समकालीन दलित राजनीति: विकल्प की त्रासदी

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स्वदेश कुमार सिन्हा
हमारे समय के सर्वकालीन महान विचारक ‘कार्ल मार्क्स’ का कथन है-“इतिहास अपने को दोहराता ज़रूर है,पर पहली बार त्रासदी के रूप में तथा दूसरी बार वही प्रहसन में बदल जाता है।” यह फर्स्ट टाइम काॅमेडी तथा सेकेंड टाइम ट्रेजडी हम सब हर वर्ष 14 अप्रैल को अम्बेडकर जयंती में देख सकते हैं। हर रंग-रूप के वामपंथी,दक्षिणपंथी तथा विभिन्न रूपों के‌ अम्बेडकरवादी हर वर्ष कहीं घूरे में पड़ी अम्बेडकर की फोटो,मूर्ति तथा‌ उनकी पुस्तकें निकालते हैं तथा उन्हें झाड़-पोंछकर माला-फूल, अगरबत्ती तथा‌ धूप‌ दिखाते हैं। उनका स्मृति पाठ करते हैं, फिर उन सबको उसी घूरे में फेंककर साल भर के लिए सो जाते‌ हैं। यह सब कुछ उसी तरह होता है,जिस तरह ‘कायस्थ समाज’ दीपावली के एक-दो दिन बाद अपने आराध्य चित्रगुप्त की फोटो निकालता है तथा अनकी किताबों एवं कलम-दवात पर फूल-माला चढ़ाकर उनका पूजन करता है, फिर वर्ष भर के लिए उन्हें भूल जाता है। वास्तव में आज के दलित आंदोलन की दशा और दिशा बताने के लिए इससे सटीक कोई दूसरा उदाहरण नहीं दिखता।

भारतीय जाति व्यवस्था हमेशा से एक जटिल पहेली रही है तथा आज भी इसके सूत्रों एवं सिरों की तलाश जारी है। अनेक  लेखकों- विचारकों ने इसे समझने-जाँचने की भरपूर कोशिश की है,जो आज भी जारी है, विशेष रूप से दलित और उनके आंदोलनों की दशा और दिशा के बारे में।

सुभाष गताडे एक मार्क्सवादी एक्टिविस्ट और विचारक हैं, उन्होंने समकालीन तथा अतीत के दलित आंदोलनों पर बहुत ही‌ बेहतर काम किया है, विशेष रूप से आज के दलित आंदोलन में अम्बेडकर की विरासत के नकारात्मक और सकारात्मक तथ्यों पर। इस संदर्भ में उनकी दो पुस्तकें प्रथम-‘बीसवीं सदी में डॉ० अम्बेडकर का सवाल’ तथा दूसरी-‘ चार्वाक के वारिस’ इन दोनों पुस्तकों में अनेक मथने वाले सवालों के उत्तर खोजने की कोशिश की‌ गई है। पहली पुस्तक पूर्णरूप से अम्बेडकरवादी राजनीति तथा उसके भविष्य की संभावनाओं पर केंद्रित है और दूसरी पुस्तक में दलित आंदोलन के‌ साथ-साथ आज के अनेक समकालीन विमर्शों पर भी चर्चा है, लेकिन इसका भी मुख्य स्वर आज के दलित आंदोलन की‌ दिशा‌ और दशा पर ही केंद्रित है। प्रथम पुस्तक इस ‌मामले में बेजोड़ है कि इसमें दलित राजनीति के संदर्भ में अनेक ऐसे  अछूते मुद्दे उठाए गए हैं, जिन्हें आज के दलित विचारक भी ‌आमतौर से उठाने में परहेज करते हैं, विशेष रूप से इस पुस्तक में ‘दलित पूंजीवाद का‌ महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया गया है, जिसका अर्थ यह है कि ‌दलित विचारकों का एक वर्ग यह कह रहा है कि दलितों को भी पूंजीपति बनना‌ चाहिए तथा अपने भी अडानी-अंबानी पैदा करने चाहिए। ‘मनु से‌ विद्रोह : पूंजी के चरणों में दंडवत- दलित पूंजीवाद के बारे में कुछ बातें ( पृष्ठ संख्या=54-88) इस लेख में ‌लेखक ने‌ चंद्रभान प्रसाद जैसे अनेक ‌दलित चिंतकों द्वारा प्रसारित इस विषय पर अपनी राय रखी है कि किस तरह दलित पूंजीवाद ‘एक मिथक’ है, जो उनकी समानता और शोषण के खिलाफ उनकी रक्षा करने में हमेशा विफल रहेगा क्योंकि पूंजीवाद खुद ही शोषण का औज़ार है। उन्होंने इस संदर्भ में अमेरिका में इसी तरह के अश्वेत पूंजीवाद से इसकी तुलना करते हुए लिखा है कि वहाँ का अश्वेत पूंजीवाद किस‌ तरह‌ से अश्वेतों के ‌ ही शोषण‌ का यंत्र बन‌ गया है। उन्होंने बहुत ‌सारगर्भित और विस्तार से ‌अपने लेख में इन‌ मुद्दों को उठाया है। इसी पुस्तक में उनका एक अन्य ‌महत्वपूर्ण लेख ‘स्मृति में महाड़ : जब‌ पानी में आग लगी थी’ दलितों को सारे महाराष्ट्र में कुओं-तालाबों में पानी ‌नहीं पीने दिया जाता था।

