डर

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रामबाबू का घर पहाड़ी इलाकों से होकर जाता था, जब से इस इलाके में सर्च आॅपरेशन चालू हुआ है, वह वहां से गुजरने से डरता है? वह अकेले नहीं गांव के और भी लोग डरते हैं, सभी डरते हैं। बच्चांे का तो स्कूल जाना ही बंद हो गया है। लोगों ने जंगलो में जलावन की लकड़ी भी लाना लगभग बंद कर दिये हैं, पता नहीं कब किस सीआरपीएफ टीम से मुलाकात हो जाए और वे सवालों की झड़ी लगा दे।
एक तो ऐसे ही उनकी भाषा समझ नहीं आती, उपर से हर सवाल का वे वही जवाब चाहते है जो सोचकर रखते हैं। कोई और जवाब मिलने पर डंडे और बंदुक से ही बात करते हैं। इस तबाही से कैसे बचा जाए वे खुद नहीं जानते। गांव के लोग कुछ नहीं जानते थे, वे तो अपनी साधारण सी दुनिया में शांति से जीना चाहते थे, मगर सीआरपीएफ कैंप, जवानों की गस्ती ने उस शांति में पूरा भय भर दिया था। गस्ती से उन्हें कोई मतलब न था, यदि उन्हें कोई परेशानी नहीं दी जाती। मगर सीआरपीएफ के जवान कई बार गांव में घुस आते और बेवजह की तोड़ फोड़ कर डालते। उन्हें इस तबाही का डर था।
जब से सीआरपीएफ का कैंप यहां खुला है आए दिन वे गस्ती पर ही लगे रहते हैं। हाथ में बंदूक और पीछे पीठ पर के बैग में भी जाने क्या क्या समान। पूरे गांव के लोग तो डरते ही हैं, सतर्क भी रहते हैं, रामबाबू कुछ खास ही डरता है। गांव के लोग उसको बेवकूफ कहते हैं, वह भी मानता है कि उसे कोई चीज जल्दी समझ में नहीं आती। वह जल्दी कोई उपाय भी नहीं ढुंढ पाएगा और उनके सवाल पर तो मुंह ताकता रहेगा। पर चुप रहने की सजा क्या मिलती है, यह बिरजू ने अच्छी तरह बताया था, चुप रहने वालों की वे दुर्गति कर देते हैं और यही बात उसे और डराए रखती थी। जब वह छोटा था, स्कूल मास्टर पूरे क्लास के बच्चे को पाठ याद करने को कहते थे और उसे जब कुछ याद ही नहीं होता था वह मास्टर के सामने बूत बनकर खड़ा रहता था, मास्टर कहते भी थे, डंडे भी पटकते थे, बोलो पर वह क्या बोले जब कुछ जानता ही नहीं था तो? वह आज भी उस विषय में क्या बोलेगा जिसके बारे में जानता ही नहीं है सोच कर उसके होश उड़ जाते थे। गांव के कई लोगों की मुलाकात ऐसी टीम से हो चुकी है पर रामबाबू अब तक बचा हुआ था।
नहीं जानने पर क्या बोलेगा, उसने कभी नहीं सीखा था, वह इस डर से कम ही आता जाता था। आज बहुत दिनों के बाद वह घर से निकला था। राशन खत्म हो चुका था। दुकान दस बजे खुलते थे। वह 9 बजे ही निकल पड़ा था। 9 बजे का समय था, पर वर्षा जो हुई थी सूरज की हल्की रोशनी ही जमीन पर आ रही थी। वह भी बादलों से लुकाछुपी खेल रही थी। पहाड़ों के ओट से झींगूरों की तेज आवाज अब भी गूंज रही थी, कहीं कहीं अभी भी मुर्गे बोल रहे थे। चिड़ियों की चहचहाअट भी रह-रहकर कानों में पड़ रही थी। हल्की ठंडी हवा मन को तरोताजा कर देने वाली थी। उंचे-उंचे पहाड़ किसी चित्रकार की पेंटिग से दिख रहे थे। वह पेंटिग जो सुंदर-सुंदर आलिशान घरों के दीवारों की रौनक बढ़ाया करते थे, जिसके सौंदर्य का बखान करते कई लोग कवि कहला जाते थे, उन्हीं पहाड़ों के बीच एक छोटे से गांव का रामबाबू बड़ा चैकस होकर आगे बढ़ रहा था। जो कई के लिए मनमोहक थी, उनके लिए आए दिन उस बीच से एक भय पैदा होता रहता था। उनकी नजरें पहाड़ों की उंचाई की ओर इसलिए नहीं पड़ती थी कि वे काफी दर्शनीय थे, बल्कि इसलिए पड़ती थी कि उस ओर से कोई खतरा तो नहीं आ रहा है। उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें थी, जिसके कारण उसे खुद में गर्मी का एहसास हो रहा था। वह पहाड़ी रास्तों में भी बाइक चलाने में एक्सपर्ट था, इसलिए तेजी के साथ वह आगे बढ़ता जा रहा था, शहर के फोरलेन में बाइक चलाने वाले शायद ही इस रास्ते पर बाइक चला सकते थे, पर ये गांव के लोगों ने यह कला अच्छी तरह सीख ली थी। अब राशन दुकान खुल ही जाएगा। उसकी बाइक जो थोड़ा घर्र घर्र की आवाज ज्यादा करती थी, पूरे शांत वातावरण में अकेली गूंज रही थी। वह जल्द से जल्द राशन की दुकान में पहुंच जाना चाहता था। वह आगे बढ़ रहा था कि सहसा उसने बाइक रोक दी। उसने ध्यान लगाकर सुना, कहीं दूर से कोई आवाज आ रही थी, हां यह भी किसी बाइक की आवाज थी, कोई उसी इलाके में बाइक चला रहा था, कौन हो सकता है वह थोड़ा सहमा। बाइक की आवाज धीरे-धीरे नजदीक आ रही थी और कुछ ही देर में एक बाइक उसे अपनी ओर आती नजर आई। उसने गौर से देखा और सहम गया। उस बाइक में दो सीआरपीएफ के जवानों की आकृति नजर आ रही थी। वह रूका, एक पल को ठहरा, क्या करें?
