शेअर पूंजी व स्टॉक मार्केट पर कुछ जरूरी बातें

0
88

मुकेश असीम की फेसबुक वॉल से
शेअर पूंजी व स्टॉक मार्केट पर कुछ जरूरी बातें – 1
पूंजीवादी होड़ में हर पूंजीपति के लिए जरूरी था, उद्योग में निवेश की गई पूंजी को बढाते जाना। एक सीमा के आगे व्यक्ति पूंजीपतियों के लिए यह नामुमकिन हो गया और संयुक्त पूंजी वाली ज्वाइंट स्टॉक कंपनी अस्तित्व में आई। इनके दो रूप हैं प्राइवेट (जिसके शेअर स्टॉक मार्केट पर खरीद बिक्री के लिए नहीं) और पब्लिक (स्टॉक मार्केट में शेअर खरीद बिक्री के लिए उपलब्ध)। इन्हें लिमिटेड कंपनी कहते हैं क्योंकि हर शेअर होल्डर की देनदारी उसके शेअर की रकम तक सीमित या लिमिटेड है, जबकि प्रोपराइटर या पार्टनरशिप में जिम्मेदारी असीमित होती है अर्थात कर्ज उनकी कारोबार से अलग संपत्ति से भी वसूल किया जा सकता है।
कंपनी की कुल पूंजी हिस्सों या शेअरों में बंटी होती है, जो 1रू, 10 रू या 1000 रू वगैरह जैसे शुरूआती शेअर होल्डर या प्रोमोटर तय करें, हो सकते हैं। लेकिन शेअर की कीमत इससे अलग हो सकती है। 10 रू का शेअर 6रू में भी अलॉट हो सकता है और 1500 रू में भी। यह अहम बात है, क्योंकि प्रोमोटर व शुरुआती निवेशकों के पास डिस्काउंट (फेस वैल्यू से कम) या एट पार (फेस वैल्यू के बराबर कीमत) वाले शेअर होते हैं जबकि बाद में आने वाले निवेशकों के पास ऊंची कीमत वाले। (अभी कंपनी के घाटे में जाने पर कीमत गिरने की बात को छोड रहे हैं।)
यह समझना जरूरी है कि कंपनी के कारोबार में जो पूंजी लगती है वह स्टॉक मार्केट के बाहर – शुरुआती अलॉटमेंट या आईपीओ या एफपीओ या राइट्स इशु के जरिए। हालांकि आईपीओ/एफपीओ की पूरी पूंजी उद्योग में लगे यह जरूरी नहीं, शुरुआती निवेशक इनके जरिए अपने शेअर ऊंची कीमत पर बेच निकल भी सकते हैं।
पर यह तय है कि शेअर बाजार में शेअर खरीदने पर यह रकम कंपनी के कारोबार में नहीं लगती। अतः शेअर बाजार में लगी रकम कंपनी के कारोबार में कोई सीधी भूमिका नहीं निभाती। इसीलिए इसे फर्जी पूंजी (fictitious capital) कहा जाता है, क्योंकि मुद्रा के रूप में मौजूद धन के पूंजी बनने के लिए उजरती श्रमिकों की श्रम शक्ति खरीद कर सरप्लस वैल्यू हस्तगत करना जरूरी शर्त है। चूंकि शेअर बाजार में लगी पूंजी कंपनी की औद्योगिक पूंजी में जुडती ही नहीं, अतः न उस पर सरप्लस वैल्यू उत्पादित होती है, न वह वास्तविक पूंजी बनती है।

स्टॉक मार्केट पर कुछ बातें – 2
पहली किश्त में ही कहा गया कि पूंजीवादी होड़ हर पूंजीपति को पूंजी की मात्रा बढाते जाने की ओर प्रवृत्त करती है। 19वीं सदी के मध्य तक व्यक्ति पूंजीपति इसमें असमर्थ हो अपने उद्योग की पूंजी बढाने हेतु हिस्सेदार या शेयरहोल्डर जुटाने लगे। इस प्रकार आज की ज्वाइंट स्टॉक कंपनियां अस्तित्व में आईं।
जिन पूंजीपतियों, अमीरों, मंझले तबके वालों के पास स्वतंत्र उद्योग चलाने के लिए पर्याप्त मात्रा से कम पूंजी थी या स्वयं उद्योग चलाने में असमर्थ थे, वे शेयरहोल्डर बनने लगे। उद्योग के नियमित परिचालन में इनकी भूमिका नहीं थी, पर औद्योगिक पूंजीपति इन्हें डिविडेंड या लाभांश देता था।
यह लाभांश भ्रामक शब्द है। वास्तव में लाभ सिर्फ कंपनी के प्रोमोटर्स को प्राप्त होता है। बाकी शेयरहोल्डर असल में अपनी पूंजी पर ब्याज ही पाते हैं। कैसे?
