आज अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस है।महात्मा गांधी जी ने कहा था कि किसी देश की तरक्की उस देश के कामगारों और किसानों पर निर्भर करती है।कुछ कवियों ने उन्हीं कामगारों को अपनी कविता का विषय बनाया।उनमें से कुछ कवियों की कविताओं को लेकर ये संग्रह तैयार किया गया है।ये संग्रह सभी कामगारों के साथ कोरोना वीरों को समर्पित है।
(१). मजदूर का जन्म – केदारनाथ अग्रवाल
” एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ !
हाथी सा बलवान,
जहाजी हाथों वाला और हुआ !
सूरज-सा इन्सान,
तरेरी आँखोंवाला और हुआ !!
एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ!
माता रही विचार,
अँधेरा हरनेवाला और हुआ !
दादा रहे निहार,
सबेरा करनेवाला और हुआ !!
एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ !
जनता रही पुकार,
सलामत लानेवाला और हुआ !
सुन ले री सरकार!
कयामत ढानेवाला और हुआ !!
एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ !”
(२). मैं वहाँ हूँ – अज्ञेय
“यह जो मिट्टी गोड़ता है, कोदई खाता है और गेहूँ खिलाता है
उस की मैं साधना हूँ।
यह जो मिट्टी फोड़ता है, मडिय़ा में रहता है और महलों को बनाता है
उसी की मैं आस्था हूँ।
यह जो कज्जल-पुता खानों में उतरता है
पर चमाचम विमानों को आकाश में उड़ाता है,
यह जो नंगे बदन, दम साध, पानी में उतरता है
और बाज़ार के लिए पानीदार मोती निकाल लाता है,
यह जो कलम घिसता है, चाकरी करता है पर सरकार को चलाता है
उसी की मैं व्यथा हूँ।
यह जो कचरा ढोता है,
यह झल्ली लिये फिरता है और बेघरा घूरे पर सोता है,
यह जो गदहे हाँकता है, यह तो तन्दूर झोंकता है,
यह जो कीचड़ उलीचती है,
यह जो मनियार सजाती है,
यह जो कन्धे पर चूडिय़ों की पोटली लिये गली-गली झाँकती है,
यह जो दूसरों का उतारन फींचती है,
यह जो रद्दी बटोरता है,
यह जो पापड़ बेलता है, बीड़ी लपेटता है, वर्क कूटता है,
धौंकनी फूँकता है, कलई गलाता है, रेढ़ी ठेलता है,
चौक लीपता है, बासन माँजता है, ईंटें उछालता है,
रूई धुनता है, गारा सानता है, खटिया बुनता है
मशक से सड़क सींचता है,
रिक्शा में अपना प्रतिरूप लादे खींचता है,
जो भी जहाँ भी पिसता है पर हारता नहीं, न मरता है-
पीडि़त श्रमरत मानव
अविजित दुर्जेय मानव
कमकर, श्रमकर, शिल्पी, स्रष्टा-
उस की मैं कथा हूँ।”
(३). उठ किसान ओ / त्रिलोचन
“उठ किसान ओ, उठ किसान ओ,
बादल घिर आए हैं
तेरे हरे-भरे सावन के
साथी ये आए हैं
आसमान भर गया देख तो
इधर देख तो, उधर देख तो
नाच रहे हैं उमड़-घुमड़ कर
काले बाल तनिक देख तो
तेरे प्राणों में भरने को
नए राग लाए हैं
यह संदेशा लेकर आई
सरस मधुर, शीतल पूरवाई
तेरे लिए, अकेले तेरे
लिए, कहाँ से चलकर आई
फिर वे परदेसी पाहुन, सुन,
तेरे घर आए हैं
उड़ने वाले काले जलधर
नाच-नाच कर गरज-गरज कर
ओढ़ फुहारों की सीत चादर
देख उतरे हैं धरती पर
छिपे खेत में, आँखमिचौनी
सी करते हैं
हरा खेत जब लहराएगा
हरी पताका जब फहराएगा
छिपा हुया बादल तब उसमें
रूप बदलकर मुसकाएगा
तेरे सपनों के ये मीठे
गीत आज छाए हैं।”
(४). ये अनाज की पूलें तेरे काँधें झूलें – माखनलाल चतुर्वेदी
“ये अनाज की पूलें तेरे काँधें झूलें
तेरा चौड़ा छाता
रे जन-गण के भ्राता
शिशिर, ग्रीष्म, वर्षा से लड़ते
भू-स्वामी, निर्माता !