19-20 मार्च सन्1927 को उन्होंने महाराष्ट्र के महाड़ में चावदार तालाब में अपने हजारों समर्थकों के साथ पानी पीया तथा इस अस्पृश्यता के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूँक दिया था यद्यपि यह कार्य सांकेतिक था, लेकिन इसके ‌पक्ष-विपक्ष में देशव्यापी‌ प्रभाव ‌पड़ा था। वे लिखते हैं-” यह गौरतलब है कि पश्चिमी भारत के सामाजिक आंदोलनों में महाड़ क्रांति के नाम से जाने‌-जाने वाले ” चावदार तालाब के ऐतिहासिक सत्याग्रह के‌ बारे में तथा उसके दूसरे दौर में ‘मनु स्मृति दहन‌’ की चर्चित घटना को दलित शोषितों के विमर्श में वही दर्जा प्राप्त है, जो हैसियत फ्रांसीसी क्रांति की यादगार घटनाओं से संबंध रखती है।” आज से करीब ‌एक शताब्दी पहले हुई इस ऐतिहासिक तथा युगान्तकारी घटना को भुला देना क्या ‌आज‌ के दलित विमर्श का‌ स्मृति लोप नहीं है ? लेखक इस मुद्दे को बहुत गंभीरता से उठाते हुए ‌इसे आज के समकालीन दलित विमर्श की दिशा और दशा ‌से जोड़ते हैं। इसके अलावा पुस्तक में अन्य अनेक ‌महत्वपूर्ण लेख ‌जैसे- ‘दलित तथा हिन्दुत्व ‌के अंतर्संबंधों पर एक नज़र’,’जाति का विध्वंस : नयी  ज़मीन तोड़ने का वक्त’ उनकी ‌दूसरी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘चार्वाक के वारिस’ जो सन् 2017में प्रकाशित हुई तथा आज तक हर वर्ष कम‌ से कम उसके दो संस्करण निकल ही जाते हैं।‌ ‌यह आज के समकालीन विमर्शों पर बहुत ही‌ पठनीय तथा महत्वपूर्ण पुस्तक है,जो हमें झकझोरती भी है और चिन्तन करने पर विवश भी‌ करती‌ है। ‌इसमें आज के सम्प्रदायिक फासीवाद तथा उससे जनित ‌पिछड़ी‌‌ मूल्य-मान्यताओं विशेष रूप से अंधविश्वासों का न केवल भारत में बल्कि सम्पूर्ण दक्षिण-पूर्व एशिया में आज के दौर में भारी‌ फैलाव का विश्लेषण ‌तो किया गया ही है तथा ‌इसके साथ नव उदारवादी पूंजीवाद के अंतर्संबंधों पर भी बहुत ही ‌महत्वपूर्ण चर्चा है। इस सब के अलावा भी इसमें आज के समकालीन दलित आंदोलन, साहित्य में दलित विमर्श तथा अस्मिता ‌के‌ राजनीति‌ की संभावनाओं और सीमाओं पर भी एक गंभीर दृष्टि डाली गई है। इन‌‌ महत्वपूर्ण विमर्श के‌ अलावा‌, ‘हेडगेवर- गोलवलकर बनाम अम्बेडकर’ , ‘नेहरू ‌अम्बेडकर और बहुसंख्यकवाद की चुनौतियाँ ‘ जैसे‌ महत्वपूर्ण लेख भी‌ हमें विमर्श के‌ लिए झकझोरते हैं।

