श्री कँवल भारती जी का यह कथन दलित क्रांतिकारियों/बुद्धिजीवियों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है कि “दलित अगर मार्क्सवाद से जुड़ते हैं, तो बात समझ में आती है। पर ब्राह्मणों और अन्य उच्च जातियों का मार्क्सवाद से जुड़ना समझ में नहीं आता। ये किस व्याधि से पीड़ित थे, जो मार्क्स की शरण में गए। ग़रीब ये थे नहीं, अछूत ये थे नहीं, जातीय भेदभाव इनके साथ होता नहीं था, फिर क्या रहस्य है, जो ये मार्क्सवादी हुए? कोई बताएगा?”
निश्चित श्री कँवल भारती जी कहना चाहते हैं कि मार्क्सवाद एक क्रांतिकारी दर्शन है जिसे दलितों और क्रान्तिकारियों के डर के कारण ब्राह्मणों ने लोक लिया जिससे भारत में क्रान्ति न सम्पन्न हो और न ब्राह्मणवाद खत्म किया जा सके।
इस लिहाज से, सभी दलितों को बढ़चढ़ कर मार्क्सवाद का अध्ययन करना प्रारम्भ कर लेना चाहिए। दलित आम्बेडकवाद को जानता-समझता है, मार्क्सवाद को पढ़कर उसे भी समझ जाएगा। ऐसी स्थिति में दलित वैचारिक रूप से बिल्कुल मजबूत हो जाएगा। दलितों के पास दो सार्थक, उत्तम और आधुनिक हथियार हो जायेंगे। दलित जब मार्क्सवाद को ढंग से सीख जाएगा, तो सवर्ण छद्म मार्क्सवादियों को करारा जवाब दे सकेगा और उन्हें मजबूर कर सकेगा कि जिस मार्क्सवाद को तुम समझते या समझाते हो, वह मार्क्सवाद नहीं है। मार्क्सवाद एक सर्वहारा संस्कृति भी है जो आज तक तुमने स्वयं व अपने बाल-बच्चों अथवा पार्टी लाइन में प्रवेश नहीं होने दिया है। जब दलित असली मार्क्सवाद को लेकर पार्टी लाइन तैयार करेगा और छद्म मार्क्सवादियों को चैलेंज करेगा, तो या तो छद्म मार्क्सवादी सरेंडर कर जाएँगे अथवा खुल कर आरएसएस का साथ देने लगेंगे। ऐसी स्थिति में मार्क्सवाद पर दलित व असली क्रांतिकारियों का कब्ज़ा हो जाएगा। दलित यदि मार्क्सवाद अपना लें, तो भारत से जातिवाद तो खत्म हो ही जाएगा, पूँजीवाद भी उखाड़ फेंका जा सकता है। डॉ. आम्बेडकर के दोनों सपने-“भारत से जातिप्रथा (ब्राह्मणवाद) और पूँजीवाद दोनों समाप्त होना चाहिए” पूरे हो सकते हैं।
श्री कँवल भारती जी के इस प्रश्न के माध्यम से यदि दलित और आम्बेडकरवादी बुद्धिजीवियों/चिंतकों/क्रांतिकारियों/नेताओं को यह समझ में आ जाय कि मार्क्सवाद एक क्रान्तिकारी दर्शन है तथा ब्राह्मणों ने क्रान्ति के भय से दलितों और क्रांतिकारियों को गुमराह करने के लिए मार्क्सवाद को अपना लिया था, तो अब समय आ गया है कि श्री कँवल भारती सहित अनेक दलित बुद्धिजीवियों को क्रान्ति के दर्शन को ब्राह्मणों से छीनकर उनको धोखे की राजनीति से बाहर कर क्रान्ति का बिगुल बजा दिया जाना चाहिए।
श्री कँवल भारती के इस संदेश से एक अच्छा संदेश प्रसारित हुआ है कि मार्क्सवाद एक क्रांतिकारी दर्शन है और मार्क्सवाद को ब्राह्मणों ने लोक लिया था। अब दलितों को श्री कँवल भारती के इस संदेश का स्वागत करते हुए “राज्य और अल्पसंख्यक-डॉ. आम्बेडकर”, “कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र-मार्क्स/एंगेल्स”, “द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद-मार्क्स”, “ड्यूहरिंग मत खंडन-एंगेल्स”, “काल्पनिक से वैज्ञानिक समाजवाद-एंगेल्स”, “मार्क्सवाद क्या है-एमिल बर्न्स”, “द्वंद्वात्मक भौतिकवाद-मॉरिस कॉर्नफोर्थ”, “मार्क्सवाद क्या है-राहुल सांकृत्यायन”, “जातिप्रश्न और मार्क्सवाद-राहुल फाउंडेशन लखनऊ”, “क्या करें-लेनिन”, “राज्य और क्रान्ति-लेनिन”, “टुटपुंजिया वामपंथ-लेनिन”, “सांस्कृतिक क्रान्ति-माओ”, एस यू सी आई ही एकमात्र भारत की कम्युनिस्ट पार्टी क्यों-शिवदास घोष”, “भारत में सांस्कृतिक क्रान्ति और हमारा कर्तव्य-शिवदास घोष”, “मार्क्सवाद और मानव समाज पर-शिवदास घोष” को जरूर से जरूर पढ़ना चाहिए।
