ये दावे कहीं हवा-हवाई लगते हैं तो कहीं सच्चाई के करीब

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नेताजी सुभाष चंद्र बोस का निधन एक विमान हादसे में 18 अगस्त 1945 को हो गया. लेकिन जब ये खबर जापान से जारी हुई तो देश में किसी ने इस पर विश्वास नहीं किया. ना तो तब भारत पर राज कर रहे ब्रितानी हुक्मरानों ने और ना ही देश के नेता और जनता ने. उसके बाद 50 और 60 के दशकों में जगह जगह सुभाष बोस को देखने के तमाम दावे हुए. ये दावे कहीं हवा-हवाई लगते हैं तो कहीं सच्चाई के करीब. सीनियर पत्रकार और लेखक संजय श्रीवास्तव ने “सुभाष बोस की अज्ञात यात्रा” पुस्तक (ये अमेजन पर उपलब्ध है) लिखी, जिसके एक अध्याय में इन दावों का भी जिक्र है, जो यहां प्रस्तुत है…

1970 में इंदिरा गांधी सरकार ने नेताजी के निधन के रहस्य की जांच के लिए दूसरे आय़ोग का गठन किया. इस एक सदस्यीय आयोग का जिम्मा पंजाब हाईकोर्ट के रिटायर्ड मुख्य न्यायाधीश जीडी खोसला को सौंपा गया. आयोग ने जब अपनी कार्यवाही शुरू की तो उसके सामने कई ऐसे गवाह पेश हुए, जिन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को अपनी आंखों से देखने के विचित्र दावे किए. इन गवाहों में कुछ मंत्री थे, कुछ नेता तो कुछ आम नागरिक. कुछ ने नेताजी को विदेश में देखने का दावा किया तो कुछ ने उन्हें देश के अलग अलग शहरों में देखने की बात कही. शॉलमारी आश्रम, गुमनामी बाबा और मध्य प्रदेश में नेताजी के दिखने संबंधी दावों का जो जिक्र जस्टिस मनोज मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट में आया है, वो हम पहले ही पढ़ चुके हैं. लेकिन एक तस्वीर ने कई सालों तक देशभर में सनसनी मचाई थी, लोग मानने लगे थे कि वो सुभाष ही थे, जो निश्चित रूप से जीवित हैं.

ये बात 24 मई 1964 की है. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद उनका पार्थिव शरीर नई दिल्ली के तीन मूर्ति भवन में जनता के दर्शनों के लिए रखा था. देश-विदेश के लोग बड़ी संख्या में कतार लगाकर उनके अंतिम दर्शन कर रहा था. हर कोई गमगीन था और उन्हें श्रृदांजलि दे रहा था. इसी दौरान एक संन्यासी भी उन्हें श्रृद्धांजलि देने आया. उस संन्यासी को लेकर दावा किया जाने लगा कि वो कोई और नहीं बल्कि नेताजी ही थे.
ये बात दशकों तक अखबारों, पत्रिकाओं और किताबों में छाई रही. इस तस्वीर को प्रकाशित करके ये दावा किया जाता रहा कि वो नेताजी ही थे, जो नेहरू को श्रद्धांजलि देने आए थे और चुपचाप वहां से फिर गायब हो गए. सोशल मीडिया के प्रचार-प्रसार के बाद वहां भी ये तस्वीर वायरल होने लगी. इस घटना पर कुछ लोग हैरान थे तो कुछ ने वाकई मान लिया कि हो ना हो वो नेताजी ही थे. इस फोटोग्राफ उस समय सियासी भूचाल की स्थिति भी पैदा कर दी थी.
दरअसल सुभाष की दिखने वाले वो भिक्षु भारत में रह रहे कंबोडियाई बौद्ध भिक्षु भंते समदश वीरा धर्मवारा बेलोंग महाथेरा थे. वो फिर खोसला आयोग के विशेष अनुरोध पर उनके सामने भी आए. उन्होंने बताया, उस दिन वो नेताजी के पार्थिव शरीर को श्रृद्धा सुमन पेश करके कुछ देर वहीं खड़े रहे. इतनी ही देर में उनका चेहरा शायद भारत सरकार के फिल्म प्रभाग के लोगों द्वारा उस अवसर की बनाई जा रही डॉक्यूमेंट्री फिल्म के लिए भी शूट कर लिया गया.  भंते की इस तस्वीर ने भारतीय जनमानस में बड़ी सनसनी फैलाई.