कीच, धूल, गन्दगी बदन पर
लेकर ओ मेहनतकश!
गाता फिरे विश्व में भारत
तेरा ही नव-श्रम-यश !
तेरी एक मुस्कराहट पर
वीर पीढ़ियाँ फूलें ।
ये अनाज की पूलें
तेरे काँधें झूलें !
इन भुजदंडों पर अर्पित
सौ-सौ युग, सौ-सौ हिमगिरी
सौ-सौ भागीरथी निछावर
तेरे कोटि-कोटि शिर !
ये उगी बिन उगी फ़सलें
तेरी प्राण कहानी
हर रोटी ने, रक्त बूँद ने
तेरी छवि पहचानी !
वायु तुम्हारी उज्ज्वल गाथा
सूर्य तुम्हारा रथ है,
बीहड़ काँटों भरा कीचमय
एक तुम्हारा पथ है ।
यह शासन, यह कला, तपस्या
तुझे कभी मत भूलें ।
ये अनाज की पूलें
तेरे काँधें झूलें !”
(५). तोड़ती पत्थर – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
“वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
“मैं तोड़ती पत्थर।”
(६). हम मेहनतकश जब अपना हिस्सा मांगेंगे -फैज अहमद फैज
“हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे.
यां पर्वत-पर्वत हीरे हैं, यां सागर-सागर मोती हैं
ये सारा माल हमारा है, हम सारा खजाना मांगेंगे.
वो सेठ व्यापारी रजवाड़े, दस लाख तो हम हैं दस करोड
ये कब तक अमरीका से, जीने का सहारा मांगेंगे.
जो खून बहे जो बाग उजड़े जो गीत दिलों में कत्ल हुए,
हर कतरे का हर गुंचे का, हर गीत का बदला मांगेंगे.
जब सब सीधा हो जाएगा, जब सब झगडे मिट जाएंगे,
हम मेहनत से उपजाएंगे, बस बांट बराबर खाएंगे.
हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे.”
(७). घिन तो नहीं आती है – नागार्जुन
” पूरी स्पीड में है ट्राम
खाती है दचके पै दचके
सटता है बदन से बदन
पसीने से लथपथ ।
छूती है निगाहों को
कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान
बेतरतीब मूँछों की थिरकन
सच सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है?
जी तो नहीं कढता है?
कुली मज़दूर हैं
बोझा ढोते हैं, खींचते हैं ठेला
धूल धुआँ भाप से पड़ता है साबका
थके मांदे जहाँ तहाँ हो जाते हैं ढेर
सपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन
आकर ट्राम के अन्दर पिछले डब्बे मैं
बैठ गए हैं इधर उधर तुमसे सट कर
आपस मैं उनकी बतकही
सच सच बतलाओ
जी तो नहीं कढ़ता है?
घिन तो नहीं आती है?
दूध-सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा
निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने
बैठना है पंखे के नीचे, अगले डिब्बे मैं
ये तो बस इसी तरह
लगाएंगे ठहाके, सुरती फाँकेंगे
भरे मुँह बातें करेंगे अपने देस कोस की
सच सच बतलाओ
अखरती तो नहीं इनकी सोहबत?
जी तो नहीं कुढता है?
घिन तो नहीं आती है?”
