भारत में मुखरता से मिलते हैं नस्लीय हिंसा के जातीय, सांप्रदायिक और लैंगिक संस्करण

0
1123
”I can’t breath” मैं सांस नहीं ले सकता! छोड़ो मुझे! तुम्हें मेरी मां का वास्ता!- ये एक ऐसे शख्स के अंतिम शब्द हैं जिस पर जाली नोट रखने का शक भर था। यह महज़ इत्तेफाक नहीं है कि वह शख्स अश्वेत था और सड़क पर बिना किसी अपील- दलील के उसका दम घोंटने वाला शख्स श्वेत पुलिस वाला था। यह भी संयोग से कुछ ज़्यादा है कि उस देश का राष्ट्राध्यक्ष इन्हीं परिस्थितियों में ट्वीट करता है कि ‘ठग नियमों का अनादर कर रहे हैं’ वह आदेशित करता है नेशनल गार्ड्स को कि वे जल्द से जल्द शांति बहाल करें। और तो और खुद ट्विटर ने उसका एक ट्वीट हिंसा का गुणगान करने वाला करार देकर उसे छिपा दिया; जिसमें उसने लिखा था ‘जब लूटिंग शुरू होती है तब शूटिंग शुरू हो जाती है!’
 जी हां, यह सारा कुछ संयोग नहीं है बल्कि एक ही मानसिकता को स्वर देने वाली अलग-अलग आवाजें हैं।इस मानसिकता की बुनियाद में वही नस्लीय घृणा है, जिसने दुनिया के समूचे इतिहास में शायद सबसे ज़्यादा खून बहाया है। इस नस्लीय घृणा की पुष्टि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा उस वक्त कर देते हैं जब वह कहते हैं कि अमेरिका में श्वेत लोगों के मुकाबले अफ्रीकी-अमेरिकी लोगों के साथ बल प्रयोग की आशंका 30 फ़ीसदी ज़्यादा होती है। वारसा में नाटो सम्मेलन में बोलते हुए उन्होंने आधिकारिक रूप से कहा ”अमेरिका में जेल में बंद आधे से ज्यादा लोग अश्वेत हैं जबकि उनकी आबादी अमरीकी आबादी का महज़ 30% है।”
ज़ाहिर है कि उपरोक्त घटना या इस तरह की घटनाएं मध्ययुगीन नस्लीय और सामन्ती घृणा के बर्बर उदाहरण हैं। अब आते हैं मूल प्रश्न पर कि ऐसे में आम लोगों का या  हमारा कर्तव्य क्या होना चाहिए?
इस सवाल के जवाब में कोई पेचीदगी नहीं है। सीधी सी तार्किक बात है कि आज के लोकतांत्रिक और नागरिक समाज में किसी की सांस केवल इस आधार पर नहीं रोकी जा सकती कि उसकी चमड़ी का रंग अलग है। घटना का वीडियो वायरल होते ही यह सीधी सी तार्किक बात अमेरिकी लोगों को तुरंत समझ में आ गई। देखते ही देखते मुल्क भर में जबरदस्त प्रदर्शन शुरू हो गए। गुस्से का आलम यह था कि आगजनी और तोड़फोड़ की लहर वहां के सबसे सुरक्षित इलाके वाशिंगटन के व्हाइट हाउस तक पहुंच गई और प्रथम पुरुष को प्रथम महिला तथा अपनी संतान समेत लगभग एक घंटे तक बंकर में छिपे रहना पड़ा। यह एक ऐसा शक्तिशाली और संगठित जनाक्रोश है जिसने बिल्कुल साफ़ साफ़ संदेश दे दिया कि हम आधुनिक नागरिक समाज की कीमत पर कोई समझौता नहीं कर सकते। हमारे लिए कोई महानायक – कोई सत्ता – कोई निज़ाम बेमतलब है अगर वह आधुनिक नागरिक समाज के लिए असुविधाजनक, हानिकारक या फिर किसी काम का नहीं है। यह संगठित प्रतिरोध इस कदर फैल गया कि न्यूयॉर्क, लॉस एंजिल्स, डेनवर, फीनिक्स, शिकागो सहित 40 शहरों में तुरंत कर्फ्यू लगाना पड़ा। ज़ाहिर है कि दुनिया भर में इस घटना के पसमंजर में बर्बर नस्लीय मानसिकता के खिलाफ जबरदस्त प्रदर्शन जारी है।