जब भिक्षु धर्मवारा की गवाही हुई तो उनके साथ जाने-माने स्कॉलर डॉ. लोकेश चंद्रा भी वहां मौजूद थे. लोकेश बाद में राज्यसभा सदस्य भी हुए. भिक्षु की गवाही से डॉ. सत्यनारायण सिन्हा, एसएम गोस्वामी जैसे लोगों की ये बात गलत साबित हुई, जो दावे के साथ ये कह रहे थे कि वो सुभाष ही थे.
हालांकि तीन मूर्ति भवन में जिसने भी गोल चश्मा लगाए भिक्षु की तस्वीर नेहरू के पार्थिव शरीर के पास देखी, उन्हें यही लगा कि कहीं ये बोस तो नहीं. अब भी ज्यादातर लोग इस तस्वीर को लेकर यही तर्क करते हैं कि ये तस्वीर एकदम असली है और इससे कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है तो ये सुभाष ही हैं. लेकिन हकीकत यही है कि कंबोडियाई भिक्षु धर्मवारा हैं. अगर डॉ. लोकेश चंद्रा उन भिक्षु को आयोग के सामने नहीं लाते तो यही माना जाता रहता कि बोस कितने रहस्यमय तरीके से वहां पहुंचे और वहां से गायब हो गए. वैसे ये सही है कि सुभाष सरीखे शख्स की तस्वीर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के बाद लंबे समय तक माना जाता रहा कि हो ना हो वो सुभाष ही रहे होंगे और वो जीवित हैं.
धर्मवारा और सुभाष के चेहरे में काफी साम्य है और इस बारे में चर्चाएं तब शुरू हुईं, जब भारत सरकार के फिल्म प्रभाग की नेहरू के निधन और अंतिम यात्रा की न्यूजरील जारी हुई. यही से वो चर्चित तस्वीर उठाई गई. इसे सुभाष के जीवित होने के सबूत के तौर पर खोसला आयोग के सामने भी पेश किया गया. उत्तम चंद्र मल्होत्रा और सत्यनारायण सिन्हा ने इसे आयोग को दिखाकर यही दावा किया था कि ये नेताजी ही थे जो तीनमूर्ति भवन पहुंचे थे और वो जीवित हैं.
उत्तम चंद्र मल्होत्रा ने तो हिन्दी में पूरी पुस्तक ही प्रकाशित कर दी, जिसका शीर्षक था “शॉलमारी साधू ही नेताजी”. इसमें उन्होंने यही फोटो प्रकाशित की. सत्यनारायण सिन्हा ने आयोग के सामने उस मंगोलियाई डेलिगेशन की वही तस्वीर पेश की, जो गोस्वामी ने पेश की थी, इसमें बोस से मिलता-जुलता कोई शख्स दीख रहा है, इसे लेकर उनका दावा था कि ये सुभाष हैं. हालांकि ये तर्क का विषय है कि अगर सुभाष जिंदा भी होते तो ऐसे किसी डेलिगेशन के साथ क्यों घूमते और तस्वीर खिंचवाते.
