हमें इसके पीछे के कारणों का भी अध्ययन करना होगा कि दो धुरी के लोग, आपस में एक दूसरे के धुर विरोधी एक क्रांतिकारी सिद्धांत का विबोध ठीक एक तरह से क्यों करते हैं। यह कैसे संभव है कि आरएसएस का भी दुश्मन मार्क्सवाद और दलितों का भी दुश्मन मार्क्सवाद। कुछ तो गड़बड़ है। दलित भाइयों ब्राह्मण-क्षत्रीय कम्युनिस्ट समझे अथवा न समझे, आप सर्वहारा वर्ग हो आप को मार्क्सवाद समझना ही होगा। क्रान्ति का विकल्प है-मार्क्सवाद। बिना मार्क्स को पढ़े डा.आम्बेडकर का सपना पूरा होने वाला नहीं है।
ठीक ठाक प्रगतिशील ब्राह्मण से दलितों को दोस्ती करने के लिए क्या इतना कम है कि बाबा साहब के अशुद्ध नाम को काटकर एक ब्राह्मण अध्यापक ने अपना नाम आम्बेडकर लिख दिया, जो आज तक अद्वितीय हो गया है।
केलुशकर साहब ने बाबा साहब को बुद्ध चरित्र उपहार स्वरूप दिया तथा संयाजी गायकवाड़ से मिलाकर 20/-वजीफ़ा दिलवाया। फिर उन्हीं से कहकर विदेश पढ़ने के लिए भेजवाया। केलुशकर साहब महार व चमार नहीं थे।
पूना पैक्ट में कुछ नहीं मिल रहा था और बाबा साहब समझौता करने के लिए तैयार थे। किन्तु गांधी ने बाबा साहब से कहा, नहीं बाबा साहब, आप ने मेरी जान बचाई है, जिस वर्ग की हिफ़ाजत आप चाहते हैं, उसकी हिफ़ाजत मैं भी चाहता हूँ इसलिए उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था मेरी जिम्मेदारी है। गांधी जी की बात से बाबा साहब सहमत हुए और आरक्षण की व्यवस्था दलितों के लिए कानून बन गया। आरक्षण आम्बेडकर साहब नहीं चाहते थे वे पृथक निर्वाचन का अधिकार चाहते थे।
प्रगतिशील ब्राह्मण व क्षत्रीय कहीं भी भेदभाव नहीं करते हैं न करेंगे। ऐसा सिर्फ चालाक और परम्परावादी लोग करते हैं। हम स्वयं भी तो दलितों के मध्य खूब छुआ-छूत करते हैं। कोई भी पासी, धोबी और कोरी-चमार एक दूसरे के बेटे-बेटी से शादी नहीं कर सकते हैं। अपनी बीवियों को किसी भंगी व मुस्लमान के घर का खाना खिलवाकर देखिए, क्या वे खा लेती हैं। आप को अपने घर में पलते घोर छुआछूत का पता चल जाएगा। यह भी तो ब्राह्मणवाद है किन्तु कोई भी ब्राह्मण आप की बीवियों को समझाने तो नहीं आता कि उसके घर बच्चे की शादी न करना, उसके घर पानी-खाना न करना। दूसरे आप प्रतिदिन अपनी बीवी को ब्राह्मणवाद के जहर को बताते भी रहते हैं और बीवी स्वयं भी किसी पंडिताइन, ठकुराइन, ललाइन, गुप्ताइन, तेलिन, अहिरिन से ऊँच-नीच के विचार को झेलती रहती है। कहां चला जाता है आप का समझाया आंबेडकरवाद जब इतना झेलने के बाद भी हम जातिवाद भी करते हैं, ब्राह्मणवाद भी करते हैं और आंबेडकरवाद कहीं से हमारे चरित्र में छू तक नहीं जाता है।
