15 अगस्त 1947 के बाद दिल्ली में धरना-प्रदर्शनों की जगह इंडिया गेट स्थित राजपथ के दोनों तरफ थी. अंग्रेजो के जाने के तुरंत बाद ही अनेकों समूहों व संगठनों द्वारा राजपथ के दोनों तरफ़ तत्कालीन सरकार के खिलाफ धरना प्रदर्शन व सम्बंधित पोस्टर-बैनर नज़र आने लगे थे. विदेशी राजनयिकों व नेताओं के संसद व राष्ट्रपति भवन आने का भी यही रास्ता था. तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं और नौकरशाहों को लगा कि आते जाते विदेशी मेहमानों की नज़र के सामने इन धरना प्रदर्शनों के पड़ने से भारतीय राज्य की बेइज्जती होती है. अंततः नेहरु के कार्यकाल के अंतिम दिनों में राजपथ पर धरने-प्रदर्शन पर रोक लगा दी गयी. उसके बाद धरने-प्रदर्शनों का स्थल समीप ही ‘बोट क्लब’ हो गया. 1988 में महेद्र सिंह टिकैत की ऐतिहासिक 1 माह का धरना यहीं हुआ था. कहते है कि बोट क्लब पर आंदोलन के शोर से तत्कालीन राष्ट्रपति को नींद नहीं आती थी. पूरा राजपथ किसानों के साथ आये गाय-बैल के गोबरों से पट गया था. इसके बाद यहाँ भी धरना- प्रदर्शन की इजाजत छीन ली गयी. उसके बाद इन्हें धकेलते हुए जंतर मंतर, रामलीला मैदान से होते हुए धरना-प्रदर्शनों को राजधानी दिल्ली से बाहर फ़ेक दिया गया.
यह क्रोनोलोजी यह समझने के लिए जरूरी है की क्यों आज का किसान आन्दोलन दिल्ली की सीमा पर धरना दे रहा है. यह एक रूपक भी है कि कैसे पिछले 70 सालों में ‘भारतीय गणतंत्र’ से लोकतंत्र को बाहर फेका गया है. मोदी ने इस लोकतंत्र विहीन गणतंत्र को राजतंत्र में बदलने का बचा खुचा काम पिछले 6 सालों में बखूबी पूरा कर दिया और अब तो इस नए राजतंत्र के नए महल की रूपरेखा 2 हजार करोड़ के ‘सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट’ के रूप में बन भी चुकी है. जिसके लिए राजपथ के आसपास के करीब 3000 पेड़ काटे जायेंगे. राजतंत्र को आक्सीजन की जरूरत कहाँ होती है?
यह सुखद संयोग है की इस समय ‘अरब स्प्रिंग’ के भी 10 साल पूरे हो रहे है. अरब स्प्रिंग में भी ‘राजतन्त्र’ यानी तानाशाही और लोकतंत्र आमने-सामने था. यह किसान आन्दोलन अरब स्प्रिंग से बहुत से साम्य लिए हुए है. और इसके उस तरफ़ बढ़ने की पूरी संभावना है. यह भी सुखद संयोग है कि पिछले साल हमने बहुचर्चित शाहीन बाग आन्दोलन के कन्धों पर सवार होकर नए साल में प्रवेश किया था और इस बार हम वर्तमान किसान आन्दोलन के कन्धों पर सवार होकर नए साल में प्रवेश करने जा रहे है. इससे अच्छा ‘हैप्पी न्यू इयर’ क्या हो सकता है. कोरोना की आड़ में दबाये जाने के बाद शाहीनबाग आन्दोलन मानो फीनिक्स की भांति दुबारा वर्तमान किसान आन्दोलन के रूप में फिर उठ खड़ा हुआ है.
लाकडाउन के बाद शहरों से लौटते मजदूरों के नाउम्मीदी और बेचारगी भरे चित्रों ने हमें बुरी तरह हिला कर रख दिया था. उस समय कौन कह सकता था कि ये मजदूर अपनी बदली भूमिका में इतनी जल्दी वापस दिल्ली की सीमा पर लाखों की संख्या में जमा हो जायेंगे और और पूरे देश में उम्मीद की बयार का एक कारण बन जायेंगे.
लेकिन इतिहास ऐसा ही होता है, हर मोड़ पर हमें आश्चर्यचकित करता हुआ.
दरअसल वर्तमान कृषि कानूनों का असर इतना व्यापक है की इसकी ज़द में देश की 80 प्रतिशत से ज्यादा आबादी आ जाती है. भारतीय किसान यूनियन [डाकुंडा] के जगमोहन सिंह ने इसे सटीक तरीके से ‘ ट्रिपल मर्डर वाला बिल’ कहा है जो केंद्र-राज्य संबंधों की हत्या [क्योकि कृषि राज्य का विषय है] करता है, किसानों की हत्या [समर्थन मूल्य व सरकारी मंडी का ख़त्म होना और कारपोरेट फार्मिंग के कारण किसानो की जमीन का छिनना] करता हैं और शहरी व ग्रामीण गरीबों की हत्या [पी डी एस सिस्टम का खात्मा, और महगाई का बढ़ना] करता है. और हम जानते है की ट्रिपल मर्डर में कोई जमानत नहीं होती. इसीलिए आन्दोलनकारी, सरकार को कोई भी रियायत देने के मूड में नही है. बिल के असर की इसी व्यापकता के कारण पंजाब का भूमिहीन दलित भी इन कानूनों के खिलाफ है.
