पिछले 27 जुलाई से झारखण्ड के मनरेगा कर्मी अपनी मांगो को लेकर अनिश्चित कालीन हड़ताल पर हैं। विभाग उनकी माँगो पर विचार करने के बजाय उन्हें हड़ताल खत्म करने को लेकर तरह की धमकी दे रहा है। सैयद नन्हे परवेज़ भी मनरेगा कर्मी हैं तथा स्वतंत्रता दिवस पर उन्होंने अपनी पीड़ा एक पत्र के माध्यम से व्यक्त की है।
साथियों जोहार, नमस्कार, आदाब
आज मेरी तरफ से स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर सभी भारतीयों को मेरी तरफ से हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।
साथियों, आज ही के दिन झारखंड में मनरेगा नामक विश्व कि सब्जी बड़ी और महत्वाकांक्षी योजना में हमलोग नियुक्ति 13 वर्ष पूर्व 2007 में हुई और ग्रामीण क्षेत्रों के सबसे कमजोर परिवारों को 100 दिनों का गारंटी वाली रोज़गार देने में अपने आपको झोक दिया। उस समय एक हुजूम कि शक्ल में लोगों के भीड़ को जॉब कार्ड उपलब्ध कराने से लेकर ग्राम सभा से आयी योजनाओं को धरातल में उतारने में दिन रात लगें रहते थे। सभी लोग हाल ही में कॉलेज से पास आउट थे , जिसमें 90 फीसदी स्नातकोत्तर थे। एक अजीब सा उमंग था, और बुजुर्गों का एक कथन था कि तीन साल अगर नौकरी किए तो नौकरी पक्की। लोग जी जान से जुड़कर अल्प मानदेय में भी कार्य करने को मजबूर हुवे की बस कुछ वर्षों की बात है, यदि स्थाई हुवे ती सब समस्याओं का हाल आपने आप हो जायेगा।
आज सोचकर बड़ा अजीब सा मन में उथल पुथल हो रहा है कि तेरह वर्षों बाद भी आज हमारी जिंदगी उससे भी बदतर स्थिति हो चुकी है। शादी हो गई, बच्चे बड़े होते जा रहे है, बुजुर्ग माता पिता की देखभाल आदि में आर्थिक रूप से कैसे मजबूत हो और समस्या का समाधान कैसे हो। इतने लंबे समय में मनरेगा में हजारों संशोधन हुवे, सैकड़ों नई स्कीम और कार्य करने के तरीके ईजाद हुवे, पर एक भी ऐसा समय नहीं आया कि रोज़गार की गारंटी देनेवाले कर्मियों कि नौकरी या भविष्य की भी कुछ गारंटी हो, कुछ भला हो। करीब करीब हर साल महीनो तक हड़तालें , धरने, प्रदर्शन किए गए। कई कर्मियों कि कार्य के दौरान मौतें हुई पर किसी भी सरकारों को ध्यान नहीं गया।
यूपीए 2 की सरकार मनरेगा कि वजह से बनी, आज भी कोराना जैसी महामारी से उत्पन्न स्थिति में भी मनरेगा ही एक मात्र सहारा सिद्ध हो रहा है, ग्रामीण क्षेत्रों में , और प्रवासी मजदूरों के घरों में चूल्हा जलवा रही है मनरेगा। पर क्या किसी में एक जरा सोचने की भी कोशिश की क्या मनरेगा कर्मी जो सिर्फ अल्प मानदेय पर काम करते है, उन्हें ना बीमा, ना स्वास्थ्य बीमा, ना पीएफ, ना मौत होने पर मुआवजा , ये कभी भी कोई पदाधिकारी द्वारा जब चाहे नौकरी से निकाल दिया जाता है।
हमने तो अपनें जीवन का सबसे सुनहरे पल मनरेगा को दिए, लोगों को खुश करने में, और बंधुआ मजदूरी को 13 साल हो गए। क्या कभी भी हम सम्मान वाली जिंदगी नहीं जी पाएंगे। क्या संविदा शब्द का अंत होगा हमारी जिंदगी से, या इसी के साथ अंत होगा हमारा। आज झारखंड में विगत 27 जुलाई से सारे मनरेगा कर्मी हड़ताल में है, लोग बड़ी आसानी से कहते है की अभी वक़्त नहीं है हड़ताल का , पर कोई कभी ये जानने की कोशिश किया कोरिना काल में कोरिंटिन्न सेंटर को संभालने वाले, मजदूरों को घर पहुंचाने वाले, भूटान तक गए प्रवासी मजदूरों को लाने के लिए, घर घर सर्वे किए, अनाज वितरण किए, जोबकर्ड बनाए, रोज़गार दिए, कोरोना वॉरिरॉयर के रूप में कार्य किए वो भी बिना बीमा के,बिना प्रोत्साहन के, बिना कोई भी सुरक्षा के। पर जब राज्य के पदाधिकारियों के द्वारा दमनात्मक करवाई कि जाने लगी, कई लोग तनाव में ब्रेन हेमरेज होने लगे, कई को दुर्घटनाएं होने लगी और कई कोरिना पॉजिटिव होने लगे तो क्या करतें। जब सबको कहा जाता कि घर में रहे, और सुरक्षित रहे, हमलोग लोगों के सेवा में रहते। हम सबने सरकार को चिट्ठी लिख कर अपना दर्द सुनाया, पर कोई भी कारवाही ना होते देख अंतिम विकल्प के रूप में हड़ताल पे जाने का कठोर निर्णय लेना पड़ा।
अब सरकार और नौकरशाहों द्वारा हमारे दर्द को जाने और साफ नियत से वार्ता करने के बजाय हमारे विकल्प पर ध्यान दिया जाने लगा। सरकारें ऐसी होती है, जो अपने कर्मियों से बात तक नहीं करना चाहती, क्या तेरह साल हमने अपने खून पसीना से सींच कर सरकारों के विभिन्न योजनाओं को धरती पे उतारा, व्यर्थ गया।
साथियों मेरे मन की व्यथा से यदि किसी को चोट पहुंची हों तो माफ करना, पर लोक कल्याणकारी राज्य को यह शोभा नहीं देता, की वो अपने हर नागरिक की भलाई में कुछ सोचे, चाहे वो अनुबंध में कार्यरत उसके कर्मी है क्यूं ना हो। या तो अनुबंध नामक शब्द ही हटा दो या ऐसे किसी भी गरीब बेरोजगारों के साथ अनुबंध वाली नौकरी देके उसकी जिंदगी, उसके परिवार की जिंदगी बर्बाद न की जाए।
धन्यवाद
आपका सैयद नन्हे परवेज़
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