कफन में वर्णित अमानवीकरण का कोई वस्तुगत आधार नहीं, बहस में नया मोड़

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नोट- इस लेख के विचार प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘कफ़न’ पर केंद्रित हैं। इसे प्रेमचंद के सम्पूर्ण लेखन पर आरोपित न किया जाए।
प्रेमचंद हिन्दी के सर्वाधिक पढ़े गए, सराहे गए, सम्मानित कथाकार हैं। इसे प्रेमचंद ने अपने लेखन से अर्जित किया है। किन्तु, सामाजिक प्राणी होने के नाते समाज पारिस्थितिकी और मनुष्य में प्रभाव-द्वंद चलता रहता है। समाज का प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है तो कई बार मनुष्य का प्रभाव समाज और पड़ता है। खासकर, एक लेखक का प्रभाव भाषा-समाज पर अपेकक्षाकृत अधिक पड़ता है। एक लेखक जब कुछ रचता है है तो न सिर्फ वस्तु-सत्य को अग्रसारित करता है बल्कि वह अपने विवेक और मूल्यों को भी रचना में शामिल करता है। इसी शर्त पर कोई रचना होती है। प्रेमचंद की कफ़न कहानी में प्रेमचंद का अनुभव-ज्ञान, लेखकीय-मूल्य और प्राथमिकताएँ शामिल हैं।
कोई कहानी यदि आरम्भ में ही पात्रों की सामाजिक अवस्थिति को स्पष्ट करती है तो इसका अर्थ होता है कि पात्रों के चरित्र और उसकी निर्मित में उसकी सामाजिकी का महत्वपूर्ण योगदान है और यह विन्यस्त अर्थ निकलता है कि उस जाति के पात्र अमूमन ऐसे होते हैं। इसे समझने की आसानी के लिए ऐसे देखिए- ‘ब्राह्मणों का कुनबा था और गाँव भर में बदनाम। त्रिभुवन पांडे एक कथा कराता था तो पाँच कथा का रुपया ऐंठता था।’ इस वाक्य से जो अर्थ निकलकर आता है वह यह कि ब्राह्मणों के कुनबे की बदनामी में त्रिभुवन पांडे की धूर्तता का रेखांकित करने योग्य योगदान है। कफ़न कहानी का यह शुरुआती वाक्य भी इस तरह का अर्थ देता है कि गोया चमारों के कुनबे की बदनामी घीसू और माधव की अकर्मण्यता, नकारेपन और आलसीपन की वजह से थी। जैसे इस जाति के लोग इस तरह के होते ही हों। यह ठीक है कि चमारों की बस्ती बदनाम थी। लेकिन उसकी बदनामी का रहस्य उसके अछूत होने में खुलता है न कि अकर्मण्य, आलसी और नकारा होने में। जब लेखक पात्रों की जातीय पहचान को स्पष्ट करने के तुरंत पश्चात उनके चारित्रिक वैशिष्ट्य की व्याख्या करता है तो पात्रों के वैसा होने में उनकी जाति की पहचान भी होती है। वह छवि आलसी, कामचोर, चिलमबाज और चोर के रूप में बनती है।
एक जाति जिसने भारतीय सामाजिक संरचना में सर्वाधिक जातीय त्रासदियाँ झेलीं और जो हमेशा से सबसे सस्ते दर का मजदूर रहा, इतना सस्ता कि शक्तिशाली समूहों ने सदियों तक जूठन के एवज में बेगार कराया। जिसकी सौ साल तो छोड़िए, अभी बीसवीं सदी के आखिरी दशकों में अपनी मजदूरी तय करने और माँगने की हैसियत नहीं थी। जिस जाति ने मजदूरी में खून और पसीने को एक कर दिया और उसके बावजूद सामंतों के दरवाजे पर बँधुआ रहा। उस जाति से पात्र चरित्र के लिए प्रेमचंद को यदि घीसू-माधव जैसा आसमानी चमार ही मिलता है तो यह प्रेमचंद का चुनाव है, यह प्रेमचंद की पक्षधरता है।
यह ठीक है कि बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक गाँव की उत्पादन प्रणाली संपन्न थी और “गाँव में काम की कमी न थी। किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे” लेकिन अछूतों के लिए निर्धारित काम होते थे। ऐसे काम जिसमें सवर्ण शुचिता बनी रहती थी, वही काम चमारों के लिए होते थे। चमारों के मुख्य काम मरे हुए मवेशियों को फेंकने और खाल उतारने तथा गोदाम में अनाज आने के पहले तक का किसनई मजदूरी तक सीमित था। ऐसे में गाँव में चमारों के लिए बहुत सीमित काम होता था। जूठन के बिना पर चमारों को बँधुआ बना लेने के पीछे यह बड़ी वजह थी। क्योंकि भूख तो सबको लगती है। अन्न तो सबको सताता है। जिंदा तो रहना था।