जैसा पहले ही कहा गया प्रोमोटर अपना शेअर फेस वैल्यू पर या एट पार (10 रु का 10 रु में) या फेस वैल्यू पर डिस्काउंट (जैसे 10 रु का 8 रु में) पाते हैं, जबकि अन्य शेयरहोल्डर शेअर के बाजार दामों पर खरीदते हैं। इससे दोनों का चरित्र बदल जाता है।
उदाहरण लेते हैं कि कंपनी 4 रु लाभांश घोषित करती है। एट पार शेअर की पूंजी पर यह 40% (10 रु पर 4 रु) रिटर्न हुआ (ऊपर की डिस्काउंट वाले के लिए 50% (8 रु पर 4 रु)), पर जिसने सेकंडरी या शेअर बाजार से यह 50 रु में खरीदा है उसके लिए 8% (50 रु पर 4 रु) और जिसने 100 रु में खरीदा है उसके लिए 4% मात्र (100 रु पर 4 रु)।
आरंभिक दौर में (आज की स्थिति पर बाद में आते हैं) शेअर बाजार में दामों के घटने-बढने का मुख्य आधार यही लाभांश दर था (मांग-आपूर्ति संतुलन तो हमेशा दाम को आधार से इधर-उधर करता ही है)। जिस शेअर पर लाभांश बढ जाए तो उसके बाजार दाम भी बढ जाते थे, जिस पर लाभांश गिर जाए उसके दाम गिर जाते थे, क्योंकि सभी शेअरहोल्डर अपनी रिटर्न बढाना चाहते थे और नीचे जाने पर उस शेअर से निकलना चाहते थे। इस प्रकार पूरे बाजार में शेअर पूंजी प्राप्त करने हेतु दिए जाने वाले रिटर्न की एक औसत दर बन जाती थी अर्थात अतिरिक्त पूंजी मालिकों द्वारा औद्योगिक पूंजीपति को पूंजी की आपूर्ति के दाम – इसे ही अर्थशास्त्र की शब्दावली में ब्याज कहा जाता है। जबकि लाभ की दर हर कंपनी में असमान होती है।
उदाहरण से स्पष्ट है कि यह प्रोमोटर औद्योगिक पूंजीपति को प्राप्त लाभ की दर से कम (विशेष स्थिति में अधिक भी) होती है पर बैंक में पूंजी जमा करने पर मिलने वाले ब्याज से अधिक, अन्यथा बैंक में पूंजी जमा करने के बजाय शेअर में इसे निवेश कोई क्यों करता। इस दौर में भी सट्टेबाजी, जुआ नहीं, (speculation, not gambling) की एक भूमिका थी, पर आज के मुकाबले सीमित।
प्रोमोटर एक दूसरे तरीके से भी प्रोफिट प्राप्त करते हैं – उन्हें शेअर अलॉटमेंट के दाम (उदाहरण में 10 या 8 रु) और बाजार दाम में फर्क (इस उदाहरण में 100 या 50 रु)। अपने शेअर को आज के बाजार दाम पर बेचने से वह यह प्रोफिट प्राप्त कर सकते हैं। आज इस प्रोफिट का मुख्य भाग वित्तीय पूंजीपतियों के हाथ लगता है। (इस पर बाद में)
लेकिन आज की अवस्था देखें।
आप शेअर बाजार में कितने ऐसे शेअर ढूंढ सकते हैं जिन पर मिलने वाले ब्याज (लाभांश) की दर बैंक में जमा राशि पर मिलने वाले ब्याज दर से अधिक हो? शायद ही अपवादस्वरूप कोई मिले। एक वजह है पूरे पूंजीवाद में लाभ दर (कुल लाभ नहीं) का गिरना। दूसरी वजह है प्रोमोटर व वित्तीय पूंजीपतियों का बढता नियंत्रण जो लाभ के अधिकांश हिस्से पर खुद काबिज हो जाते हैं। अतः आज लगभग पूरे शेअर बाजार में लाभांश या ब्याज दर बैंक ब्याज दर से बहुत कम हो गई है।
ऐसे में शेअर बाजार में कोई निवेश क्यों करता है? उसे इससे क्या रिटर्न प्राप्त होता है? फिर शेअर दामों के उतार चढ़ाव के मुख्य आधार क्या हैं?