मनुस्मृति को एक ब्राह्मण ने बाबा साहब को समझाकर जलवाया था।
संविधान सभा में बाबा साहब जा ही नहीं पाते, यदि नेहरू और गांधी डा.आम्बेडकर साहब को बुलाकर कांग्रेस पार्टी से टिकट देकर पूना संसदीय सीट से एमआर जयकर को स्तीफा दिलवाकर निर्विरोध जितवाकर संविधान सभा में न लाए होते।
एक ब्राह्मण स्त्री डा.सविता अम्बेडकर ने बाबा साहब से शादी की थी। नाथ संप्रदाय के मुख्य व्यक्ति ब्राह्मण थे जो दलित स्त्री से शादी करके ब्राह्मण जाति और गांव-इलाका छोड़ दिया था और शूद्रों की बस्ती में ताउम्र रहे तथा सिद्ध और नाथों के अग्रणी नेता बने। राहुल सांकृत्यायन ब्राह्मण थे किन्तु दलितों-सर्वहाराओं का साथ दिया। उनसे अच्छा कोई दलित बौद्धिष्ट और कम्युनिस्ट हुआ क्या? हां, ब्राह्मण के पक्ष में यह तर्क इसलिए दे रहा हूँ कि सभी ब्राह्मण न बुरे हैं और न सभी दलित अच्छे ही हैं। इसलिए, एक वर्ग है सर्वहारा, जो सभी जातियों में है। उसे जाति और धर्म को छोड़ने के लिए न कहकर जाति और धर्म के झांसे से बचने के लिए कन्विंस करने के लिए एक क्राँतिकारी वर्ग को अत्यंत कठिन परिश्रम करना ही होगा, यहाँ तक कि अपना घर फूंककर दुनिया रोशन करना पड़ेगा। आगे आओ। निश्चित एक संगठन ऐसा बनेगा और क्रांति होगी।
जाति का मोह ब्राह्मणवाद है। दलित घोर ब्राह्मणवादी है। ब्राह्मणवाद के चंगुल से खुद निकलो और दूसरों को भी निकालो।
बहुत से दलित पंडित कहते हैं कि यदि डा.आम्बेडकर साहब किसी ब्राह्मण के घर पैदा हुए होते तो उनकी पूजा होती। जवाहर, इंदिरा,राजीव, नरसिम्हाराव और अटल में कितने ब्राह्मणों की पूजा हो रही है? एम्एन रॉय, नंबूदरीपाद, ज्योति बसु, ममता बनर्जी इत्यादि में किसकी पूजा होती है? ये सारे लोग पूँजीपतियों के बहुत काम के नहीं हैं इसलिए ये पूज्य नहीं हैं। डा.आम्बेडकर क्राँति के प्रतीक हैं। इनके विचारों से पूँजीपति के साथ शासक वर्ग को भी खतरा है इसलिए डर तो यही है कि कही डा.आम्बेडकर की पूजा न शुरू करावा दिया जाय। आरएसएस और बीजेपी मिलकर डा.आम्बेडकर को 29 वां विष्णु का अवतार घोषित करने के फ़िराक में हैं। और आप कह रहे हैं उनकी पूजा करने के लिए। पूजा नहीं, उनके विचारों को विमर्श करने की जरूरत है।
प्रगतिशील ब्राह्मण व क्षत्रीय कहीं भी भेदभाव नहीं करते हैं न करेंगे। ऐसा सिर्फ चालाक और परम्परावादी लोग करते हैं।