पंजाब के भूमिहीन दलितों का प्रमुख संगठन ‘जमीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी’ के प्रतिनिधि दिल्ली की सीमा पर बैठे है. हालाँकि इस संगठन के नेता गुरुमुख ‘वर्कर्स यूनिटी’ को दिए अपने इंटरव्यू में कहते है कि यदि इस आन्दोलन के नेता दलितों को भी नेतृत्व में प्रतिनिधित्व देने के लिए तैयार हो जाते है तो दलित भी इस आन्दोलन से बहुत ही उत्साहपूर्वक जुड़ जाएगा. लाकडाउन के समय जिस तरह से पंजाब के जाट सिक्खों ने भूमिहीन दलित सिक्खों के खिलाफ मजदूरी के सवाल पर उनका बायकाट किया था, वह अभी भी दलितों के जेहन में ताज़ा है. इसके बावजूद उनका इस आन्दोलन को समर्थन देना इसकी व्यापकता को दर्शाता है.
दरअसल इस वक़्त यह आन्दोलन कृषि के अंदर के वर्गीय भेद पर नहीं बल्कि पूरे कृषि क्षेत्र के साम्राज्यवादी-दलाल पूँजी द्वारा इसके दोहन के खिलाफ है. जिसका चेहरा इस वक़्त अदानी- अम्बानी हैं.
सिंघू बार्डर पर बैठे एक 80 साल के किसान, पत्रकार अजीत अंजुम को यह बात सरल तरीके से यूँ समझाते है- ‘मै 1963 से 1970 तक फ़ौज में था. 1965 में मेरी सैलेरी 62 रुपये थी. उस वक़्त एक टन गेहूं का सरकारी रेट 76 रुपये प्रति कुंतल था. आज 2020 में फ़ौज में न्यूनतम वेतन 40 हजार रुपये है और गेहूं का सरकारी रेट 1840 रुपये प्रति टन है.’ यानी इस दौरान तनख्वाह बढ़ी 645 गुना, लेकिन गेहूं का रेट महज 24 गुना बढ़ा. जब आप आईएएस, नेताओं या कारपोरेट मैनेजरों की तनख्वाहों से गेहूं धान के रेट की तुलना करेंगे तो यह अंतर और भी भयावह नज़र आएगा. 80 साल के इस किसान के इन सरल आंकड़ों में खेती की बर्बादी का सार छुपा हुआ है.
इस किसान आन्दोलन ने जिस तरह अदानी-अम्बानी को निशाने पर लिया है, उसने इस आन्दोलन की न सिर्फ धार बढ़ा दी है बल्कि मोदी को रक्षात्मक पोजीशन लेने पर मजबूर कर दिया है. शुरुआत में आन्दोलन को खालिस्तानी- आतंकवादी बताने का सरकार का प्रयास भी बूमरंग होकर सरकार के खिलाफ ही चला गया. अरब स्प्रिंग की तरह ही यह आन्दोलन भी न सिर्फ जमीन पर बल्कि सोशल मीडिया के क्षेत्र में भी सरकार के दुष्प्रचार का सफलतापूर्वक मुकाबला कर रहा है.
पंजाब में यह आन्दोलन और भी सघन है. एक तरह से रिलायंस का सभी कुछ पंजाब में बंद करा दिया गया है. ‘द प्रिंट’ के अनुसार पंजाब में अब तक कुल 1338 जिओ के टावर तोड़ डाले गए है. जिओ सिम के बायकाट का असर इसी से समझा जा सकता है कि मुकेश अम्बानी को ट्राई को पत्र लिखना पड़ा कि वो इसमे हस्तक्षेप करे.
हालांकि अब यह आन्दोलन कृषि संकट के वर्तमान परिदृश्य से आगे जा रहा है. 28 दिसम्बर को ही कर्नाटक और महाराष्ट्र से आये मजदूर संगठनों के एक जत्थे ने एक राष्ट्रीय मीटिंग बुलाने का आहवान किया है ताकि इसमे मजदूरों और जनता के अन्य समूहों की मांगो को जोड़कर इसे और व्यापक बनाया जाए. दूसरी तरफ सरकार पूरा प्रयास कर रही है कि इसे कृषि बिल में संशोधनों तक सीमित कर दिया जाय.
दरअसल 1990 के बाद जो आर्थिक नीतियां इस देश में शुरू हुई थी. उसकी उम्र अब ख़त्म हो चुकी है. उसका परिणाम हमारे सामने है. 4 लाख किसानों की आत्महत्या, व्यापक गरीबी, आर्थिक असमानता, भयावह बेरोजगारी और राजनीति के धरातल पर फन उठाता फासीवाद. आज देश पुनः दो राहे पर खड़ा है. शासक वर्ग को जरूरत है नए ‘सुधारों’ की [ये कृषि बिल इन नए सुधारों का ही हिस्सा है] और जनता को जरूरत है, नए आंदोलनों की. ताकि न सिर्फ इस ‘नए सुधारों’ को सफलतापूर्वक रोका जा सके बल्कि राजनीतिक धरातल पर उभर रहे फासीवाद को भी कुचलते हुए, जन आन्दोलनों को वहां तक उठाया जाय जहां से मनुष्य-सापेक्ष व्यवस्था की उम्मीद एक वस्तुगत जरूरत बन जाय.
अरब स्प्रिंग के एक प्रदर्शनकारी के शब्दों में कहें तो हम उम्मीद करने के लिए अभिशप्त है. इसके अलावा कोई चारा भी तो नहीं है.
#मनीष आज़ाद