(८). श्रमिक – रांगेय राघव
“वे लौट रहे
काले बादल
अंधियाले-से भारिल बादल
यमुना की लहरों में कुल-कुल
सुनते-से लौट चले बादल
‘हम शस्य उगाने आए थे
छाया करते नीले-नीले
झुक झूम-झूम हम चूम उठे
पृथ्वी के गालों को गीले
‘हम दूर सिंधु से घट भर-भर
विहगों के पर दुलराते-से
मलयांचल थिरका गरज-गरज
हम आए थे मदमाते से
‘लो लौट चले हम खिसल रहे
नभ में पर्वत-से मूक विजन
मानव था देख रहा हमको
अरमानों के ले मृदुल सुमन
जीवन-जगती रस-प्लावित कर
हम अपना कर अभिलाष काम
इस भेद-भरे जग पर रोकर
अब लौट चले लो स्वयं धाम
तन्द्रिल-से, स्वप्निल-से बादल
यौवन के स्पन्दन-से चंचल
लो, लौट चले मा~म्सल बादल
अँधियाली टीसों-से बादल।”
(९). फसल – केदारनाथ सिंह
“मैं उसे बरसों से जानता था–
एक अधेड़ किसान
थोड़ा थका
थोड़ा झुका हुआ
किसी बोझ से नहीं
सिर्फ़ धरती के उस सहज गुरुत्वाकर्षं से
जिसे वह इतना प्यार करता था
वह मानता था–
दुनिया में कुत्ते बिल्लियाँ सूअर
सबकी जगह है
इसलिए नफ़रत नहीं करता था वह
कीचड़ काई या मल से
भेड़ें उसे अच्छी लगती थीं
ऊन ज़रूरी है–वह मानता था
पर कहता था–उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है
उनके थनों की गरमाहट
जिससे खेतों में ढेले
ज़िन्दा हो जाते हैं
उसकी एक छोटी-सी दुनिया थी
छोटे-छोटे सपनों
और ठीकरों से भरी हुई
उस दुनिया में पुरखे भी रहते थे
और वे भी जो अभी पैदा नहीं हुए
महुआ उसका मित्र था
आम उसका देवता
बाँस-बबूल थे स्वजन-परिजन
और हाँ, एक छोटी-सी सूखी
नदी भी थी उस दुनिया में-
जिसे देखकर– कभी-कभी उसका मन होता था
उसे उठाकर रख ले कंधे पर
और ले जाए गंगा तक–
ताकि दोनों को फिर से जोड़ दे
पर गंगा के बारे में सोचकर
हो जाता था निहत्था!
इधर पिछले कुछ सालों से
जब गोल-गोल आलू
मिट्टी फ़ोड़कर झाँकने लगते थे जड़ों से
या फसल पककर
हो जाती थी तैयार
तो न जाने क्यों वह– हो जाता था चुप
कई-कई दिनों तक
बस यहीं पहुँचकर अटक जाती थी उसकी गाड़ी
सूर्योदय और सूर्यास्त के
विशाल पहियोंवाली
पर कहते हैं–
उस दिन इतवार था
और उस दिन वह ख़ुश था
एक पड़ोसी के पास गया
और पूछ आया आलू का भाव-ताव
पत्नी से हँसते हुए पूछा–
पूजा में कैसा रहेगा सेंहुड़ का फूल?
गली में भूँकते हुए कुत्ते से कहा–
‘ख़ुश रह चितकबरा,
ख़ुश रह!’
और निकल गया बाहर
किधर?
क्यों?
कहाँ जा रहा था वह–
अब मीडिया में इसी पर बहस है
उधर हुआ क्या
कि ज्यों ही वह पहुँचा मरखहिया मोड़
कहीं पीछे से एक भोंपू की आवाज़ आई
और कहते हैं– क्योंकि देखा किसी ने नहीं–
उसे कुचलती चली गई
अब यह हत्या थी
या आत्महत्या–इसे आप पर छोड़ता हूँ
वह तो अब सड़क के किनारे
चकवड़ घास की पत्तियों के बीच पड़ा था
और उसके होंठों में दबी थी
एक हल्की-सी मुस्कान!
उस दिन वह ख़ुश था।”
(१०). ठाकुर का कुँआ – ओमप्रकाश वाल्मीकि
चूल्हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का
भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का
बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फसल ठाकुर की
कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मोहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या?
गांव?
शहर?
देश?”
(११). गुलाम देश का मजदूर गीत – दिविक रमेश
“एक और दिन बीता
बीत क्या
जीता है पहाड़-सा
अब
सो जाएँगे
थककर।
टूटी देह की
यह फूटी बीन-सी
कोई और बजाए
तो बजा ले
हम क्या गाएँ ?