मेरे प्रत्योत्तर पर श्री कँवल भारती को न जाने क्या सुझा कि उन्होंने लिखा, “किस मार्क्सवादी संगठन में आपकी क्या हैसियत है, मैं नहीं जानता। लेकिन यह जानता हूँ कि आपकी मार्क्सवादी राजनीति में कोई हैसियत नहीं है। आप किसी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव नहीं हैं, न पालित ब्यूरो के मेम्बर हैं। फिर आप किस हैसियत से दलितों को मार्क्सवाद से जुड़ने को कह रहे हैं? क्या आप में इतना दम है कि आप कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व अपने हाथ में ले लेंगे? जब आप यह दम पैदा कर लें, तो बताना।”
फिर तो उनकी आँखें खोलने के लिए मुझे लिखना पड़ा। सर! जब दलित कम्युनिस्ट पार्टी बना लेगा तब तो मेरी स्थिति क्रान्तिकारी की हो जाएगी। आप ही तो कह रहे हैं कि दलित मार्क्सवाद स्वीकार करता तो दूसरी बात थी लेकिन सवर्णों ने मार्क्सवाद स्वीकार कर लिया। आप ने यह भी बताया है कि सवर्णों ने मार्क्सवाद दलितों/क्रांतिकारियों को बेवकूफ बनाने के लिए अपनाया था जब कि यह जरूरत दलितों की थी। चलो, दलितों को तब नहीं समझ में आया, तो आप ने इस कथन से समझ में आ जाय, तो अच्छा ही होगा।
मैं ब्राह्मणों से कम्युनिज्म नहीं सिख रहा हूँ। मैंने श्री कँवल भारती के पिछले अनेक लेखों से सीखा है जिसमें आप ने मार्क्सवाद की वकालत की है बल्कि मार्क्सवाद को उचित ठहराने के लिए डॉ. आम्बेडकर के राजकीय समाजवाद के व्यक्तिगत सम्पत्ति और संसाधनों के राष्ट्रीयकरण की भरपूर वकालत की थी। मैंने जब उन्हें पढ़कर मार्क्सवाद सीखा तो आप मार्क्सवाद से घबड़ाने लगे हैं। क्या आप को भी डर लगने लगा है कि दलित मार्क्सवाद सिख जाएगा तो जातिवाद और पूँजीवाद खत्म हो जाएगा?
मैं दलितों को मार्क्सवाद से जुड़ने के लिए इस हैसियत से बात कर रहा हूँ कि मैं भी आप जैसा एक धुरंधर पाठक और चिंतक हूँ। भारत की जितनी किताबें आप ने आम्बेडकवाद और मार्क्सवाद पर पढ़ी हैं, उससे कम मैंने रंचक नहीं पढ़ा है बल्कि मैंने उस समय मार्क्सवाद को ठीक से पढ़ा था जब आप मार्क्सवाद को ठीक से जानते भी नहीं थे इसलिए हैसियत की बात न करीए, सिर्फ तर्कपूर्ण बात करिए। यह सत्य है कि जितनी किताबें आप ने पढ़ी हैं उससे अधिक किताबें आप से बहुत कम उम्र में पढ़ चुका हूँ और मार्क्सवाद पर तो मैंने आप से कहीं अधिक किताबें पढ़ा हूँ। अध्ययन और ज्ञान पर घमंड न दिखाइए। हाँ, आप मेरे प्रिय और आदरणीय वरिष्ठ हैं इस नाते मैं हर तरह से बेवजह भी डाँटने का अधिकार प्रदान करता हूँ। आप को हमेशा एक अच्छा माहौल तैयार करने की कोशिश करना चाहिए जबकि आप अपने को अति विद्वान मानकर लोगों पर अपने दलितवाद को थोपने की कोशिश करते हैं। एस्प को ज्ञात हुआ चाहिए कि बहुत सारे ज्ञान आप को उतना नहीं हैं जितना नए छात्रों/स्कॉलरों/बुद्धिजीवियों को है। आप से हमने सीखा है। हम आप के ऋणी हैं। अब हम उम्र और ज्ञान के उस सीमा पर पहुँच गए हैं कि अब आप को सहर्ष, बिना घमंड किए, बिना खीझे सीखना चाहिए। जमाना हमारा है। आप बीते हुए बीतराग हैं। क्रान्ति हमको करना है इसलिए जमाने को हम सिखाएँगे। आप को सीखना हो तो सीखिए, समाज के क्रान्तिकारी आप का यशगान गाएँगे, नहीं तो आप को और आप के लेखन को नए विद्वान और क्रान्तिकारी कूड़े में फेंक देंगे। आप का कोई नाम लेने वाला भी नहीं रहेगा। सिखाइए कम सीखिए ज्यादा, यह समझदार के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है।
