होली के त्यौहार के पीछे ब्राह्मणवादियों ने होलिका दहन की जो कथा प्रचलित किया, उसके विरुद्ध दलितों ने दूसरी कथा को मिथक के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया है। कुछ समय तक ब्राह्मणों के जाल में लोग भ्रमित थे लेकिन अब एक बड़ी जनसँख्या अपने कहे जाने वाले, दलितों के झांसे में गुमराह रहेंगे। कथा का ऑपोज़िट कथा इस प्रकार है।
मैं “होलिका” हूं, वही होलिका जिसको हर साल आप लोग जलाते हैं, और फिर जीभर कर होली खेलते हैं एवं नशा करते हैं। आज मैं आप लोगों से एक सच्चाई बताना चाहती हूं कि मेरे साथ क्या हुआ था और मैं कैसे जली ?
मेरा घर लखनऊ के पास हरदोई ज़िले में था, मेरे दो भाई थे राजा हिरण्याक्ष और राजा हिरण्यकश्यप। राजा हिरण्याक्ष ने आर्यों द्वारा कब्ज़ा की हुई सम्पूर्ण भूमि को जीतकर अपने कब्ज़े में कर लिया था। यही से आर्यो ने अपनी दुश्मनी का षड़यंत्र रचना शुरू किया। आर्यो ने मेरे भाई हिरण्याक्ष को विष्णु नामक आर्य राजा ने धोखे से मार डाला। उसके बाद मेरे भाई राजा हिरण्यकश्यप ने अपने भाई के हत्यारे विष्णु की पूजा पर प्रतिबन्ध लगा दिया। हिरण्यकश्यप का एक पुत्र था प्रह्लाद। विष्णु ने नारद नामक आर्य से जासूसी कराकर प्रह्लाद को गुमराह किया और घर में फूट डाल दिया। प्रह्लाद गद्दार निकला और विष्णु से मिल गया तथा दुर्व्यसनों में पड़कर पूरी तरह आवारा हो गया। सुधार के तमाम प्रयास विफ़ल हो जाने पर राजा ने उसे घर से निकाल दिया। अब प्रह्लाद आर्यो की आवारा मण्डली के साथ रहने लगा, वह अव्वल नंबर का शराबी और नशाखोर बन गया था। परंतु मेरा (होलिका) स्नेह अपने भतीजे प्रह्लाद के प्रति बना ही रहा। मैं अक्सर राजा से छुपकर प्रह्लाद को खाना खिलाने जाती थी।
फागुन माह की पूर्णिमा थी। मेरा विवाह तय हो चुका था। फागुन पूर्णिमा के दूसरे दिन ही मेरी बारात आने वाली थी। मैंने सोचा कि आखिरी बार प्रह्लाद से मिल लूँ क्योंकि अगले दिन मुझे अपनी ससुराल जाना था। जब मैं प्रह्लाद को भोजन देने पहुंची तो प्रह्लाद नशे में इतना धुत था कि वह खुद को ही संभाल नहीं पा रहा था। फिर क्या था, प्रह्लाद की मित्र मण्डली (आर्यो) ने मुझे पकड़ लिया और मेरे साथ सामूहिक दुष्कर्म किया। इतना ही नहीं भेद खुलने के डर से उन लोगों ने मेरी हत्या भी कर दी और मेरी लाश को भी जला दिया।
जब मेरे भाई राजा हिरण्यकश्यप को यह बात पता चली तो उन्होंने मेरे हत्यारों को पकड़ लिया और उनके माथे पर तलवार की नोंक से “अवीर”(अ+वीर अर्थात कायर) लिखवा दिया तथा वहां उपस्थित प्रजा ने उनके मुख पर कालिख पोतकर, जूते-चप्पल की माला पहनाकर एवं गधे पर बैठाकर पूरे राज्य में जुलुस निकाला। जुलुस जिधर से भी जाता हर कोई उनपर कीचड़, मिट्टी कालिख फ़ेककर उन्हें ज़लील करता।
परंतु, आज समय के साथ दुराचारी आर्यो ने उस सच्चाई को छुपा दिया और उसका रूप बदलकर “होलिका दहन” और “होली का त्योहार” कर दिया। मेरे मूलनिवासी भाइयों! यह “अवीर” का टीका तो उन लोगों के लिए है, जो बहन-बेटियों के हत्यारे और बलात्कारी होते हैं। तो क्या अब भी आप अपनी बहन (होलिका) को जलायेंगे? अवीर (अ+वीर जो वीर न हो यानि कायर हो) का टीका लगायेंगे? और शोक के दिन जश्न (यानि होली का त्योहार) मनायेंगे?