हम स्वयं भी तो दलितों के मध्य खूब छुआ-छूत करते हैं। कोई भी पासी, धोबी और कोरी-चमार एक दूसरे के बेटे-बेटी से शादी नहीं कर सकते हैं। अपनी बीवियों को किसी भंगी व मुस्लमान के घर का खाना खिलवाकर देखिए, क्या वे खा लेती हैं। आप को अपने घर में पलते घोर छुआछूत का पता चल जाएगा। यह भी तो ब्राह्मणवाद है किन्तु कोई भी ब्राह्मण आप की बीवियों को समझाने तो नहीं आता कि उसके घर बच्चे की शादी न करना, उसके घर पानी-खाना न करना। दूसरे आप प्रतिदिन अपनी बीवी को ब्राह्मणवाद के जहर को बताते भी रहते हैं और बीवी स्वयं भी किसी पंडिताइन, ठकुराइन, ललाइन, गुप्ताइन, तेलिन, अहिरिन से ऊँच-नीच के विचार को झेलती रहती है। कहां चला जाता है आप का समझाया आंबेडकरवाद जब इतना झेलने के बाद भी हम जातिवाद भी करते हैं, ब्राह्मणवाद भी करते हैं और आंबेडकरवाद कहीं से हमारे चरित्र में छू तक नहीं जाता है।
यह कैसा सवाल कर रहे हैं। यह तो अनेक सवर्ण जो बीजेपी व आरएसएस को नहीं मानते हैं वे भी कह रहे हैं कि इनके शासन काल में फासीवाद बढ़ता चला जा रहा है। इनके शासन-काल में 77.1 प्रतिशत सवर्णों के गरीबों को भी फायदा नहीं होगा। ये तो पूँजीपतियों के बड़े दलाल हैं और दलितों तथा अल्पसंख्यकों के घोर विरोधी भी।
बाबा साहब ने कहा था कि Private ownreship of property brings power to one class and sarrow to another. It is good for society to remove it by removing it’s cause(private ownership of property). क्या हम बाबा साहब के इस चिंतन पर ध्यान दे रहे हैं? बाबा साहब ने कहा था कि जातिप्रथा उन्मूलन हमारा सपना है। क्या इस सपने को दलित जातिवाद करके तोड़ पाएगा? बाबा साहब ने कहा कि भूमि, कृषि, बीज, खाद, पानी, बीमा,बैंक का राष्ट्रीयकरण करना होगा। नहीं 5ओ लोग इस संविधान को भी छिन्न भिन्न कर देंगे। इस पर आप के विचार क्या हैं?
निश्चित रूप से जाति-व्यवस्था ने वर्ग की चेतना की गुंजाइश ख़त्म कर दिया है और ब्राह्मणवाद चाहता भी है कि दलित दलित बना रहे, बल्कि उपजातियों में भी विभाजित रहे। यही उसकी खुराक है। जातिवाद ही ब्राह्मणवाद व वर्ण-व्यवस्था का आधार है। दलित ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया में दलित बने रहना चाहता है। अरे मित्र, दलित इस वर्ण-व्यवस्था की अंतिम कड़ी है। निम्न जाति है। अछूत है। इसकी जरूरत सबसे अधिक है कि जातिप्रथा ख़त्म हो। फिर पहल कौन करेगा? क्या वर्ग की चेतना को पैदा करने के लिए दलित क़ुरबानी नहीं देना चाहता है। यदि क़ुरबानी नहीं देंगे तो वर्ण-व्यवस्था को ज्यों का त्यों बनाये रखने में दलित ब्राह्मणों का साथ दे रहे हैं या उनके मनचाहे विचारों को अंजाम देकर चौथे व पांचवे वर्ण को अक्षुण बनाये रख रहे हैं।