अब बात उस बौद्ध भिक्षु की हो जाए, जो लंबे समय तक सुभाष के रूप में चर्चा का विषय बने रहे. उनका पूरा नाम क्या था, ये हम ऊपर बता चुके हैं. वो लंबे समय तक दिल्ली में रहे थे. यहां उन्होंने द अशोका मिशन की स्थापना की थी. वो कंबोडिया के एक धनी परिवार में पैदा हुए. वो उच्च शिक्षित थे. वो वकील से लेकर जज बने. फिर कंबोडिया में डिस्ट्रिक गर्वनर बने. फिर उन्होंने बौद्धिज्म का अध्ययन शुरू किया. 30 साल की उम्र के आसपास वो भिक्षु बन गए. उन्होंने जंगल में तपस्या भी की. फिर वो बर्मा और भारत आए. इन दोनों देशों में उन्होंने अपनी जिंदगी का लंबा समय गुजारा. वो जाने-माने नेचुरल हीलर भी थे. कई भाषाओं के जानकार थे.  इसके बाद वो कई कार्यक्रमों में अमेरिका आमंत्रित किये जाने लगे. इसके अलावा हीलिंग के लिए ग्रुप्स को सिखाने के लिए दुनियाभर में यात्राएं करते रहते थे. बाद में वो स्थायी तौर पर अमेरिका में बस गए. वाशिंगटन डीसी में उन्होंने पहला बुद्धिस्ट मंदिर बनाया.
110 साल की उम्र में भंते धर्मवारा का कैलिफोर्निया में निधन हो गया. उनकी अस्थियां दिल्ली के अशोक मिशन विहार में भी रखी हैं. हर साल 12 फरवरी को उनके जन्मदिन पर दिल्ली में भी समारोह भी होता है.

इसके अलावा भी जस्टिस खोसला आयोग के सामने नेताजी को देखने या उनसे मिलने के विचित्र दावा करने वाले लोग आए. जो हर जगह के थे. उनके दावे और कहानियां भी अलग अलग तरह की थीं लेकिन सब यही जाहिर करने में लगे थे कि वो जो कह रहे हैं या उन्होंने जो कुछ देखा, वो पूरी तरह सत्य है. हालांकि आयोग ने किसी के भी दावे को नहीं माना. इन विचित्र दावों के बारे में जानना अपने आपमें दिलचस्प है.
देवन सेन बंगाल से कांग्रेस सांसद थे. वो 1967 से लेकर 1971 तक सांसद रहे. अब वो जिंदा नहीं हैं. ना ही वो खुद खोसला आयोग के सामने पेश हुए लेकिन पर्सनल अस्सिटेंट मुकुंद पारेख उनके निधन के बाद आयोग के सामने आए और उनका कहना था कि ये जब देवन जिंदा थे तब उन्होंने नेताजी को मार्सिली में देखे जाने की बात उनसे की थी. मुकुंद इस बात की तसदीक के लिए अपने साथ आनंद बाजार पत्रिका के कोलकाता के पूर्व संपादक चपलाकांत भट्टाचार्य को भी लेकर आए थे.

मुकुंद पारेख का कहना था कि सेन ने 1966 के आसपास कोलकाता में रात में मुझे बुलाया. मैं उनका पर्सनल अस्सिटेंट था. मुझे लगा कि कोई संसद से जुड़ा मसला होगा, जिस पर बातचीत के लिए वो मुझको बुला रहे हैं. जब मैं उनके पास गया तो उन्होंने कहा कि मैं जो बात बता रहा हूं, उसको किसी को ना बताया जाए. उन्होंने बोलना शुरू किया, मैं 1946 में लंदन गया. वहां से मुझे अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन (आईएलओ) कांफ्रेंस में जिनेवा जाना था. हमें मार्सिली में विमान बदलना था. लिहाजा जब लंदन से हमारा विमान पहुंचा तो बीच में कुछ समय था. हम एक रेस्टोरेंट चले गए. देश के ट्रेड यूनियन लीडर जोगिंदर भी साथ में थे. हम एक टेबल के इर्द-गिर्द बैठ गए. तभी सैन्य यूनिफॉर्म में एक व्यक्ति वहां आया. उसका चेहरा काफी जाना पहचाना लग रहा था. हालांकि वो किसी यूरोपीयन की तरह लग रहा था. मैं टायलेट जाना चाहता था. सैन्य पोशाक पहने वो शख्स टायलेट के करीब ही बैठा था. जब मैं उसके करीब पहुंचा  तो मुझे साफ लगा कि वो नेताजी सुभाष चंद्र बोस हैं. मैं हैरान रह गया. मैं कुछ बोलना चाहता था लेकिन उस व्यक्ति ने होठों पर अंगुली रखकर चुप रहने का इशारा किया. मैं टायलेट चला गया.