मैं आप को आप के तर्क के लिए बधाई देता हूँ कि यदि राम, लक्ष्मण, कृष्ण, बलराम, कौरव, पांडव मिथक हैं, कल्पित पात्र हैं, तो कर्ण, शम्बूक, शेबरी, होलिका, बिदुर और एकलव्य यथार्थ कैसे हो उठे? लिखित कहानी के आधार पर जिसको वैज्ञानिक मान रहे हैं उसकी कहानी को काल्पनिक कह कर ख़ारिज क्यों कर रहे हैं? कँवल भारती जी का लेख, जो मिथकों के प्रति लिखा गया है, का लिखित विरोध इसीलिए किया कि सीता-राम यदि काल्पनिक हैं तो शम्बूक यथार्थ कैसे हो गया? जब पूरी रामायण और महाभारत गल्प है तो उसके पात्र दलित यथार्थ कैसे हो गए? जब राम-कृष्ण काल्पनिक हैं तो होलिका सत्य कैसे हो सकती है और कैसे यह तय कर लिया गया कि होली का प्रारंभ वहीं से हुआ है अथवा होलिका दहन व प्रह्लाद के कारण हुआ है? होली का प्रारम्भ फसलों की उपलब्धता पर आधारित क्यों नहीं मानते हैं। फसलों की उपलब्धता और परिवर्तित मौसम की वजह से मनुष्य खुश हुआ होगा तथा एक दूसरे से खुशियों-रंगों के साथ गले मिला होगा। होलिका और प्रह्लाद की कहानी वर्चस्ववादियों-ब्राह्मणवादियों ने वेद-पुराणों की तरह जबरदस्ती गढ़कर मूर्ख बनाने के लिए फिट कर लिया। लेकिन, दलित प्रतिक्रिया बस ऐतिहासिक ज्ञान को संज्ञान में न लेकर एक गलत प्रतिक्रिया में उलझता चला जा रहा है जो दलितों के अधिक दिनों तक के गुलामी का कारण बनेगा। दलित क्रांति विरोधी प्रक्रिया में फंस गया है।
दलितों ने होलिका का जो नया मिथक गढ़ा है वह स्पष्ट झूठा प्रतीत हो रहा है। मृत होलिका से दलित मिथककारों ने आत्मकथा के रूप में जो बात कहलवाई है उसका कहीं किसी पुस्तक में कोई प्रमाणिकता नहीं मिलती है। प्रमाणिकता की बात छोड़िए, सोचिए कि क्या मृत होलिका द्वारा उद्धृत बात सत्य है? यह दलित साथियों द्वारा जबरदस्ती प्रस्तुत कथा है जिसका कोई वैज्ञानिक तथ्य नहीं है। इस कहानी से दलित स्वयं अपने मिथक में फँस जाता है और कल को वह वैज्ञानिक आम्बेडकर व मार्क्स के विचारों की वकालत नहीं कर पाएगा। दलित साथियों ने होलिका बुआ का भतीजे प्रह्लाद पर जो आरोप मढ़ा है वह एक मूलनिवासी पर बहुत बड़ा नैतिक आरोप है। अभी तक के इतिहास में, चाहे वह रावण ही क्यों न हो, इतना अनैतिक कार्य नहीं किया है। अभी तक किसी दलित, कोल, भील, मूलनिवासी ने अनैतिक अपराध नहीं किया है लेकिन वर्तमान दलितों ने होलिका के पक्ष में अपने ही व्यक्ति को अनैतिकता के दायरे में खड़ा कर दिया। मूलनिवासी-आदिवासी आर्यों के झाँसे में जरूर फंसे लेकिन इतना बड़ा कलंक उनके ऊपर नहीं लगा कि कोई अपनी सगी बहन, बेटी, मौसी, काकी, माँ सादृश्य बुआ का ही बलात्कार किया हो एवं उसको जलाकर उसकी हत्या कर दी हो। हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के प्रतिरोध और सजा देने के बावजूद भी आर्य होलिका पर कहानी गढ़ने में कैसे सफल हो गए? इसका दलितों के पास कोई साक्ष्य नहीं है या कोई साक्ष्य क्यों नहीं गढ़ा है?