हम तो
सो जाएँगे
थककर।
कल फिर चढ़ना है
कल फिर जीना है
जाने कैसा हो पहाड़ ?
फिर उतरेंगे
बस यूँ ही
अपने तो
दिन बीतेंगे।
सच में तो
ज़िन्दगी भर हम
अपना या औरों का
पहाड़ ही ढोते हैं।
बस
ढोते
रहते हैं।
सुना है
हमारी मेहनत के गीत
कुछ निठल्ले तक गाते हैं।
सुना है
हमारे भविष्य की कल्पना में
कुछ जन
कराहते हैं।
कुछ तो
जाने किस उत्साह में
हमारे वर्तमान ही को
हमसे झुठलाते हैं।
हमारा भविष्य तो
खुद
हमारा बच्चा भी नहीं होता।
पेट में ही जो
ढोने लगता हो ईंटें।
पेट में ही जो
मथने लगता हो गारा।
पेट में ही जिसको
सिखा दिया हो
सलाम बजाना।
पहले ही दिन से
खुद जिसने
शुरू कर दिया हो
कमाना।
कोई स्वप्न गुनगुनाए
तो गुनगुना ले
वर्ना
हमारा बच्चा भी
हमारा भविष्य
नहीं होता।
होता होगा
होगा किसी का भविष्य
किसी के देश का
किसी के समाज का
लेकिन
हमारा नहीं होता।
होगा भी कैसे
हमारी परम्परा में
खुद हम कभी
अपना
भविष्य नहीं हुए।
हम तो बस
सीने पर रख
महान उपदेशों को
सो जाते हैं
थककर।
इतना ही क्या
काफी नहीं
कि एक दिन और
बीत गया
पहाड़-सा।
अब रात आयी है
सुख भरी रात
कौन गंवाए इसे।
सुबह तो ससुरी
रोज
भूख ही लगाती है
क्यों करें प्यार
फिर ऐसी सुबह से ?
कैसे थिरक उठे पाँव
कैसे गाएँ ये कंठ
कैसे मनाएँ खुशियाँ
सरकारी उत्सवों में
नाचते
नचभैयों-से।
कहाँ है आजाद
यह गुलाम देश
और कहाँ हैं आजाद
ये हम?
आजादी की परख
देश की सुबह से होती है
और सुबह तो हर रोज
काम पर
भूखा ही भगाती है।
पर चलो
एक दिन और बीता
बीता क्या
जीता है पहाड़-सा
अब
सो जाएँगे
थककर।”
(१२). कुदाल की जगह – कुमार मुकुल
“सायबर सिटी की व्यस्ततम सड़क पर
भटकता बढ़ा जा रहा था श्रमिक जोड़ा
आगे पुरुष के कन्धे पर
नुकीली, वज़नी, पठारी खंती थी
पीछे स्त्री के सिर पर
छोटी-सी पगड़ी के ऊपर
टिकी थी
स्वतन्त्र कुदाल
कला दीर्घाओं में
स्त्रियों के सर पर
कलात्मकता से टिके मटके देख
आँखें विस्फारित हो जाती थीं मेरी
पर कितना सहज था वह दृश्य
अब केदारनाथ सिंह मिलें
तो शायद मैं उन्हें बता सकूँ
कि कुदाल की सही जगह
ड्राइंगरूम में नहीं
एक गतिशील सर पर होती है।”
(१३). मज़दूर बच्चों का गीत – रमेश रंजक
“माँ ! हम तो मज़दूर बनेंगे ।
अपने हाथों की मेहनत से
अपने-अपने पेट भरेंगे ।।
जॊ जीता मेहनत के बल पर
उसकी इज़्ज़त होती घर-घर
माँ ! तेरी सौगन्ध हमें, हम
मेहनतकश होकर उभरेंगे ।
माँ ! हन तो मज़दूर बनेंगे ।।
इस युग में मेहनत का परचम
उत्तर-दक्खिन, पूरब-पच्छिम
लहराएगा निर्भय होकर
ऐसे-ऐसे काम करेंगे ।
माँ ! हम तो मज़दूर बनेंगे ।।
जिनको मेहनत से नफ़रत है
उन पर लानत है, लानत है
हम इस युग के बने नमूने