बोस के साथी जोगिंदर ने भी इस बात की तसदीक की. हालांकि जोगिंदर भी आयोग के सामने नहीं आए थे. सेन ने जोगिंदर से कहा कि इस मामले में हमें चुप रहना चाहिए. हालांकि सेन जब कोलकाता गए तो उन्होंने ये बात शरत चंद्र बोस को बताई. शरत ने पाया कि नेताजी फ्रांस में अगर होंगे तो अपनी पहचान नहीं उजागर होने देंगे, शायद इसीलिए उन्होंने चुप रहने का इशारा किया होगा. सेन ने ये बात चपलाकांत भट्टाचार्य, सुरेश चंद्र बनर्जी और डीएल सेनगुप्ता को भी बताई. सेन ने उनसे ये कहा कि वो ये पब्लिक में कभी नहीं बोलेंगे, अन्यथा ये बड़ा सियासी मामला बन जाएगा. 1970 में जब खोसला आयोग बना, तब पारेख और भट्टाचार्य ने तय किया कि वो ये बात आयोग को बताएं.
चपलाकांत ने भी करीब यही कहानी आयोग के सामने दोहराई, सेन ने ये बात मुझे तब बताई, जब हम दोनों लोकसभा में साथ थे. सेन मार्सिली गए थे. उनके साथ श्रमिक नेता जोगिंदर भी थे. वहां जब वो विमान बदल रहे थे, तब वो एयरपोर्ट के रेस्टोरेंट गए थे, जहां उन्हें कुछ रिफ्रेशमेंट लेना था, तब उन्होंने देखा कि मिलिट्री पोशाक पहने एक शख्स वहां मौजूद है, जो उन्हें देख रहा है. उन्होंने जब उसकी ओर देखा तो अहसास हुआ कि ये तो नेताजी हैं. उस समय उनसे बात  करने की जरूरत थी लेकिन उस शख्स ने मुंह पर अंगुली रखकर उनसे चुप रहने को कहा.
जोगिंदर और सेन दोनों जब टायलेट से निकलकर आए तो आपसे में एक दूसरे से पूछा कि क्या वो नेताजी लग रहे थे. दोनों का कहना था कि वो नेताजी सुभाष चंद्र बोस ही थे, जो रेस्टोरेंट में मौजूद थे. तब सेन ने जोगिंदर को सलाह दी कि वो इस बारे में किसी से बात नहीं करें, अन्यथा नाहक एक विवाद खड़ा हो जाएगा.
आयोग ने इसे सच्चाई से परे माना. चूंकि सेन और जोगिंदर दोनों की ही मृत्यु हो चुकी थी, लिहाजा इसे प्रामाणिक माना भी नहीं जा सकता था.

चपलाकांत ने एक नाटकीय घटनाक्रम के बारे में बताया. ये बंटवारे के बाद की बात है. तब चपलाकांत भट्टाचार्य आनंद बाजार पत्रिका में संपादक थे.  ये घटना इस तरह है-
बंटवारे के बाद गर्मियों की बात है. उस समय आनंद बाजार पत्रिका का आफिस वर्मन स्ट्रीट पर था. एडीटर का कमरा दूसरी मंजिल पर था. सामने छत थी. कमरा बड़ा था और उसमें तीन ओर तीन दरवाजे थे. गर्मियों के कारण दरवाजे बंद थे. एक बजे के आसपास मैने अचानक खडाऊं की आवाज सुनी, जो कमरे की ओर आ रही थी. मैं इंतजार करने लगा.
दो युवा कमरे में आए. एक सैन्य पोशाक में था. दूसरा संमयासी वेशधारी भगवा रंग के परिधान में था. जो उम्र में लग रहा था. मैं उन्हें देखकर थोड़ा विस्मित हुआ. उनसे पूछा कि आपलोग मुझसे क्या चाहते हैं.
उनका जवाब था, सर हम जापान से आ रहे हैं. एयरपोर्ट से उतरकर पहले आप के ही पास आए हैं. मैने पूछा-क्या बात है. उन्होंने कहा, हमारे पास नेताजी का एक संदेश है, जो आपको देने के लिए कहा गया है.