मैंने एक प्रश्न किया कि होली के संबंध में जिनका विचार साझे संस्कृति को लेकर है, वे किसका पक्ष लें, क्या करें? इसका जवाब यह तो नहीं हो सकता है कि मैं खिचड़ी बना रहा हूँ? कौन खिचड़ी बना रहा? और यह तो गुमराह करना नहीं है, प्रश्न है उनकी तरफ से जो साझी संस्कृति की बात करते हैं। जब तक आप पूँजीवादी व्यवस्था की रीड़ नहीं तोड़ देते हैं तब तक हिंदुओं के ब्राह्मणवादी त्यौहार, रीति, रिवाज़ व मानसिक शोषण के तौर तरीकों को कुछ भी नुकसान नहीं पहुँचा पाएंगे। हाँ, बुद्धिजीवी होने का ढोंग ओढ़े उम्र गुजार सकते हैं। दूसरे साथियों से नफ़रत करके दलित एक्टिविस्टों के दुश्मनों की संख्या में बढ़ोत्तरी कर सकते हैं। हम कोई ऐसा कार्य न करें जिससे क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों कार्यकर्ताओं की कमी होने पाए।
वैसे भी जब मार्क्सवादी मार्क्सवाद व कम्युनिज्म की बात करता है तो ब्राह्मणवाद की चूलें तो हिलती हैं लेकिन बहुत अफसोस से कहना पड़ता है कि दलित बुद्धिजीवी बहुत तेज भड़कता है और आरोप लगाता है कि कम्युनिज्म पर तो ब्राह्मणों का कब्ज़ा है। भारत में मार्क्सवाद सफल नहीं हो सकता है। आखिर क्यों सफल होगा जब जिसकी जरूरत है वह उसे पढ़ेगा ही नहीं, मानेगा ही नहीं। मार्क्सवाद नहीं पढ़ेंगे तो आप को ऐसे ही प्रतीत होगा। वैसे भी डॉ. आम्बेडकर का राजकीय समाजवाद और जातिप्रथा उन्मूलन पढ़कर भी ऐसे विचारों से मुक्त हुआ जा सकता है। नहीं तो दलित विचारधारा कुंठित ही रह जाएगा। उम्मीद है आप अपनी विचारधारा को हृष्टपुष्ट बनाने के लिए अपने सुचारु अध्ययन पर अधिक जोर देंगे; क्योंकि किसी व्यक्ति का अच्छा दोस्त अच्छी किताबें होती हैं।
समतामूलक स्थिति साम्यवाद के अतिरिक्त कहीं अन्यत्र नहीं मिल सकती है। और, रही त्यौहारों के मूल और उसके पीछे कहानियों के उद्घाटन की, तो हमें त्यौहारों के ऐतिहासिक विकासक्रम से रूबरू होना पड़ेगा, न कि वर्चस्ववादियों अथवा प्रतिक्रियावादियों के मनोगत व मिथकीय अवधारणाओं को सत्य मानते हुए हमें वैज्ञानिक विश्लेषणों से किनारा कर लेना चाहिए। आप को यह पता है कि मैं मूलतः मार्क्सवादी चिंतक व कार्यकर्ता हूँ, मैं डॉ. आम्बेडकर व दलितों के समस्याओं का हल भी मार्क्सवादी नज़रिए से ही तय करता हूँ।
हालांकि, मैं भी इस कथा का कायल नहीं हूँ। मैं होली को अच्छा त्यौहार नहीं मानता हूँ लेकिन उसकी वजह होलिका नहीं है बल्कि होली के दिन होने वाले बुरे व्यवहार-बुरी संस्कृतियाँ हैं। होलिका मिथक है। मिथक में भी कहीं होलिका की हत्या नहीं लिखी है। हाँ, दलित चिंतकों-लेखकों ने मिथक के विरुद्ध एक नया मिथक तैयार कर लिया है कि हिंदुओं ने होलिका की हत्या की है जबकि दलितों के इस मिथक का कहीं भी प्रमाण नहीं मिलता है। यह भी ब्राह्मण ग्रंथों की तरह झूठ का एक पुलिंदा है।