जब आप जातिवादी धरातल पर मोह करेंगे, तो बाबा साहब देवता लगेंगे लेकिन जब बाबा साहब के प्रिय अनुयायी की तरह सोचेंगे तो पिता जी की मढ़ई गिराकर उस पर ईंट का घर बनाएँगे, न कि पिता जी की झोपड़ी है कहकर प्रसंसा करेंगे। बाबा साहब महान थे तो क्या परिस्थितियों का मूल्यांकन करना बंद कर देंगे?क्या उनके सपनों को पूरा करने के लिए कोई बेहतर रास्ता नहीं खोजेंगे। रही बात संविधान लिखने की तो आरक्षण छोड़ दीजिए तो आप के हित के लिए अथवा बाबा साहब के सपनों की कोई भी चीजें विहित की गई हैं? फिर क्या कारण रहा है कि संविधान सभा के अध्यक्ष का नाम संविधान निर्माता के रूप में नहीं लिया जाता है। वोबरआल, डा.राजेन्द्र प्रसाद तो पदेन ड्राफ्टिंग कमिटी के अध्यक्ष के भी अध्यक्ष थे, फिर बाबा साहब का ही नाम निर्माता के रूप में क्यों लिया गया। सिर्फ इसलिए कि दलित जातियां बाबा साहब में अपनी अक्षुण आस्था बनाए रखे और क्रांतिकारी न बनें। यह एक लंबी बहस है। यदि बाबा साहब के सपनों को पूरा करना है तो राजकीय समाजवाद का अध्ययन जरूरी है जो बाबा साहब ने लिखा है-खण्ड दो, पेज 167 से 240 तक। और मैंने कई बार कई किताबों का उल्लेख भी किया है वह सब भी आप लोगों द्वारा पढ़ा जाना चाहिए। मोह से ज्यादा विचारों का अध्ययन और अनुपालन जरूरी है। कोरी श्राद्ध अन्धविश्वास है।
ब्राह्मणवाद चाहता भी है कि दलित दलित बना रहे, बल्कि उपजातियों में भी विभाजित रहे। यही उसकी खुराक है। जातिवाद ही ब्राह्मणवाद व वर्ण-व्यवस्था का आधार है। दलित ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया में दलित बने रहना चाहता है। अरे मित्र, दलित इस वर्ण-व्यवस्था की अंतिम कड़ी है। निम्न जाति है। अछूत है। इसकी जरूरत सबसे अधिक है कि जातिप्रथा ख़त्म हो। फिर पहल कौन करेगा? क्या वर्ग की चेतना को पैदा करने के लिए दलित क़ुरबानी नहीं देना चाहता है। यदि क़ुरबानी नहीं देंगे तो वर्ण-व्यवस्था को ज्यों का त्यों बनाये रखने में दलित ब्राह्मणों का साथ दे रहे हैं या उनके मनचाहे विचारों को अंजाम देकर चौथे व पांचवे वर्ण को अक्षुण बनाये रख रहे हैं।
लोकतंत्र का अर्थ है समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व। क्या हमारा संविधान लोकतंत्र को सुनिश्चित करता है? समाजवाद का अर्थ है किसी भी वस्तु के उत्पादन का उद्देश्य जनता की आवश्यकता की पूर्ति करना, न कि उत्पादन का उद्देश्य मुनाफा कमाना होगा। क्या संविधान इसे सुनिश्चित करता है? धर्म-निरपेक्ष होने का अर्थ है कि किसी भी धर्म का आदमी दूसरे धर्म के आदमी पर किसी भी प्रकार का दवाव नहीं डालेगा। मनुष्य अपने धर्म को अपने घर और अपने दिल से बाहर किसी भी तरह का प्रयोग नहीं करेगा, न प्रचार ही करेगा। क्या संविधान में इसके पालन करवाने के कोई तरीके हैं? जातिप्रथा उन्मूलन के लिए संविधान क्यों चुप है?