ये मेरे लिए हैरानी का अनुभव था. अप्रत्याशित और अनपेक्षित भी. मैने उनसे कहा, मैं कैसे मान लूं कि आप नेताजी के पास से आ रहे हैं, क्या आपके पास इसका कोई सबूत है. आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि इस बारे में आपसे बात करूंगा या ये कैसे मान लूं कि ये संदेश नेताजी ने दिया है. उन्होंने कहा, हमारे पास एक पत्र है. मैने कहा, पत्र दिखाइए. मैं देखूंगा कि उस पर कौन सी तारीख है और नीचे किसके साइन हैं. टैक्स्ट देखने से पहले मैं नीचे उनके साइन देखना चाहता था, क्योंकि मैं भलीभांति उनके साइन से परिचित था. आसानी से सत्यता का पता लगा सकता था.
उन्होंने कहा, ये पत्र तो शरत जी के नाम है. इसे हम आपको कैसे दिखा सकते है. ये तो संभव नहीं है. तब मैने कहा-आप शरत के पास जाइए. उसके बाद मेरे पास आ जाइए.
जब वो चले गए तो मैं कई दिनों तक उनके आने की उम्मीद करता रहा लेकिन वो नहीं आए. ये भी एक अजीब अनुभव था. मैं अब तक हैरान होता हूं और इसके बारे में समझ नहीं पाता कि वो दोनों क्यों मेरे पास आए. वो क्या लाए थे. वो इसके बाद क्यों नहीं आए. ये आनंद बाजार पत्रिका के ऑफिस में हुआ. तब मैने स्टाफ से पूछा कि वो लोग कौन थे, उन्होंने बताया कि दो युवक आए थे और हमने उन्हें आपके पास भेज दिया.
आयोग ने इन दोनों गवाहियों पर विश्वास नहीं किया. चपलाकांत से जस्टिस खोसला ने सवाल किया क्या उन्होंने इस बारे में शरत को बताया. तो भट्टाचार्य का कहना था कि मैं ऐसा नहीं कर सका. इसके एक साल बाद शरत गुजर गए. आय़ोग का मानना था कि शायद ही कोई चपलाकांत भट्टाचार्य की बात पर विश्वास करे और ये माने कि सुभाष 1948 में जिंदा थे.
गवाह सरदार निंरंजन सिंह तालिब आयोग के सामने आये. उन्होंने जिस वाकये का वर्णन किया वो 1947 का था. निरंजन पंजाब कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे. वो पहले पंजाब में राज्य मंत्री रहे और फिर कैबिनेट मिनिस्टर. उनका कहना था कि वो सरदार बलदेव सिंह के घर गए, जहां उन्हें किसी मिस्टर वॉग से मिलाया गया. तालिब के अनुसार, परिचय होने के कुछ देर बाद मिस्टर वॉग मुझको अलग कमरे में ले गए. वहां उन्होंने मुझे सुभाष चंद्र बोस के फोटोग्राफ दिखाने शुरू किये. उन्होंने कहा कि ये फोटोग्राफ इंडो-चाइना इलाके के हैं, जहां सुभाष गायब हो गए थे.  वो हवाई हादसे में नहीं मरे बल्कि गायब हुए थे. वो इंडो चाइना इलाके में ही रहे. उन्होंने मुझको कुछ ऐसी तस्वीरें दिखाईं, जिसमें सुभाष बोस कॉटेज के सामने खड़े थे. वॉग ने दावा किया कि ये तस्वीरें उसी दिन की हैं, जिस दिन विमान हादसे की तारीख बताई गई. वॉग ने कहा कि उन्हें इस सिलसिले में एक अमेरिकी अखबार के लिए स्पेशल स्टोरी लिखनी है. हालांकि ये स्टोरी कभी प्रकाशित नहीं हुई. ये भी नहीं लगा वॉग कभी सुभाष से मिले होंगे.