दलितों द्वारा यह प्रचार किया जा रहा है कि हिंदुओं, आर्यों, यूरेशियन ब्राह्मणों ने होलिका की हत्या करके एक स्त्री की हत्या की है। यह त्यौहार स्त्री विरोधी त्यौहार है। इसलिए, दलितों के साथ स्त्रियों को भी इस त्यौहार को नहीं मनाना चाहिए। अब देखना यह है कि स्त्रियों में स्त्रियों के कई प्रकार हैं; सवर्ण स्त्री, दलित स्त्री, अमीर स्त्री, गरीब स्त्री, देशी स्त्री, विदेशी स्त्री, हिन्दू स्त्री, मुसलमान स्त्री। इनके एक उद्देश्य कैसे हो सकते हैं? एक स्त्री का उद्देश्य दूसरे के विरुद्ध है; फिर कोई त्यौहार संपूर्ण स्त्री विरोधी कैसे हो सकता है? होली दलित स्त्री की हत्या का त्यौहार हो सकता है तो वह सवर्ण स्त्री के हक़ का त्यौहार होगा। सवर्ण स्त्रियां इस बात से खुश होंगी कि एक अवर्ण राक्षस जाति की स्त्री का वध कर दिया गया। जाति और वर्ग स्त्रियों में भी है इसलिए घटनाएं जाति, धर्म और वर्ग सापेक्ष सत्य होंगी।
रही बात स्त्री हत्या की, तो इसके पीछे अच्छाई और बुराई जैसे विचारधारा की बात निहित है। उन लोगों ने बुराई के रूप में स्त्री को जलकर ख़ाक होने की बात प्रमाणित की है। ठीक वैसे ही जैसे दलित ब्राह्मणों पर आरोप लगा रहा है कि ब्राह्मण धर्म ने दलित स्त्री की हत्या की है जिस पर ब्राह्मण विजय के रूप में होली का त्यौहार मनाया जा रहा है।
हम दलित ब्राह्मणों धर्म ग्रंथों में उल्लिखित इस विचारधारा को खंडित करते हुए उनको लांक्षित करते हैं तथा स्त्री हत्या का आरोप लगाकर होली के त्यौहार को नापाक घोषित करते हैं। न्यायिक प्रक्रिया में दलितों का यह आरोप उचित है। लेकिन, स्त्री हत्या के और भी कई प्रकार-रूप हैं जहाँ दलित और ब्राह्मण के एक रूप हैं, कोई भी भिन्नता नहीं है। स्त्री शोषण को लेकर दलित-ब्राह्मण में कोई भिन्नता नहीं है। दलित अपनी स्त्रियों को ब्राह्मण स्त्रियों से कुछ भी भिन्न नहीं रखता है क्योंकि दोनों ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पोषक हैं, दोनों पूँजीवादी व्यवस्था के निर्मम शिकार हैं। दलित और ब्राह्मण स्त्रियों के जीवन, शिक्षा, संस्कृति में कोई अंतर नहीं है। फिर, दलितों को स्त्री पक्ष में और दलीलें और मिथक तैयार करने पड़ जाएंगे।