बाबा साहब ने जातिप्रथा उन्मूलन करो, राजकीय समाजवाद लाओ। लोकतंत्र स्थापित करो। बौद्ध धर्म अपनाओ। हिन्दू धर्म को छोड़ दो। जाति छोड़ दो।
इनमें से क्या कुछ भी हम कर रहे हैं? कहते हैं ब्राहण जातिवाद करता है लेकिन सभी दलित जातियां बिना ब्राह्मण के कहे खुद ही जाति प्रमाण-पत्र बनवाकर कहती हैं, मैं चमार हूँ, भंगी हूँ। बौद्ध धर्म की चर्चा खूब करेंगे लेकिन बौद्ध धर्म अपनाने में फटती है। बहुत सारे सवाल हैं जो क्रान्ति में बाधक है। फ़िलहाल ऊपर कही बात पर अंसल करने से क्रांति हो सकती है।
कई साथी इस तरह प्रश्न करते हैं कि क्या जरूरी है कि कम्युनिस्ट शासन में पारदर्शिता होगी। पारदर्शिता होगी की बात क्यों करते हैं मित्र, जब आप को ही वह व्यवस्था चलानी है। हमेशा दूसरों को राजा के रूप में देखने की आदात क्यों बन गयी है। क्रान्ति आप करेंगे और शासन भी आप ही चलाएंगे। दुश्मन तो जेल की सलाखों में होगा। जो हमारे विरुद्ध लड़ेगा, लड़ाई में या तो मारा जाएगा या जेल में होगा।
दलित साथी मार्क्सवाद और कम्युनिज्म पर बहुत भड़कते हैं और प्रश्नाकुल रहते हैं कि ब्राह्मण हमें नेतृत्व नहीं सौंपेगा, अच्छे पदों पर जाने से रोकेगा, पारदर्शिता नहीं रखेगा। यह तब होगा जब आप ब्राह्मण कम्युनिस्ट के नेतृत्व में क्राँति करेंगे। हम ब्राह्मण कम्युनिस्टों को क्यों कम्युनिस्ट का दर्ज देते हैं और उनके कहे को क्यों मार्क्सवाद समझते हैं? हमें मार्क्सवाद का अध्ययन मार्क्स की पुस्तकों से सीखनी होगी । हमें कम्युनिस्ट पार्टी भी बनानी होगी। हमें खुद नेता बनाना होगा। हमें खुद अगुआ दस्टा के लायक होना होगा। हमें खुद भगत सिंह, लेनिन, माओ, उगो सैवेज, नेंशन मंडेला, डा.आम्बेडकर, सुखदेव, राज गुरु, राम प्रसाद बिस्मिल,अशफ़ाक उल्ला खान इत्यादि बनना होगा।
मैं आप को मार्क्सवादी बनाने के लिए नहीं, आलोचना के लायक होने के लिए मॉरिस कन्फोर्थ की पुस्तक “Dialectical and Historical materialism” एंगेल्स की पुस्तक “Origin of the family, private property and the satate”, “From utopian to scientific communism” और ” Anti Duhring”, राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक “what is Marxism”, भगत सिंह की पुस्तक “मैं नास्तिक क्यों हूँ”, क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसौदा” और बाबा साहब की पुस्तक “The annihilation of caste”, “Buddha or Karl Marx”, ” Satate and mionorities” का अध्ययन करें। हां, लेकिन की एक पुस्तक “What is to be done”जरूर पढ़ा जाना चाहिए।
किसी व्यवस्था को बदलने के लिए नेतृत्व की जरूरत होती है किन्तु उससे पहले क्रांतिकारी सिद्धान्त, क्रांतिकारी सिद्धांत पर आधारित क्रांतिकारी पार्टी, क्रान्तिकारी पार्टी के लिए क्रान्तिकारी चरित्र के लोगों की जरूरत है।
किसी भी समस्या को लेकर हमारे अंदर Uniformity of thinking, Singleness of propose and Oneness in approach चाहिए।
क्रान्ति कोई राजसी रास्ता नहीं है कि फेसबुक पर हम सिर्फ बात करते रहें। हम जैसे लोगों को कहीं न कहीं मिलकर मसौदे पर कार्य भी करना होगा। तभी हम अच्छे आंबेडकरवादी होंगे। ऐसा नहीं कि हमारे अंदर कुछ मुद्दों पर भिन्नता होने से हम मिलकर कार्य नहीं कर सकते। आलोचनाएँ, समीक्षा और विमर्श चलाते लक्ष्य पर कार्य करते हुए चलना चाहिए।
एक बात सवाल के रूप में और है कि हम अहिंसावादी होकर कब तक व्यवस्था की मार खाते रहेंगे? रोज न जाने कितने लोग मारे जाते हैं। कितने लोग व्यवस्था जनित गरीबी की वजह से रोग, कुपोषण, व्यभिचार, बलात्कार, जातिवाद, धर्मवाद, ब्राह्मणवाद, बेरोजगारी, भुखमरी,आतंकवाद, नक्सलवाद और माओवाद इत्यादि से मरते हैं। आजादी के बाद से इन 70 वर्षों में कितने लोग मार डाले गए हैं, है कोई हिसाब? हिंसा को रोकने के लिए हिंसा हिंसा नहीं कहलाती है। न मानते हों तो बाबा साहब की पुस्तक खण्ड-18 में मजदूरों पर दिया गया व्याख्यान पढ़ा जा सकता है। फिर, मार्क्सवाद हिंसा की इजाजत नहीं देता है। वह कहता है जब हम मजदूर, किसान, दलित, शोषित अपने हक़ की मांग करते है और आंदोलन करते हैं तो व्यवस्था सरकार का प्रयोग करते हुए सैनिकों का प्रयोग कर हमारा दमन करने लगते हैं तो क्या मजदूरों को हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना चाहिए?