वामपंथ तथा ‌दलित आंदोलन के‌ अंतर्संबंधों, ‘जय भीम’, ‘लाल सलाम’ जैसे नारों की भी विस्तृत चीर-फाड़ की गई है। इन‌ दोनों पुस्तकों में कुछ महत्वपूर्ण बातें मुझे ‌बहुत आकर्षित करती हैं ; वह‌ पुस्तकों की समकालीनता। पहली पुस्तक 2014 में प्रकाशित हुई, दुर्भाग्यवश प्रकाशन के बंद हो जाने के कारण उसका कोई नया संस्करण आज तक न आ‌ सका‌। ‌दूसरी पुस्तक 2017 में प्रकाशित ‌हुई तथा इसके नये संस्करण लगातार निकलते रहते हैं। दोनों पुस्तकों में ‌लेखक‌ ने दलित राजनीति में अस्मिता और पहचान के विमर्शों पर जो महत्वपूर्ण मुद्दे ‌उठाए थे‌,वे आज  सन् 2022 में भी सटीक बैठते हैं, विशेष रूप से इस वर्ष हुए उत्तर प्रदेश तथा बिहार ‌विधानसभा के चुनाव में ‌दलित पार्टियों ‌एवं दलों की भारी‌ हार ,संघ परिवार के फासीवाद को दलित समाज का भारी‌‌ समर्थन, दलितों का हिन्दूकरण आदि महत्वपूर्ण प्रश्न सामने आकर खड़े हो गए हैं। इन्होंने न केवल अस्मिता और पहचान की राजनीति पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगाए हैं, बल्कि ‌उनके व्यापक सांस्कृतिक बदलाव की भी‌ माँग की है। दुर्भाग्यवश सपा-बसपा जैसी पार्टियाँ इसमें ‌असफल रहीं और वह स्थान हिन्दुत्व की राजनीति ने भर दिया। बहुत से ‌दलित‌ विचारक भले ही ; ‘महिषासुर बलिदान दिवस’ जैसे ‌उत्सव  जेएनयू ‌जैसे सुरक्षित जगहों पर मनाएँ, परन्तु आज की‌ सच्चाई यह है कि ‌दलितों की भारी भागीदारी ‌’दुर्गापूजा’ जैसे हिन्दुत्ववादी पर्वों में ‌बढ़‌ रही‌ है। वास्तव में यह नयी‌ परि‌घटना दलित आंदोलन के पराजय तथा संघ परिवार की‌ राजनीति ‌की विजय है। सांस्कृतिक पुनर्जागरण ‌एक‌‌ लम्बे समय तक चलने वाली प्रक्रिया है, दुर्भाग्य‌ से दलित आंदोलन में अभी इसकी ‌शुरूआत तक नहीं हुई है। अम्बेडकर ने इस‌ ज़मीन को तोड़ने की कुछ ‌कोशिशेंं ज़रूर कहीं, परन्तु ‌वे‌ भी जल्दी ही राजनीति के कुचक्रों में उलझ गए। यही‌ कारण है कि उनकी बनाई गई अनेक ‌पार्टियों के सदस्य बहुत जल्दी ही महाराष्ट्र में ‌शिवसेना जैसे हिन्दुत्ववादी पार्टियों के दलदल‌ में समा गए। आज‌ अम्बेडकर की‌ मूर्ति पूजा -किताब पूजा से ऊपर ‌उठकर इन‌ मुद्दों‌ पर उनका भी ‌मूल्यांकन करना ‌होगा। उत्तर ‌भारत में कांसीराम- मायावती ने दलित राजनीति की जो‌ ‌नयी