मैं कात्यायिनी जी के एक लेख का सहारा लेते हुए आप सभी को त्यौहारों के सत्यता पर प्रकाश डालता हूँ। त्यौहारों का जन्म कृषि-आधारित पुरातन समाजों में फसलों की बुवाई और कटाई के मौसमों पर आधारित था। ये सामूहिक जन-उल्लास के संस्थाबद्ध रूप थे। जादुई विश्वदृष्टिकोण और प्राकृतिक शक्तियों के अभ्यर्थना के आदिम काल में इन त्यौहारों के साथ टोटकों की कुछ सामूहिक क्रियाएं जुड़ी हुई थीं। फिर संस्थाबद्ध धर्मों ने शासक वर्गों के हितों के अनुरूप इन त्यौहारों का पुन:संस्कार और पुनर्गठन किया और इनके साथ तरह-तरह की धार्मिक मिथकीय कथाऍ और अनुष्ठान जोड़ दिये गये। इसके बावजूद प्राक् पूँजीवादी समाजों में आम उत्पादक जन समुदाय इन त्यौहारी उत्सवों को काफी हद तक अपने ढंग से मनाता रहा। त्यौहार आम उत्पीडि़तों के लिए काफी हद तक सामूहिकता का जश्न बने रहे। जिन्दगी भर उत्पीड़न का बोझ ढ़ोने वाले लोग कम से कम एक दिन कुछ खुश हो लेते थे, कुछ गा-बजा और नाच लेते थे।
लेकिन, पूँजी की चुड़ैल ने आम लोगों के जीवन का यह रस भी चूस लिया। जीवन में हर चीज माल में तब्दील हो गयी और सबकुछ बाजार के मातहत हो गया। होली-दिवाली-दशहरा– सभी त्योहार समाज में अमीरों के लिए ‘स्टेटस सिंबल’ बनकर रह गये हैं। जिसकी गॉंठ में जितना पैसा, उसका त्यौहार उतना ही रौशन और रंगीन। आम लोगों के लिए तो त्यौहार बस भीषण तनाव ही लेकर आते हैं। थोड़े दिये जला लेने और पटाखे फोड़ लेने या थोड़ा अबीर-गुलाल लगा लेने और गुझिया खा लेने की बच्चों की चाहत पूरा करने में और थोड़ी बहुत सामाजिक औपचारिकताएं पूरी करने के दबाव में गरीब मेहनतकशों और निम्न मध्यवर्ग के लोगों का सारा कसबल निकल जाता है। जो अमीर लोग त्यौहार जोर-शोर से मनाते हैं, उन्हें भी सारी खुशी वास्तव में अपनी दौलत की नंगी नुमाइश से ही मिलती है। पूँजीवादी समाज में श्रम-विभाजन से पैदा होने वाले सर्वग्रासी अलगाव (एलियनेशन) ने सामूहिकता की भावना को विघटित करके उत्सवों के प्राणरस को ही सोख लिया है। अलगाव के शिकार केवल उत्पादक मेहनतकश ही नहीं हैं, बल्कि उससे भी अधिक परजीवी समृद्धशाली तबके हैं। जो पूँजी को लगाम लगाकर सवारी करना चाहते हैं, उल्टे पूँजी उन्हीं की पीठ पर सवार होकर उनकी सवारी करने लगती है। एक सामाजिक प्राणी के रूप में खुशी मनुष्य को केवल सामूहिक रूप से मिलती है। सामूहिकता से वंचित दौलतमंद परजीवी एक शापित मनुष्य होता है जो केवल अपनी दौलत-हैसियत के प्रदर्शन से खुशी पाने की मिथ्याभासी चेतना का शिकार होता है या फिर एक ऐसा ” सभ्य पशु” होता है जो तरह-तरह से खा-पीकर, तरह-तरह से यौन क्षुधा को तुष्ट करके और रुग्ण फन्तासियों में जीकर खुश होने की आदत डाल लेता है।