“कोई कार्य करने को बुलाता, तो निर्ब्याज भाव से दुगुनी मजदूरी माँगते।” मुझे नहीं पता कि प्रेमचंद कितने चमारों को जानते थे या कितनी चमार बस्तियों को देखा था। मैं बीसवीं और इक्कीसवीं सदी की संधि की चमार बस्ती में पला-बढ़ा हूँ, उन्हें जानता हूँ। अपनी वाजिब मजदूरी माँगने के अपराध में मजदूरों को गोलियाँ मार दी गयी हैं। हत्या हो गयी है, हत्या समझते हैं न आप? ऐसे में आज से लगभग सौ साल पहले एक चमार मजदूर अगर दुगुनी मजदूरी माँग ले तो उसे उसके परिवार समेत फूँक दिया जाता, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है। यह ‘दुगुनी मजदूरी’ अत्यंत अस्वाभाविक और नाटकीय है। जो कहानी में छवि-निर्माण की मंशा से रची गयी मालूम जान पड़ती है।
कहानी में अस्वाभाविकता और अतार्किकता का बड़ा रहस्य बुधिया की प्रसव-पीड़ा में खुलता है। पिछली सदी के आखिरी दशकों तक प्रसव-कार्य दाइयों के हाथों सम्पन्न होता रहा है। चिकित्सा सुविधाओं के विकसित होने बाद जरूर यह ख़त्म हुआ। प्रसव-कार्य को सम्पन्न कराना एक गंदा काम माना जाता रहा था। ‘नाल काटने’ का काम दाइयाँ कराया करती थीं। यह दाइयां मुख्यतः चमार जाति की होती थीं। क्योंकि यह एक ‘गंदा काम’ था कर गंदे काम अछूतों के लिए आरक्षित थे। चमार बस्तियों में हर दूसरे-तीसरे घर की बुजुर्ग स्त्री प्रसव कराने में पेशेवर थी। ऐसे में या तो घीसू-माधव के कुनबे में अधिकतम दो घर होंगे( तब वह कुनबा नहीं हो सकता) या फिर घीसू माधव किसी टापू पर रहते होंगे। क्योंकि प्रसव में पड़ी हुई स्त्री के लिए बस्ती की औरतें पूरी सामर्थ्य के साथ उपस्थित होती थीं। घीसू-माधव का अमानवीय चरित्र गढ़ने की जल्दबाजी में लेखक भूल जाता है कि बुधिया के अपने सम्बन्ध भी हो सकते हैं। यह सामंतों-सवर्णों के घर की बहू नहीं है जो विवाह के सालों बाद भी आँगन के बाहर कदम नहीं रखती बल्कि यह दलित समुदाय की स्त्री है जो ससुराल आने के दूसरे दिन से पूरे नौ महीने का गर्भ लिए हुए तक खेतों-खलिहानों के काम में लगी होती थी। कई बार तो काम करते-करते प्रसव हो जाता रहा है। ऐसी स्थिति में पूरा कुनबा जानता रहा होगा कि बुधिया को कभी भी प्रसव हो सकता। फिर भी कोई स्त्री नहीं? कोई नामलेवा नहीं? चमारों का कुनबा है या अंडमान का टापू?
भारतीय समाज-संरचना हमेशा से श्रेणीबद्ध रही है। इस श्रेणी को ब्राह्मण सत्ता ने निर्मित किया। जाहिर सी बात है नियामक अपने लिए अवगुणों को आरक्षित नहीं करता। अवगुण श्रेणी में हैसियत के अनुसार आवंटित होता चला जाता है। श्रेणी में सबसे निचले पायदान पर स्थित समूह में अवगुण के रूप में अमानवीयता तक आरोपित की जाती रही है। यह नियामक समूह द्वारा होता है। किन्तु यह सत्य नहीं होता। वास्तविकता कुछ और होती है। दिखाई देता हुआ सत्य आरोपित होता है। श्रमिक जातियों की सम्वेदनाओं को दोयम दर्जे का बताने के लिए हिन्दी भाषा-समाज-संस्कृति ने हजारों उपकरण अपनाए हैं।