आज आप शेअर बाजार पर कोई भी विश्लेषण देखें। उसमें लाभांश की चर्चा तक मिलना आज दूभर है। आज जो भी स्टॉक मार्केट में शेअर खरीदता है, वह लाभांश की दर के आधार पर नहीं, बल्कि यह सोचकर कि दाम बढने से उसे कुछ रिटर्न प्राप्त होगा। हालांकि कंपनी के बिजनेस में उतार चढ़ाव दामों के उतार चढ़ाव में एक संकेतक की भूमिका निभाते हैं पर वस्तुतः कंपनी के शेअर अपने आप में एक माल बन गए हैं जिनके दाम कंपनी की लाभ दर से सीधा संबंध नहीं रखते। उनका अपना मांग-आपूर्ति संतुलन दामों को निर्धारित करता है। नीचे दाम पर खरीद का मौका व ऊंचे दामों पर बेचने का मौका पाना ही शेअर खरीद-बेच का मौजूदा मुख्य मकसद है (हालांकि दाम गिरने से उलटे नुकसान भी उठाना पड़ सकता है)। जो शेअर बाजार में इस मांग-आपूर्ति को नियंत्रित कर सकता है, वह दामों को भी। यही मौजूदा सट्टेबाजी (speculation) का आधार है। अदाणी इस मांग-आपूर्ति को नियंत्रित कर दाम बढा सका तो लंबे अरसे तक चुप रह कर मांग-आपूर्ति में दखल प्राप्त कर लेने पर उसके प्रतिद्वंद्वी दाम गिराने में भी कामयाब हुए। मीडिया प्रचार से प्राप्त सिगनल भी इस मांग-आपूर्ति नियंत्रण में एक भूमिका निभाते हैं। अदाणी मोदी सरकार से रिश्तों के प्रचार से एक किस्म की सिगनलिंग में सफल था (दाम बढेंगे ही का प्रचार मांग बढाता है) तो हिंडेनबर्ग रिपोर्ट के जरिए उसका विपरीत सिगनल (दाम गिरेगा, अतः आपूर्ति में वृद्धि ) उसके प्रतिद्वंद्वियों के काम आया।

इस पर नरेंद्र कुमार की राय
“पर यह तय है कि शेअर बाजार में शेअर खरीदने पर यह रकम कंपनी के कारोबार में नहीं लगती। अतः शेअर बाजार में लगी रकम कंपनी के कारोबार में कोई सीधी भूमिका नहीं निभाती। इसीलिए इसे फर्जी पूंजी (fictitious capital) कहा जाता है, क्योंकि मुद्रा के रूप में मौजूद धन के पूंजी बनने के लिए उजरती श्रमिकों की श्रम शक्ति खरीद कर सरप्लस वैल्यू हस्तगत करना जरूरी शर्त है। चूंकि शेअर बाजार में लगी पूंजी कंपनी की औद्योगिक पूंजी में जुडती ही नहीं, अतः न उस पर सरप्लस वैल्यू उत्पादित होती है, न वह वास्तविक पूंजी बनती है।”
मुकेश असीम की यह व्याख्या भाववादी है। मैं ने इसकी आलोचना और इस तथ्य को साथियों के संज्ञान में लाया था, लेकिन कोई ध्यान नहीं दिया।
फिर से पढ़ें और विचार दें :—
पूंजी बनाम वित्त पूंजी!
पूंजी तथा वित्त पूंजी के बीच कोई चीनी दीवार नहीं है।ऐसी समझ अक्सर वित पूंजी को जनविरोधी लेकिन पूंजी के चरित्र को पवित्र कार्य में लगा दिखाता है। वित्त पूंजी भी उत्पादन में लगता है और पूंजी भी हेराफेरी में प्रस्थान करता है। बैंक की पूंजी उत्पादन और सट्टेबाजी दोनों में जाता है। यह पूंजी के मालिकों की इच्छा और जरूरतों पर निर्भर करता है।
संपूर्णता में आज अर्थव्यवस्था को पूंजी अपने वित्त पूंजी के स्वरूप में नियंत्रित करता है। हर हाल में उत्पादन ही अर्थव्यवस्था का मुख्य ऊर्जा स्रोत होता है, लेकिन वह वित्त पूंजी के द्वारा नियंत्रित होता है। उसमें लगी छोटी से छोटी पूंजी भी वित्त पूंजी के अधीन होती है।
साम्राज्यवाद के युग में स्वतंत्र उत्पादक पूंजी की कल्पना करना लेनिन को नकारना है। अक्सर लोग कहते हैं कि साम्राज्यवाद व वित्त पूंजी लेनिन के युग से आगे जा चुका है। यह सिर्फ अपने आकार में बढ़ा है लेकिन इसके सारे चरित्र को लेनिन अपनी पुस्तक में उद्घाटित कर चुके हैं।साम्राज्यवाद के युग में पूंजीवाद का स्वतंत्र विकास असंभव हो जाता है। इसीलिए लेनिन ने साम्राज्यवाद को पूंजीवाद की चरम अवस्था कहा जिसके बाद सिर्फ समाजवाद ही समाज को बेहतर दिशा में ले जा सकता है।
तमाम संशोधनवादी-सुधारवादी यही भ्रम फैलाकर साम्राज्यवाद तथा वित्त पूंजी के खिलाफ लड़ने के नाम पर पूंजी तथा पूंजीवाद के पक्ष में खड़ा होते हैं। अक्सर क्रांतिकारी जमात के बुद्धिजीवी भी इस समझ के शिकार हो जाते हैं । ऐसे साथियों को हमेशा वित्त पूंजी के उस स्रोत की खोज करनी चाहिए, जहां से वह अपना मूल चरित्र यानी मूल्य के रूप में इस पूंजीवादी व्यवस्था में अपनी किसी चीज को खरीदने की क्षमता प्राप्त करता है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here