आम जनता के लिए त्यौहारों की अप्रासंगिकता का एक और ऐतिहासिक कारण है। ज्यादातर त्यौहार कृषि-उत्पादन की प्रधानता के युग के त्योहार हैं। कारखाना-उत्पादन की प्रधानता और कृषि-उत्पादन के मशीनीकरण तथा फसलों के बदलते मौसम, पैटर्न और व्यवसायीकरण के युग में इन त्योहारों के आनन्द का मूल स्रोत सूख चुका है। पश्चिमी देशों में ‘पुनर्जागरण-प्रबोधन-जनवादी क्रान्ति’ की प्रक्रिया में जब पूँजीवाद आया तो उसने सामूहिक नृत्य, सामूहिक संगीत (ऑपेरा, बैले, सिम्फनी संगीत के कंसर्ट आदि), आधुनिक नाटक आदि के साथ सामूहिक जश्न के तमाम रूप विकसित किये तथा कुछ प्राचीन एवं मध्ययुगीन त्यौहारों का भी पुन:संस्कार करके उनके धार्मिक अनुष्ठान वाले पक्ष को गौण बना दिया और सामूहिक उत्सव के पहलू को प्रधान बना दिया। हालांकि, उन पश्चिमी समाजों में भी बढ़ती पूँजीवादी रुग्णताओं ने सामूहिकता के उत्सवों की आत्मा को मरणासन्न बना दिया है। फिर भी उन समाजों के सामाजिक ताने-बाने में इतने जनवादी मूल्य रचे-बसे हैं कि स्त्री-पुरुष खास मौकों पर फिर भी सड़कों पर निकलकर गा-बजा-नाच लेते हैं, खाते और पीते हैं।
भारत जैसे उत्तर-औपनिवेशिक समाज में पूँजीवाद भी जनवादी क्रान्ति के रास्ते नहीं, बल्कि एक क्रमिक प्रक्रिया से आया। इन जन्मना रुग्ण-विकलांग पूँजीवाद ने जनता को सामूहिकता के उत्सव को कोई भी नया रूप नहीं दिया–न तो सामूहिक जीवन में, न ही कला में। पुराने मध्ययुगीन धार्मिक आयोजनों को ही थोड़ा संशोधित-परिष्कृत करके अपना लिया गया, जिनका एक धार्मिक पहलू था, दूसरा पूँजीवादी दिखावे और बाजार का पहलू था। त्यौहारों के इस धार्मिक पहलू का इस्तेमाल राष्ट्रीय आन्दोलन के जमाने में रूढि़वादी और पुनरुत्थानवादी राष्ट्रवादियों ने किया और आज इनका इस्तेमाल मुख्यत: धार्मिक कट्टरपंथी फासिस्ट कर रहें हैं। त्यौहारों के पूँजीवादी सामाजिक आचार वाला पहलू नव-उदारवाद के दशकों के दौरान हमारे सामाजिक जीवन के पूरे वितान पर छा गया है और रंध्र-रंध्र में घुस गया है।
अब पुराने त्यौहारों का पुन:संस्कार करके उन्हें सामूहिकता के ऊर्जस्वी-आवेगमय, आनन्दोल्लास से भरपूर उत्सवों में रूपान्तरित कर पाना सम्भव नहीं रह गया है। मजदूर वर्ग के हरावलों को वर्गसंघर्ष के प्रबल वेगवाही झंझावात का फिर से आवाहन करते हुए सचेतन तौर पर सामूहिकता के जश्न के अपने नये-नये रूप ठीक उसी प्रकार ईजाद करने होंगे, जिस प्रकार उन्हें सर्वहारा वर्गीय सामूहिक वाद्य संगीत, स्वर संगीत (केवल लोकप्रिय ही नहीं बल्कि शास्त्रीय भी), थियेटर, सिनेमा आदि के नये-नये रूपों का संधान करना होगा। वर्ग संघर्ष का रूप आज लम्बे समय तक जारी रहने वाले अवस्थितिगत युद्ध (‘पोजीशनल वारफेयर’) का हो चुका है। इस ‘पोजीशनल वारफेयर’ के दौरान शत्रु ने अपनी खंदके खोद रखी हैं और हमें भी अपनी खंदकें खोदनी होंगी और बंकर बनाने होंगे। यानी हमें भी अपनी समांतर संस्थाऍं विकसित करनी होगी, सामूहिक सांस्कृतिक-सामाजिक आयोजनों, उत्सवों के वैकल्िपक रूप विकसित करने होंगे। यह