मालूम जान पड़ता है कि यह कहानी उन्हीं उपकरणों की संख्या बढ़ाने के लिए आतुर है। “झोपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए हैं और अंदर बेटे की जवान बहू बुधिया प्रसव वेदना से पछाड़ खा रही थी।” इस वाक्य से दो अर्थ स्पष्ट ध्वनित होते हैं। एक तो यह कि बुधिया बहुत कष्ट में है। दूसरा अर्थ बाप और बेटे के बेहद क्रूर और सम्वेदनशून्य होने में ध्वनित होता है। यह संवेदनशून्यता कहानी में आगे चलकर विकराल अमानवीयता में बदल जाती है। लेकिन उसके पहले इस संवेदनशून्यता की ‘नीचता’ को लेखक स्पष्ट कर देना चाहता है- “माधव को भय था, कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलुओं का बड़ा भाग साफ कर देगा।” यह ठीक बात है कि तत्कालीन दलित जातियों में जानलेवा भूख थी। लेकिन, इस भूख ने कभी दूसरे मनुष्य की जान ले ली हो और वह भी कुछ आलू के एवज में यह तो सिर्फ कहानी की घटना हो सकती है, यथार्थ से इसका कोई सम्बन्ध नहीं। क्योंकि यह घटना अमानवीयता ही नहीं बल्की आपराधिक भी है। कहानी में भूख की भीषणता दिखाने के लिए जाति विशेष के चरित्रों को हत्यारी वृत्ति का बताने की जरूरत क्यों पड़ी, यह तो सिर्फ लेखक ही बता सकता है। जो चमारों और श्रमिकों की बस्तियों को जानते हैं वे जानते हैं कि एक मवेशी के भी मर जाने से घर में मातम छा जाता है और चूल्हा नहीं जलता। तो फिर घीसू-माधव की यह क्रूरता, यह अमानवीयता, यह संवेदनशून्यता आखिर कहाँ से आयी? कहीं यह वही नियामक द्वारा आरोपित अमानवीयता तो नहीं जिसका आवंटन करने के लिए उसने समूची संस्कृति, समूचे संसाधनों को काम पर लगा रखा है!
कहानी में दो शासक चरित्र उपस्थित होते हैं। एक यथार्थ में दूसरा स्मृति में। पहले स्मृति के ठाकुर की बात। घीसू की स्मृति में ठाकुर उतरते हैं( एक अनुस्वार में सिमट जाता है हिन्दी का समाजशास्त्र)- “घीसू को ठाकुर की वह बारात याद आयी, जिसमें बीस साल पहले वह गया था।” अव्वल तो यह कि जिन चमारों के ठाकुरों के दरवाजे तक जाते हुए प्राण सूखते हों, वे भला ठाकुरों के बारात में कब से जाने लगे। बारात में चुने और गिने हुए लोग जाते थे। एकबारगी यह मान भी लें कि मेहनत-मजूरी के लिए कुछेक चमार कुछेक ठाकुरों के बारात में गए भी हों तो यह मुमकिन नहीं कि “कोई रोक-टोक नहीं थी, जो चीज चाहो, माँगो, जितना चाहो, खाओ।” यह सम्भव नहीं था। आज इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में जब चमारों की ‘उनके’ बर्तनों में पानी पी लेने की सजा हत्या करके दी जाती है। मटके का पानी पी लेने के अपराध में छोटे बच्चे तक की जान ले ली जा रही है। ऐसे में सौ-डेढ़ सौ साल पहले के परिवेश में किसी चमार का किसी ठाकुर की बारात में जाना और ऐसी सुखद, समरस स्मृति के साथ लौट आना एक क्रांति की तरह देखा जाना चाहिए। किन्तु समस्या यह है कि यह क्रांतिकारी घटना सिर्फ कहानी में ही दिखाई देती है। सच का चेहरा बहुत विकृत है। लेकिन कहानी में “ऐसा दिल दरियाव था ठाकुर”
ताकतवर जाति से दूसरा चरित्र जमींदार का आता है। जमींदार मुख्यतः दो जातियाँ होती थीं, एक क्षत्रिय और दूसरा भूमिहार। कहीं-कहीं ब्राह्मण भी जमींदार होते थे। जमींदारी आवंटन में जाति मुख्य भूमिका निभाती थी। जातीय श्रेष्ठता और ताकत ही पूँजी को संचालित करने का टिकट देती थी। जमींदारो का व्यवहार बहुत क्रूर रहा है। कम लागत में अधिक मुनाफे की हवस श्रम के दोहन में घटित होती थी। इसके लिए निचली जातियों के साथ हिंसा बहुत सामान्य बात थी। चमारों के साथ हिंसा करना सबसे आसान था। लेकिन कफ़न कहानी के “जमींदार साहब दयालु थे।” यह भाव-आरोपण है। जैसे घीसू माधव पर क्रूरता, संवेदनशून्यता, अमानवीयता भाव आरोपण हैं। जमींदार का दयालु होना अस्वाभाविक है। जमींदार दयालु नहीं होते या इसे ऐसे कहें कि दयालु जमींदार नहीं होते। हो सकता है कि आप कहें कि कफ़न कहानी का जमींदार दयालु नहीं है क्योंकि, वह “दोनों की सूरत से नफरत करते थे। कई बार उन्हें