तालिब ने आगे बताया, मैं उनसे एक फोटो लेना चाहता था, तभी अचानक उन्हें क्या हुआ कि उन्होंने सारी तस्वीरें समेट लीं और कुछ शंकालु हो गए. फिर उन्होंने अपनी बातें वहीं रोक दीं. उन्हें लग रहा था कि मैं उनसे हुई बातें कहीं लीक ना कर दूं. जाहिर सी बात है कि खुद तालिब ने ये स्टोरी जिस तरह आय़ोग को बताई थी, उससे उन्हें खुद इस बात पर भरोसा नहीं था तो आयोग कैसे इसकी सत्यता पर विश्वास कर सकता था.
गोस्वामी नाम के एक सज्जन आय़ोग के सामने फोटो वाला एक पंफलेट लेकर आए. उनका दावा था कि सुभाष 1952 में पीकिंग में थे. वहीं उन्होंने मंगोलियाई ट्रेड यूनियन के एक डेलीगेशन के साथ तस्वीर खिंचवाई. उस तस्वीर में एक व्यक्ति सुभाष जैसा लग रहा था. इस पंफलेट को आयोग ने रिकॉर्ड के तौर पर रख लिया. यही फोटोग्राफ हिंदुस्तान स्टैंर्डड अखबार में भी प्रकाशित हो चुका था. इसके प्रकाशन की तारीख थी 05 अक्टूबर 1955. बंगाली अखबार युगांतर ने भी इसे प्रकाशित किया. हिन्दुस्तान स्टैंर्डड ने तो गोस्वामी के एक बयान को भी छापा था. गोस्वामी ने वही तस्वीर आयोग के सामने पेश की थी. उन्होंने ये दावा भी किया कि नेहरू के निधन के समय जो संन्यासी उनके करीब नजर आ रहा है, वो असल में सुभाष ही हैं. ये संयोग है कि दोनों तस्वीरों में जो शख्स नजर आ रहा है कि उसका चेहरा सुभाष से मिलता जुलता लग रहा था. हालांकि इस फोटोग्राफ से ये साबित नहीं होता कि सुभाष 1945 के बाद जिंदा थे. नेहरू के पास जो सुभाष की शक्ल से मिलता जुलता जो संन्यासी देखा गया,  उसके बारे में इसी पुस्तक एक अध्याय अलग से विस्तार से दिया गया है कि दरअसल वो संन्यासी एक कंबोडियाई भिक्षु थे, जो दिल्ली में लंबे समय तक रहे और फिर अमेरिका चले गए. नेहरू के शव के पास मौजूद संन्यासी की दो तस्वीरें पत्र-पत्रिकाओं और किताबों के जरिए फैली. इसमें एक वास्तविक थी, जिसमें कंबोडियाई के बौद्ध भिक्षु नजर आ रहे हैं और दूसरी तस्वीर में युवा सुभाष का चेहरा दीख रहा है, ये मॉर्फ तस्वीर है.
एक और अजीबोगरीब स्टोरी खोसला आयोग को बताई गई. ये 1954 की है. इसे आयोग को बताने वाले सज्जन थे मुबारक मजदूर. वो बंगाल के सक्रिय नेता और सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य थे. वो छुट्टियों में रंगून गए थे. वहां वो प्रसिद्ध एना लेक घूमने गए, जो पर्यटकों का आकर्षण का खास केंद्र रहती है. उनका कहना था, मैं झील के चारों ओर घूमते हुए भीड़ को देख रहा था. कुछ देर बाद मैने खुद को थका हुआ महसूस किया. मैं एक चाय के स्टाल के पास पहुंचा. वहां एक बेंच पर एक सज्जन बैठे हुए थे. वो म्यांमार (तब बर्मा) की परंपरागत पोंगी ड्रेस में थे. मतलब बर्मी के पुजारियों की पोशाक. ये भगवा रंग की थी. ये कोई जनवरी 1954 के आसपास का समय रहा होगा. उन्होंने मेरी ओर सिर उठाकर देखा और कहा, तशरीफ रखिए. उनके मुंह से हिंदी सुनकर मेरी दिलचस्पी उनमें बढ़ी, कुछ विस्मित भी हुआ कि कोई बर्मी हिंदी बोल रहा है. मैं उनके बगल में बैठ गया. तब तक