प्रक्रिया तृणमूल स्तर पर लोकसत्ता के वैकल्िपक रूपों के भ्रूणों के विकास से अविभाज्यत: जुड़ी हुई होगी। सर्वहारा के दूरदर्शी हरावलों को जनसमुदाय की पहलकदमी को संगठित करने के नानाविध प्रयासों के साथ-साथ अक्टूबर क्रान्ति दिवस, मई दिवस, भगतसिंह-राजगुरु-सुखदेव जैसे क्रान्तिकारियों के शहादत दिवस आदि-आदि अवसरों पर घिसे-िपटे रुटीनी आयोजनों से आगे बढ़कर मेले, कार्निवाल, उत्सव, त्यौहार के विविध नये-नये रूप विकसित करने चाहिए। सांस्कृतिक टोलियों को प्रचारात्मक लोकप्रिय प्रस्तुतियों और कार्यक्रमों के दायरों से बाहर आना होगा और स्टेज-कंसर्ट के साथ ही स्ट्रीट कंसर्ट के नये-नये रूप, थियेटर के नये-नये प्रयोग आदि विकसित करने होंगे।
संघर्षरत जीवन को भी सर्जनात्मकता का उत्प्रेरण चाहिए। उत्पीडि़त निराश लोगों को और विद्रोह के लिए उठ खड़े हुए लोगों को–दोनों के ही जीवन में मनोरंजन का, उत्सव का स्थान होना चाहिए। क्रान्तिकारी परिवर्तन चन्द दिनों का काम नहीं है। यह हू ब हू सामरिक युद्ध जैसा नहीं हो सकता। यह जीवन जैसा होता है। जीने का यह तरीका है। क्रान्ति में लगे लोगों के अपने उत्सव और कार्निवाल होने चाहिए और जिन्हे क्रान्ति की जरूरत है, उन ‘धरती के अभागों’ को भी यदि खुशी मनाने के लिए, सर्जनात्मक ऊर्जा हासिल करने के लिए, उम्मीदों की फिर से खोज के लिए प्रेरित करने के लिए, नये-नये भविष्य-स्वप्न देने के लिए सामूहिकता के नये-नये उत्सवों के, कार्निवालों के रूप नहीं विकसित किये जायेंगे, तो वे अतीत की सामूहिकता की पुनर्प्राप्ति की मृगमरीचिका में जीते रहेंगे, धार्मिक मिथ्याभासी चेतना को शरण्य बनाते रहेंगे और धार्मिक कट्टरपंथी आखेटकों और मुनाफाखोर परभक्षियों के आखेट बनते रहेंगे।
इसलिए, दलितों को कभी भी अलगाव की स्थिति में नहीं जीना चाहिए। यदि दलित अलगाव की स्थिति में जीता है तो इसका अर्थ यह है कि वह बहुसंख्य क्रांतिकारी लोगों से दूर होता चला जा रहा है। दलित वर्चस्ववादियों की जड़ें कमजोर करता हुआ उस वर्ग से नाता न तोड़े जिसको इनके विरुद्ध हथियार उठाना है। वर्चस्ववादी हमेशा ऐसा मिथक गढ़ता है कि क्रांतिकारी वर्ग आपस में जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, रीति, रिवाज़, शिक्षा, संस्कृति के आधार पर बंता रहे, बंटता चलता रहे। आज दलित होली, दीवाली और अन्य हिन्दू त्यौहारों के नाम पर न सिर्फ हिन्दू कट्टरपंथियों से अलग हो रहा है, बल्कि हिन्दू मतावलंबी आम जनता से अलग होकर उसके विरुद्ध भी खड़ा होता जा रहा है जिससे वर्चस्ववादियों के हाथों को दलित अनजाने ही मजबूत करता जा रहा है।
आर डी आनंद
एल-1316, आवास विकास कॉलोनी,
बेनीगंज, फैज़ाबाद
मो.9451203713