एक टिप्पणीकार श्री अमित कुमार की यह बात मुझे बहुत प्रिय लगी कि, “मुझे लगता है किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी से उम्मीद छोड़ कर तमाम दलित बुद्धिजीवियों को एक नयी कम्युनिस्ट पार्टी बनना चाहिए जिसमें सारे पोलिट ब्यूरो सदस्यों सहित महासचिव भी दलित ही होना चाहिए। फिर इस देश में क्रांति कोई रोक नहीं सकता।”
बिल्कुल दलितों को एक नई कम्युनिस्ट पार्टी बना लेना चाहिए। उनकी सारी समस्या खत्म हो जाएगी। उन्हीं के चिंतक, उन्हीं के क्रान्तिकारी, उन्हीं के नेता, उन्हीं के सदस्य, उन्हीं के पोलित ब्यूरो के सदस्य और उन्हीं का नेतृत्व लेकिन श्री कँवल भारती जैसे बुद्धिजीवी दलितों को मार्क्सवाद पढ़ने के बजाय रोकने में विश्वास रखते हैं। कुछ हो न हो लेकिन दलितों को मार्क्सवाद पढ़ना तो चाहिए ही।
श्री कँवल भारती जैसे दलित बुद्धिजीवी रामायण, रामचरितमानस, मनुस्मृति, वेद, पुराण, श्रुतियाँ, स्मृतियाँ पढ़ने से नहीं रोकते हैं। दिनों रात ब्राह्मणों के राम, कृष्ण, हनुमान का नाम लेने से नहीं रोकते हैं लेकिन मार्क्सवाद को पढ़ने से जरूर रोकते हैं। आखिर इनको किस चीज से चिढ़ है। आखिर दलित बुद्धिजीवी क्यों डरते हैं मार्क्सवाद से?
श्री कँवल भारती दलित बुद्धिजीवी की हैसियत से कभी भी कोई कोई भी क्रान्तिकारी पार्टी बनाने की बात नहीं करते हैं। दलित बुद्धिजीवी की हैसियत से किसी क्रान्तिकारी पार्टी में काम नहीं करते हैं। ये न बीएसपी ये फालोवर हैं, न बामसेफ के फालोवर हैं, न किसी बुद्धिष्ट संगठन के सक्रीय कार्यकर्ता हैं, न ये कांशीराम के साथ खुलकर हैं, न खापर्डे के साथ है, न बामन मेश्राम के साथ हैं, न दयाराम के साथ हैं, न विजय वाडेकर के साथ हैं, न हरिश्चन्द्र के साथ हैं, न एस पी आर्या के साथ हैं, न विजय मानेकर के साथ हैं, न डॉ. राजाराम के साथ हैं, फिर हैं किसके साथ?
व्यवस्था परिवर्तन के लिए संगठन और नेतृत्व चाहिए। या तो संगठन में काम करो और नेतृत्व दो अथवा शेखी बघारना छोड़ दो। आप की शेखी से ग्रामीण अंचलों में प्रतिक्रिया वश दलितों की पिटाई और बलात्कार होते हैं। दलित सताए जाते हैं। कुछ डर होता है तो उनका जिन नेताओं और संगठनों की आप जैसे साहित्यिक बुद्धिजीवी पानी पी पी कर बुराई करते हैं। बुराई है तो बुराई करो लेकिन जब आप के अंदर नेतृत्व का माद्दा हो। नेतृत्व का माद्दा है नहीं, चले हैं कांशीराम, मेश्राम, चंद्रशेखर रावण में खोट निकालने। अरे जब संगठन बना सको, दलितों का नेतृत्व कर सको तब दलित और क्रान्तिकारी संगठनों की बुराई करो/कमियाँ निकालो/खोट बताओ, नहीं तो चुप रहो, दलितों को कम से कम पिटवाओ नहीं।
बिना क्रान्ति के कोई सपना पूरा नहीं होगा, न आप का, न मेरा, न हमारा, न डॉ. आम्बेडकर का। कायरों की भाँति शेखचिल्ली की कहानियाँ लिखने से कोई परिवर्तन नहीं होगा। परिवर्तन के लिए बलिदान करो। आगे आओ। नेतृत्व करो। संगठन बनाओ। मूर्ख बनाने से काम नहीं बनेगा।
आर डी आनंद
21.10.2020