ठीक इसी बिंदु पर अब ज़रा अपने समाज की ओर रुख करें तो एक दूसरी ही तस्वीर नज़र आती है। वैसे तो नस्लीय हिंसा हमारे लिए नयी चीज़ नहीं है; बल्कि यहां नस्लीय हिंसा के जातीय, सांप्रदायिक और लैंगिक संस्करण मुखरता से मिलते हैं। लेकिन इतिहास की बात जाने भी दें तो भी पिछले कुछ समय के घटनाक्रम से वस्तु स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं। हम कह सकते हैं कि पिछले चंद वर्षों से हमारे यहां नस्लीय असहिष्णुता की घटनाओं में तेज़ी से इज़ाफा देखने को मिला है, जिनमें किसी खास जाति, समुदाय या संप्रदाय के लोगों को भीड़ द्वारा बर्बरता पूर्ण ढंग से निशाना बनाया गया। मोहम्मद अखलाक, पहलू खान, उमर, तबरेज अंसारी या नीडो तानियम तो हताहतों के चंद नाम भर हैं; वरना नार्थ ईस्ट, बिहार, झारखंड, बंगाल, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात महाराष्ट्र से लेकर सुदूर दक्षिण तक ऐसी घटनाओं की आवृत्ति बढ़ती ही जा रही है। इनमें अचानक भीड़ कहीं से प्रकट होती है और किसी राह चलते शख्स को रोकती है; उस पर गोतस्करी या चोरी का आरोप लगाकर वहीं  सज़ा -ए-मौत सुनाकर बर्बरता की सारी हदें पार कर जाती है। यही नहीं भीड़ की बर्बरता का बाकायदा वीडियो वायरल हो जाता है। दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक आबादी ऐसे वीडियोज़ या तो बड़े चाव से देखती है या फिर लाभ-हानि की अपनी संकुचित दुनिया में गर्क रहकर इनकी सरासर अनदेखी कर जाती है। पाप – पुण्य के फेर में मुब्तिला हमारा विशाल मध्यवर्ग मानो विरोध प्रदर्शन को अब पाप ही मान बैठा है। कुछ वर्ग और कुछ आधुनिक चेतना सम्पन्न लोग अगर अपनी आवाज़ बुलंद करते भी हैं; अगर वह इस तरह की गतिविधियों के खिलाफ़ पुरस्कार- सम्मान वापसी जैसे अभियान चलाते भी हैं, तो उससे ज़्यादा लोग उन पर हंसने, तंज़ करने और उनकी भर्त्सना करने के लिए कमर कस लेते हैं। इन्हीं परिस्थितियों के लिए दुष्यंत को भारी मन से लिखना पड़ा होगा कि-
‘मत कहो  आकाश में  कोहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।’
फिर यह भी सच है उस आबादी से आप किसी नस्लीय  हिंसा के विरोध की अपेक्षा भी कैसे कर सकते हैं, जो आज भी शादी- सम्बन्धों से लेकर अलग-अलग सामाजिक – राजनीतिक कर्मकांड तक-  व्यक्तिगत खूबियों  या क़ाबिलियत के बजाय चमड़ी के रंग, जाति, कुल, खानदान और अकीदा देखकर संपन्न करती हो। ऐसे लोग अगर किसी अनहोनी के विरोध में कुछ कहते भी हैं तो उसे विशुद्ध पाखंड के अलावा और कुछ नहीं माना जा सकता।
तो अंत में बस यही कि ऐसे पाखंडी समाज को किसी व्यक्ति की सांस सरेआम अवरुद्ध कर देने से क्या फ़र्क पड़ता है। ”I cant breath” की घिघियाती याचना उनके बंद दिलो-दिमाग तक कैसे पहुंच सकती है।
अफ़सोस कि हम इसी बंद दिलो-दिमाग वाली आबादी के बीच रहने को अभिशप्त हैं।
©️ राहुल मिश्रा

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here