ज़मीन तोड़ने की‌ कोशिश की‌ थी,वह‌ भी आज मूर्ति पूजा तथा‌ भ्रष्टाचार की बलि चढ़‌‌ ग‌ई , क्या ‌आज इसके ‌विश्लेषण‌ की‌ आवश्यकता नहीं है ? सुभाष गताडे भी अपनी ‌दोनों पुस्तकों में इस‌ बात‌ को बहुत ‌शिद्दत के‌ साथ महसूस करते हैं कि‌ अस्मिता और पहचान की राजनीति की अपनी कुछ सीमाएँ‌ हैं,जो अब बहुत ‌आगे‌ कदापि नहीं जा‌ सकती‌ हैं। अगर आंदोलन को एक नयी‌ ज़मीन तोड़नी है ,तो इन‌ प्रश्नों पर खुलकर चर्चा करनी ही होगी। दुर्भाग्य यह‌ है कि दलित आंदोलन अभी भी किसी तरह के आत्मविश्लेषण के लिए तैयार नहीं है। कला‌,साहित्य,संस्कृति विशेष रूप से ‌दलित साहित्यिक विमर्श के हालात ‌और भी‌ ख़राब हैं। वास्तव में निजी ‌पीड़ाओं के अभिव्यक्ति की भी कुछ सीमाएँ होती हैं और हमें यह‌ भी मानने में कोई ‌गुरेज़‌ नहीं होना चाहिए कि दलित साहित्यकारों की यह‌ शायद पहली पीढ़ी है जिसने ‌साहित्य में ‌हस्ताक्षेप‌ किया है। उनके वर्तमान तथा विगत की पीड़ाओं की‌ स्मृतियों को हमें समझना चाहिए ,परन्तु कभी-कभी यह भी साहित्य सृजन में गंभीर बाधा‌ बन जाती है, क्योंकि ‌साहित्य में ‌किसी तरह के आरक्षण का कोई ‌स्थान‌ नहीं है। सकारात्मकता ही‌ श्रेष्ठ ‌साहित्य‌ का‌ सृजन कर सकती है, केवल निजी ‌पीडा़एँ साहित्य को बहुत आगे नहीं ले जा सकती हैं,यह कटु सत्य हमें ‌स्वीकार करना ‌होगा और अंत में ‘चार्वाक के वारिस’ पुस्तक के‌ बारे में  लेखक के एक‌ महत्वपूर्ण अनुच्छेद से मैं इस विश्लेषण को फिलहाल समाप्त करता हूँ , जो अभी लम्बे समय तक ‌जारी‌ रहेगा।

“….. विचार जब जनसमुदाय द्वारा ग्रहण किए जाते हैं, तब वह एक‌ भौतिक शक्ति बन‌ जाते हैं। कितनी दुरुस्त बात कही थी मार्क्स ने। अलबत्ता यह स्थिति बिल्कुल विपरीत अन्दाज़ में हमारे सामने नमूदार ‌हो‌ रही है। जनसमुदाय उद्वेलित भी है , आन्दोलित भी है, एक भौतिक ताकत के तौर पर संगठित रूप में उपस्थित भी है, फ़र्क बस इतना है कि उसके जेहन में मानवमुक्ति का फलसफा नहीं है, बल्कि  हम और वे की वह सियासत है ,जिसमें धर्मसत्ता,पूंजीसत्ता और राज्यसत्ता के अपवित्र कहे जा सकने वाले गठबंधन के लिए लाल कालीन बिछी है और यह सिलसिला महज़ ‌दक्षिण‌ एशिया के इस हिस्से तक सीमित नहीं है।”

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