उन्होंने मेरे लिए चाय का आर्डर दे दिया. वो चाय स्टाल के मालिक बहुत अच्छी बर्मी में धाराप्रवाह बात कर रहे थे. जैसे ही मैने उनकी ओर देखा तो हैरानी से सोचने लगा कि ये सज्जन कौन हो सकते हैं. उनका चेहरा पहचाना सा लग रहा था. मुझे लग रहा था कि जैसे मैने उन्हें कहीं पहले भी देखा है. मैने उनसे पूछा, आप इतनी अच्छी हिंदी कैसे बोल लेते हैं. उनका जवाब था,  मैं लंबे समय तक भारत में रहा हूं. मैने उनसे पूछा कि आपकी नागरिकता क्या है. उन्होंने कहा-पुरुष और महिला एक देश में पैदा होते हैं और कुछ समय बाद जब वो अपनी यात्रा खत्म कर देते हैं तो दुनिया छोड़ देते हैं. क्या आप उम्मीद करते हैं कि एक मृत व्यक्ति नागरिकता बताए. आप मुझसे मेरी नागरिकता के बारे में सवाल पूछ रहे हैं. इसके कुछ अहम बिंदू हैं. इसके बाद जब उन्होंने देखा कि कोई विदेशी आ रहा है, तब वो वहां से चले गए. इसके कुछ समय बाद एक सुंदर सी बर्मी लड़की मेरे पास आई. उसने कहा, आपके दोस्त मिस्टर मोंक आपसे मिलना चाहते हैं.
मैं उस बर्मी लड़की के पीछे चल पड़ा. रेत में कुछ दूर आगे वो लंच कर रहे थे. मिस्टर मोंक के बर्मी दोस्त ने मुझसे भी लंच करने के लिए कहा. उसके बाद मिस्टर मोंक और उनका दोस्त मुझे अपनी कार में ले गए. उन्होंने मुझको मेरे होटल पर ड्रॉप किया. मेरे दिमाग में उनका अच्छा असर पड़ा. मुझे लगा कि वो जरूर कोई अहम व्यक्ति होने चाहिए. वो नेताजी सुभाष चंद्र बोस से काफी मिलते हुए लग रहे थे. मैं कहना चाहता हूं कि वो जिंदा हैं. मेरे ख्याल से मिस्टर मोंक ही सुभाष चंद्र बोस थे.
मिस्टर मजदूर ने आगे बताया, मैने मिस्टर मोंक से सीधा सवाल पूछ लिया कि वो सुभाष चंद्र बोस तो नहीं. उन्होंने नकारात्मक मुद्रा में सिर हिलाया. मैने उनसे दोबारा पूछा, क्या वास्तव में सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु हो चुकी है, तब वो काफी नाराज दिखे, उन्होंने चिल्लाने वाले अंदाज में कहा, कौन कहता है कि सुभाष मर गए.
ये गवाह शाहनवाज आयोग के सामने पेश नहीं हुआ था, क्योंकि वो जिस समय का वाकया बता रहा था, उस समय उसे उन्हीं के सामने पेश होना चाहिए था. उसकी वजह बताते हुए उसने कहा, कोलकाता में बहुत सारे लोगों ने उससे कहा था कि उसे अबकी बार आयोग के सामने जरूर जाना चाहिए और उसे बताना चाहिए कि उसने क्या देखा और उसकी मुलाकात किससे हुई. खोसला आयोग को साफ लगा कि ये स्टोरी काल्पनिक और गढ़ी हुई है. इसे आराम से खारिज किया जा सकता है.
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किताब के लेखक संजय श्रीवास्तव सीनियर जर्नलिस्ट हैं. तीन दशकों से पत्रकारिता कर रहे हैं. देश के कई शीर्ष अखबारों, टीवी संस्थान में काम कर चुके हैं. अब डिजिटल मीडिया में हैं. ये उनकी चौथी किताब है. इसके लिए उन्होंने सुभाष संबंधी तमाम बातों का गहन रिसर्च किया. आगे भी वो एक व्यक्ति के रूप में सुभाष चंद्र बोस किताब लिखने की योजना बना रहे हैं.   

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