‘‘पर मैंने क्या किया है, कुछ तो नहीं! मैं डर क्यों रहा हूं।’’-उसने खुद से कहा तो जरूर मगर अगले ही पल बीते दिन उसके आंखों के सामने उभर गये। सुबह की सारी तरोताजगी एक ही पल में उड़ गयी। वह अपने अंदर एक बेचैनी का एहसास कर रहा था जिससे अब ये मौसम गर्म लगने लगे थे। हंसता हुआ वह वाताररण डरावाना मालूम पड़ रहा था। उसके सामने कई तस्वीरें उभरने लगी थी। दीपू, काली चाचा, सुरेश, और ढेर सारे लोग। उसने कोई गलती नहीं की थी, मगर फिर भी वह यहां खड़ा रहने से डर रहा था। उसके सामने दीपू का चेहरा उभर आया।
आखिर दीपू की भी क्या गलती थी। वह भी तो यही सोचकर खड़ा था और सीआरपीएफ वालों ने उससे माओवादियों का ठिकाना पूछा जो वह जानता ही नहीं था, पर नहीं बता पाने पर क्या किया गया? जेल में डाल दिया, और काली चाचा की पीटकर हाथ तोड़ डाली। मैं इस बेवजह के पचड़े में क्यों पड़ूं? अकेला हूं, ये कुछ भी कर सकते हैं। पकड़कर फिर सैकड़ों सवाल पूछेंगे और नहीं बता पाने पर चमड़ी उधेड़ेंगे। नहीं!’’-रामबाबू को पसीने आ गये। अभी अगर वह बाइक चालू करेगा तो उसके बाइक की आवाज पूरे वातावरण मे गूंज जाएगी और फिर वे पीछे पड़ जाएंेगे, तो क्या करे? बाइक यहीं साइड में छुपा देता हूं।’’-उसने बाइक साइड के घने झुड़मुठ में छूपा दी, बाद में आकर इसे ले जाया जा सकता है। अब वह घबरा उठा था, बाइक साइड करने के बाद वह खुद भी झाड़ियों में छुप गया, मगर अगले ही पल दिमाग की बत्ती जली-‘‘ पागल हूं! अगर इनकी नजर मुझपर पड़ गयी तब तो मुझे पकड़कर जेल में ही डाल देंगे। मुझे यहां से भाग जाना चाहिए। पर दूसरे रास्ते से। वह घाटी वाले रास्ते की ओर बढ़ने लगा था, यह काफी गहरा था और इसमें उतरना भी काफी खतरनाक था। पर वह उन रास्ते से भाग निकलना चाहता था, अभी वह बीच तक भी नहीं पहुंचा था कि बाइक वहीं आकर रूक गयी। रामबाबू ने मुड़कर देखा वह उसे आने का इशारा कर रहे थे। रामबाबू के होश उड़ गये। अब तो वह फंस गया था इनके चंगुल में, अब इनकी मर्जी पर निर्भर थी कि उसके साथ क्या सलूक किया जाए? इनका मन किया तो दो चार सवाल करके छोड़ देंगे, नही ंतो हाथ पैर तोड़ देंगे। पर क्या करता अब भाग पाना संभव नहीं था। वह उनकी ओर वापस आया।
‘‘यहां क्या कर रहे थे? किसके पास जा रहे थे?’’-एक जवान ने रोबीले अंदाज में कहा। रामबाबू बूरी तरह घबरा गया। उसके माथे से पसीना बहने लगे थे, पर उसने ढांढस बांधी, अगर वह बच्चा रहता और सामने मास्टरजी खड़े रहते तो बूत बना खड़ा रहता। मगर अभी उसे बोलना था। ‘‘घर जा रहा था।’’-उसने टूटी हिन्दी में कहा।
‘‘मैं कहता हूं यार! ये झूठ बोल रहा है। देखो इसके माथे से कितना पसीना बह रहा है। क्या वे झूठ बोल रहा है न!’’-दूसरे जवान ने और भी रोबीले अंदाज में कहा। तब तक एक और बाइक आकर खड़ी हो गयाी थी जिसपर तीन सीआरपीएफ जवान बैठे थे। उन सबको देखकर रामबाबू के होश उड़ रहे थे। पर वह अपने चेहरे पर डर भी नहीं लाने देना चाह रहा था, वरना वे कुछ और ही समझेंगे।
‘‘ मैं सच कह रहा हूं! गांव चलकर देख लिजिए।’’-रामबाबू फिर लड़खड़ाती आवाज में बोला।
तब तक दूसरे बाइक से उतरा जवान पास आ गया और रामबाबू के कनपट्टी पर एक थप्पड जोर का मारा, रामबाबू के आंख में आंसू आ गये। ‘‘सब बतायेगा ये! इसको ऐसे ही चार-पांच लात दो।’’-इतना कहकर वह और पास आया और रामबाबू का काॅलर पकड़कर उसे बूरी तरह झकझोड़ा। ‘‘बता कि माओवादियों का ठिकाना कहां है?’’