इतनी तेज़ रोशनी देंगे ।
माँ ! हम तो मज़दूर बनेंगे ।।”
(१४) . हम मज़दूर-किसान – रामकुमार कृषक
“हम मज़दूर-किसान… हम मज़दूर-किसान…
हम मज़दूर-किसान रे भैया हम मज़दूर-किसान…
हम जागे हैं अब जागेगा असली हिन्दुस्तान
हम मज़दूर किसान… हम मज़दूर किसान…
अपनी सुबह सुर्ख़रू होगी अन्धेरा भागेगा
हर झुग्गी अँगड़ाई लेगी हर छप्पर जागेगा
शोषण के महलों पर मेहनतकश गोली दागेगा
शैतानों से बदला लेगी धरती लहू-लुहान…
हम मज़दूर किसान… हम मज़दूर किसान…
मिल-मज़दूर और हलवाहे मिलकर संग चलेंगे
खोज-खोज डँसनेवाले साँपों के फन कुचलेंगे
ख़ुशहाली को नई ज़िन्दगी देने फिर मचलेंगे
मुश्किल से टकराकर होगी हर मुश्किल आसान…
हम मज़दूर किसान… हम मज़दूर किसान…
हरी-भरी अपनी धरती पर अपना अम्बर होगा
नदियों की लहरों-सा जीवन कितना सुन्दर होगा
सबसे ऊँचा सबसे ऊपर मेहनत का सिर होगा
छीन नहीं पाएगा कोई बच्चों कि मुस्कान…
हम मज़दूर किसान… हम मज़दूर किसान…”
(१५). लोकगीत – प्रेमशंकर शुक्ल
“मेरे कंठ ने अभी जिस
सुगंधित-कोमल लोकगीत का
स्पर्श पाया। वह एक मेहनतकश सुंदर स्त्री के
होंठ से फूटा है पहली बार।
इस गीत में जो घास गंध है,
पानी-सी कोमलता, आकाश जितना अथाहपन
और हरी-भरी धरती की आकांक्षा
स्वप्न की जगह सुंदर और यथार्थ से
जूझने की इतनी ताक़त। इन सब से
लगता है कि स्त्री ही जन्म दे सकती है
ऎसे गीत को।
लय की मिठास के साथ
गीत में धीरज का निर्वाह
बढ़ा देता है और विश्वास
कि मेहनतकश सुंदर स्त्री ही
सिरज सकती है यह गीत
स्त्रियाँ ही जिसे संजोकर लाई हैं
इतनी दूर!”
(१६). ओ किसान – भास्कर चौधुरी
“तुम्हारे गालों पर जो गड्ढे हैं
छोटे-बड़े
ये जो रेखाएँ हैं
आड़ी-तिरछी
माथे पर
ये जो उग आए हैं
खूटों से
दाढ़ी तुम्हारी
तुम्हारे खेतों की तरह ही तो दिखते हैं…
ये जो आँसू है
भरे हुए लबालब
तुम्हारी खाली सूनी आँखों में
बेमौसम बारिश से जैसे खेत
चौपट जिसके नीचे खड़ी फसल
पहले भी तो
हुआ ऐसा बारों-बार
सूखी-सूखी धरती जब
बारिश ने धता बता दिया
पहले भी तो
हुआ ऐसा बारों-बार
जब पश्चिम में उठा बवंडर
और पूरब में पत्थर पड़े
पड़ी बारिश की मार
तब तुमने हाथों को दोनों
गालों पर रखा
उकड़ूँ होकर बैठ गए तुम
वहीं मेड़ पर
तब भी तुमनें डालों को देखा था
हरा-भरा जो पेड़ खड़ा था
जो तूफानों को झेल चुका था
केरियाँ जिसकी सारी झड़ चुकी थी
फिर भी वह अड़ा पड़ा था
ओ किसान!
भूल गए तुम
तुम्हारे ही हाथों तो
उस पेड़ का नन्हा बीज पड़ा था…
आज उसी पेड़ की डगाल
जो झुकी हुई
तुम्हारे ही खेत की ओर
गमछे के फंदे से
लटक गए तुम
खुली चौड़ी आँखें तुम्हारी
देख रही किस ओर…
ओ किसान!!”