नक्सलवाद मार्क्सवाद को लेकर शुरू हुआ था परन्तु उसकी शुरुआत ही मार्क्सवादी सिद्धांतों से हटकर हुआ। वह तो न मार्क्सवादी हैं और न उनके रास्ते से कम्युनिज्म आ ही सकता है। फिर भी, वे कहते हैं कि वे मार्क्सवादी हैं और उन्हीं के रास्ते से कम्युनिज्म आएगा। वे कहते हैं प्रारंभ से ही कम्युनिस्टों को हथियार उठाकर लड़ना पड़ेगा, जबकि वे यह गलती कर रहे हैं कि वैचारिक क्रांति भी कोई चीज होती है। पहले मास को तैयार करना होता है। जब कर्तागत स्थितियां तैयार हो जाएंगी तो क्रांतिकारी पार्टी का अगुआ दस्ता के नेतृत्व में जनता क्राँति करेगी।
जाति का मूलाधार उत्पादन संबंधों में ही ढूँढना पड़ेगा। जाति तो उत्पादन का ऊपरी मॉडल है। उत्पादन के साधनों पर कब्ज़ा किए बिना सुपर स्ट्रक्चर टूटने वाला नहीं है। इसलिए सिर्फ The annihilation of caste पढ़ने से कार्य चलने वाला नहीं है। डा.आम्बेडकर ने उस किताब में फाइनली लिखा है कि जातिप्रथा एक अभेद्य दीवार है। इसे तोडा नहीं जा सकता है। इसे टूटने में सदियां लग जाएंगी। या तो इसमें डाइनामाइट लगा दो। तो वह ताकत है नहीं। यदि कभी ऐसा दलित करता है तो खूनी क्रांति हो जाएगी, जिससे डा.आम्बेडकर साहब बहुत ही डरते हैं। वे खूनी क्रांति और तानाशाही हरगिज नहीं चाहते हैं। फिर, डाइनामाइट कैसे लगाएंगे? एक ही रास्ता है राष्ट्रीय समाजवाद, किन्तु उसे बहुमत दल कभी भी बदल सकता है। फिर क्या उपाय है? क्रांति। समाजवादी क्रांति। कम्युनिज्म। जिससे दलित उतना ही घृणा करता है जितना आरएसएस व परम्परावादी ब्राह्मण। हमें इसके पीछे के कारणों का भी अध्ययन करना होगा कि दो धुरी के लोग, आपस में एक दूसरे के धुर विरोधी एक क्रांतिकारी सिद्धांत का विबोध ठीक एक तरह से क्यों करते हैं। यह कैसे संभव है कि आरएसएस का भी दुश्मन मार्क्सवाद और दलितों का भी दुश्मन मार्क्सवाद। कुछ तो गड़बड़ है। दलित भाइयों ब्राह्मण-क्षत्रीय कम्युनिस्ट समझे अथवा न समझे, आप सर्वहारा वर्ग हो आप को मार्क्सवाद समझना ही होगा। क्रान्ति का विकल्प है-मार्क्सवाद। बिना मार्क्स को पढ़े डा.आम्बेडकर का सपना पूरा होने वाला नहीं है।
आर डी आनंद