अपने हाथों से पीट चुके थे।” पर आप चाहकर भी इसे जमींदार की क्रूरता नहीं कह सकते हैं। क्योंकि, लेखक ने तुरन्त आगे ही घीसू माधव को जमींदार के हाथों पीटे जाने के लिए वाजिब कारण दिया है- “चोरी करने के लिए, वादे पर काम पर न आने के लिए।” यह वाक्य बताता है कि जमींदार के पास उन्हें पीटने के लिए पर्याप्त तर्क थे। वे अनायास नहीं पीटे गए, उन्होंने पीटे जाने लायक व्यवहार किया था। यह लेखक की कहानी में चारित्रिक पक्षधरता की तरफ इशारा करता है। जमींदार की उदात्तता यहीं नहीं रुकती। वह काले कम्बल पर रंग चढ़ाते हुए आगे बढ़ती है- “मगर घीसू एयर माधव पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढ़ाना था… दो रुपये निकालकर फेंक दिए।” जमींदार की गालियाँ तक इतनी मासूम हैं कि सुनकर मीठी सी हँसी आती है। प्रेमचंद की इस कहानी के बाहर निकलकर यही जमींदार बेबात चमारों को माँ, बहन, बेटियों को लगाकर ऐसी गालियाँ देते हैं कि आत्मा छिलती जाए और जिन चमारों की आत्मा दफना दी गयी हो वे इसे अपनी नियति मानकर आगे बढ़ जाएँ।
कहानी की शुरुआत में आलू वाले अलाव से क्रूरता, संवेदनशून्यता और अमानवीयता की एक चिंगारी उठती है और कहानी के आखिरी तक आते आते दमघोंटू आग में बदल जाती है। जमींदार और बनियों, महाजनों से ‘कृपा के रुपये’ लेकर लौटते हुए घीसू-माधव छककर शराब पीते हैं- “आधी बोतल से ज्यादा उड़ गयी। घीसू ने दो सेर पूरियाँ मँगाई। चटनी, अचार, कलेजियाँ।” इस दौरान दोनों दार्शनिक मुद्रा में कफ़न की उपयोगिता पर चर्चा करते हैं, बुधिया को आर्शीवाद देते हैं। मगर रुकिए, बुधिया को नहीं, पंद्रह-बीस घंटे पहले मरी हुई बुधिया को आशीर्वाद देते हैं, जिसकी लाश से अब थोड़ी-थोड़ी दुर्गंध उठने लगेगी। प्रेमचंद ने जिस घीसू- माधव को गढ़ा है, वे प्रेमचंद के अपने भीतर के चमारों के कुनबे से आए हुए होंगे। बहू-बीबी की लाश घर में छोड़कर संवेदनशून्यताजनित क्रूरता से कफ़न के पैसों से शराब पीते और दार्शनिक चर्चा करते यह हमारी चमार बस्तियों के घीसू-माधव नहीं हैं।
कहानी में दो वर्ग हैं, दो जातियाँ हैं। दोनों वर्गों और दोनों जातियों को लेखक ने अस्वाभाविक और कहीं-कहीं अतार्किक ढंग से बरता है। चमार पात्रों में अमानवीयता, संवेदनशून्यता, अकर्मण्यता और ठाकुर तथा जमींदार पात्रों में उदात्तता, दयालुता और परोपकारिता का आरोपण कहानी को अस्वाभाविक बनाती है और इस कहानी में लेखकीय मूल्यों की पक्षधरता और प्राथमिकता का पता देती है।
कोई भी लेखक अपने समय और समाज से सम्वाद करते हुए ही रचता है। हर समय और समाज की अपनी सीमाएँ होती हैं। प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ प्रेमचंद की सीमा है। अपनी भाषा के लेखक की सीमाएँ गिनाने से लेखक का कद छोटा नहीं होता। किन्तु हिन्दी अकेडमिया का चरित्र इससे भिन्न है। कफ़न कहानी के ‘प्रमोशन’ में हिन्दी बौद्धिकों की खलमंशा छिपी हुई है। हिन्दी साहित्य के ऊँची जातियों के अनेक बौद्धिक चमारों को घीसू-माधव के चरित्र में देखने की ज़िद पर अड़े हुए हैं। और सामन्तों के क्रूर व्यवहार को भुला देने की तमन्ना पाले हुए हैं। अन्यथा, प्रेमचंद की ही ‘सद्गति’ कहानी जैसी रचनाओं को प्रमोट करके तथा ‘कफ़न’ कहानी की समुचित आलोचना करके यथार्थ के अधिक करीब जाया जा सकता था। मगर ऐसा लगता है कि प्रेमचंद को एक मूर्ति में ढालकर, उन्हें आस्था का विषय बनाकर, घीसू-माधव की संततियों को उन्हें छूने से वंचित किया जाता रहेगा।
डॉ. विहाग वैभव

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