(१७). वह मजदूर – नीरजा हेमेन्द्र
“दूर-दूर तक फैले हुए
गन्ने के खेत
आसमान का वितान
झाँकता हुआ पीतवर्णी
सूरज/अग्निवर्शा
परिश्रम करती
सूखी खाल वाली
दो हथेलियाँ
मिट्टी, झाड़-झंखाड़ से
अद्वितीय प्रेम करता
तालबद्ध हो जाता है वह
पसीने से सिंचित भूमि
लहरायेंगी हरी फसलें
वह आयेगा
कुछ लोगों के साथ
फसलें कट जायेंगी
बुढ़ाया शरीर
आसमान ताकतीं
बूढ़ी आँखें
प्रतीक्षा करेंगी
आकाश गंगा से निकलते
प्रकाश पुंज का
आकाश पटल से उठेगा
वात-बवण्डर
क्षणिक आवेग को ले जाएगा
कहीं दूर… दूर… … दूर…
इर्द-गिर्द रह जाएंगी
गन्ने की कोपलें
कुछ सूखे पत्ते
मिट्टी, झाड़-झंखाड़
उसका परिश्रम
उसका पसीना।”
(१८). श्रमिक – महेन्द्र भटनागर
“टिकी नहीं है
शेषनाग के फन पर धरती !
हुई नहीं है उर्वर
महाजनों के धन पर धरती !
सोना-चांदी बरसा है
नहीं ख़ुदा की मेहरबानी से,
दुनिया को विश्वास नहीं होता है
झूठी ऊलजलूल कहानी से !
सारी ख़ुशहाली का कारण,
दिन-दिन बढ़ती
वैभव-लाली का कारण,
केवल श्रमिकों का बल है !
जिनके हाथों में
मज़बूत हथौड़ा,
हँसिया,
हल है !
जिनके कंधों पर
फ़ौलाद पछाड़ें खाता है,
सूखी हड्डी से टकराकर
टुकड़े-टुकड़े हो जाता है !
इन श्रमिकों के बल पर ही
टिकी हुई है धरती,
इन श्रमिकों के बल पर ही
दीखा करती है
सोने-चांदी की ‘भरती’ !
इनकी ताक़त को
दुनिया का इतिहास बताता है !
इनकी हिम्मत को
दुनिया का विकसित रूप बताता है !
सचमुच, इनके क़दमों में
भारीपन खो जाता है !
सचमुच, इनके हाथों में
कूड़ा-करकट तक आकर
सोना हो जाता है।
इसीलिए
श्रमिकों के तन की क़ीमत है !
इसीलिए
श्रमिकों के मन की क़ीमत है !
श्रमिकों के पीछे दुनिया चलती है ;
जैसे पृथ्वी के पीछे चांद
गगन में मँडराया करता है !
श्रमिकों से
आँसू, पीड़ा, क्रंदन, दुःख-अभावों का जीवन
घबराया करता है !
श्रमिकों से
बेचैनी औ’ बरबादी का अजगर
आँख बचाया करता है !
इनके श्रम पर ही निर्मित है
संस्कृति का भव्य-भवन,
इनके श्रम पर ही आधारित है
उन्नति-पथ का प्रत्येक चरण !
हर दैविक-भौतिक संकट में
ये बढ़ कर आगे आते हैं,
इनके आने से
त्रस्त करोड़ों के आँसू थम जाते हैं !
भावी विपदा के बादल फट जाते हैं !
पथ के अवरोधी-पत्थर हट जाते हैं !
जैसे विद्युत-गतिमय-इंजन से टकरा कर
प्रतिरोधी तीव्र हवाएँ
सिर धुन-धुन कर रह जाती हैं !
पथ कतरा कर बह जाती हैं !
श्रमधारा कब
अवरोधों के सम्मुख नत होती है ?
कब आगे बढ़ने का
दुर्दम साहस क्षण भर भी खोती है ?
सपनों में
कब इसका विश्वास रहा है ?
आँखों को मृग-तृष्णा पर
आकर्षित होने का
कब अभ्यास रहा है ?