‘‘मैं क्या जानूं साहब ! मुझे इस बारे में कुछ नहीं मालूम!’’-रामबाबू ने हाथ जोड़ते हुए कहा। पर दूसरे जवान ने उसे जमीन पर पटक दिया।
‘‘ठिकाना बता जल्दी से! वरना चमड़ी उधेड़ दूंगा। कुछ नहीं जानता तो यहां क्या कर रहा था, कहां से आ रहा था? किससे मिलकर? यहां कोई घर है क्या? जंगल है सिर्फ जंगल! फिर क्या कर रहा था?’’- एक जवान ने फिर कहते हुए लात मारी। रामबाबू के अब सब्र का बांध टूट रहा था। वह पूरी तरह रूंआसा हो गया। ‘‘मैं कुछ नहीं जानता’’- रामबाबू बोला। पर जब वह यह बात बोलता, वे उसे एक कुंदा बंदुक से दे मारते।
‘‘अगर यह नहीं जानता तो वहां क्या कर रहा था?’’-वे बुदबुदा रहे थे और लात घुंसों की बरसात लगातार कर रहे थे। जब रामबाबू बूरी तरह घायल होकर जमीन पर गिर पड़ा, तब उन्होंने मारना बंद किया।
रामबाबू को चक्कर आ रहे थे। वह अर्ध मूर्छा में था। उसने आंखे खोल कर देखी, वे उस झाड़ियों में कुछ ढुंढ रहे थे, हां उन्होनंे उसकी बाइक निकाल ली थी। वे बाइक लेकर उसे चेक कर रहे थे। एक जवान ने फिर आकर एक कुंदा उसके पीठ पर मारा और बुदबुदाया-‘‘ साले को गोली मार देना चाहिए! जरूर नक्सली ही है यह!’’- रामबाबू को ऐसा लगा कि यह उसके जीवन का सबसे आखरी पल है। उसने देखा वे सीआरपीएफ के जवान उसकी बाइक पर बैठकर बाइक ले जा रहे है।
उसके आंखों के सामने एक बार फिर अंधेरा छा गया। और वे तस्वीरें नाचने लगी जब उसने थोड़ा थोड़ा करके पैसे जमा किये थे, रात दिन की मेहनत से कमाए पैसे, एक बाइक के लिए…और जब बाइक आई वह उसे कैसे संभाल कर रखता था……. आज वह जा रही थी। शायद हमेशा कि लिए उसकी आंखे उन्हें खोने वाली थी। वह उन्हें तब तक देखता रहा जब तक वे आंखों से ओझल नहीं हो गये। आंखों से ओझल होते ही उसके आंखों के सामने फिर अंधेरा छाने लगा था। पीठ का दर्द असहनीय हो रहा था पर उससे भी ज्यादा मन का दर्द असहनीय हुआ जा रहा था। कुछ ही देर में या तो वह सीआरपीएफ वालों के हाथों हाॅस्पीटल में रह सकता था या डायरेक्ट जेल में …..पर अभी वह जमीन पर पड़ा था, बिल्कुल अधमरा सा। उसके हाथ नहीं उठ रहे थे और न ही पीठ का दर्द उसे उठने दे रही थी। उसे डर था जिससे सभी डरते थे जिससे बचने की उसने भरसक कोशिश की थी, पर बावजूद जिससे आज उसकी भिडंत हो गयी थी, जो उसकी अपनी न बनाई हुई थी न चुनी हुई थी बस थोपा हुआ था। जो दूसरे दिन अखबारों में बड़े सुंदर शब्दों में प्रस्तुत होने वाला था। जिसमें उसके दर्द का कहीं जिक्र न होने वाला था, न शारीरिक दर्द का, न मानसिक।
इलिका प्रिय

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