युत-चुंबकीय विकिरण के लगातार संपर्क में रहने से ज्ञानात्मक बोध, स्मृति और नींद पर असर पड़ता है। गैजेट से पैदा होने वाली गर्मी त्वचा की सतह पर मौजूद कोशिकाओं को प्रभावित करती है।
वैसे देखा जाये तो इंसान में किसी न किसी नशे की लत का इतिहास काफी पुराना है। चीनियों में अफीम की लत 19 वीं सदी, सिकन्दर के शराब की लत 323 ईसा पूर्व की रही है जो अब सोशल स्टेटस तथा डेली रूटीन लाइफ में निकोटिन और कैफीन ने ले ली है, लेकिन फोमो (डिजिटल लत) तो एक ऐसा लत है जिसे न तो खाया पिया जाता है,न सूंघा ही जाता है, इसका तो सीधा असर दिमाग पर ही होता है, लोगों का खुद पर से नियंत्रण खत्म हो जाता है। झूठ बोलने की प्रवृति, पैसे चुराने या ठगने की आदत डेवलप हो जाती है।
रश्मि सुमन
मनोवैज्ञानिक सलाहकार
इन्फेंट जीसस स्कूल
पटना सिटी
पटना (बिहार)
800008