श्रमधारा
अपनी मंज़िल से परिचित है !
श्रमधारा
अपने भावी से भयभीत न चिंतित है !
श्रमिकों की दुनिया बहुत बड़ी !
सागर की लहरों से लेकर
अम्बर तक फैली !
इनका कोई अपना देश नहीं,
काला, गोरा, पीला भेष नहीं !
सारी दुनिया के श्रमिकों का जीवन,
सारी दुनिया के श्रमिकों की धड़कन
कोई अलग नहीं !
कर सकती भौगोलिक सीमाएँ तक
इनको विलग नहीं !”
(१९). श्रम का खिला गुलाब – डी. एम. मिश्र
“पात-पात लहराकर मौसम
शाख़-शाख़ जो ज़िस्म छुआ
श्रम का खिला गुलाब
पसीना इत्र हुआ
चॉदी – चॉदी नदी का पानी
रेशम -रेशम रेत
सोना- सोना माटी लागे
भरे-भरे से खेत
गजब की मस्ती है
चने का झुमका बोले
बालियाँ गेहूँ की
रोम – रोम श्रृंगार
पसीना वस्त्र हुआ
खेत से आयेंगे खलिहान
स्वप्न, भर देंगे जब दालान
तेा हम तुम होंगे उनके बीच
सूर्य जब करता हो विश्राम
सितारों से हों रोशन गाँव
चाँदनी रखे उसमें पाँव
करे स्वागत गुनगुनी बयार
मुरैला नाचे पंख पसार
चातक बोले पीकर आग
खुशबू की बरसात
पसीना सर्द हुआ।”
(२०). हम दोनों – कौशल किशोर
“हम दोनों कलाकार थे
हमदोनों मजदूर थे
उसके हाथ में ब्रश था
और यही उसका औजार था
मेरे हाथ में कलम थी
वह किसी अस्त्र से कम न थी
वह जानता था
रंगों की दुनिया के बारे में
कि किन रंगों के मेल से
कौन सा रंग तैयार होगा
वह जानता था
सामने वाले की पसन्द क्या है
और वह उसे मूर्त कर देता दीवालों पर
रंगों के संयोजन की कला में
वह ऐसा सिद्धस्त था
कि बदरंग दीवालें भी खिल उठती
रंग बोल उठते
मेरी दुनिया शब्दों से बनी
कविता की दुनिया है
जो झंकृत कर दे,
रुला दे और हंसा दे
समय के भाव-विचार में
पंख लगा दे
उमड़ते-घुमड़ते बादलों से
शब्दों की बारिश करा दे
पाठक हो या श्रोता सभी भींग जाये
वाह वाह कर उठे
उसने रची थी रंगों की दुनिया
जिसके लिए मालिक मकान की प्रंशसा हुई
उनके रंग-बोध, सौदर्य-बोध की चर्चा दूर तक गई
मैंने जो कविता रची थी
साहित्य समाज में उसकी तारीफ हुई
अखबार में छपी, खूब पढ़ी गयी
किताब में आयी, बेस्ट सेलर बनी
मैं कवि था, वह कलाकार था
हमदोनों मजदूर थे
पर यह दुनिया की नजर थी जिसमें मैं कवि था
समाज में सम्मानित,
संस्थानों द्वारा पुरस्कृत, प्रतिष्ठित हिन्दी का कवि
और वह मजदूर था
दिहाड़ी या ठेके पर काम करने वाला मजदूर
सिर्फ मजदूर………!”
(२१). श्रमिक पचीसी – विपिन चौधरी
“कैसे घर कर लेता है एक कीड़ा
फल में
क्या उसे गंध से प्रेम है ?
‘गंध मज़बूरी है
प्रेम नहीं’
कीड़ा भूखा है
मुग्ध नहीं
ठीक गटर के बीच में घुस
एक मज़दूर दुर्गन्ध में कुनमुनाता है
मज़दूर बेबस है
बहादुर नहीं
भूख तो
उस प्रेम को भी पटकनी दे सकता है
जिसका माई-बाप ख़ुदाओं का ख़ुदा माना गया है
हम मज़दूरों की पहुँच भी ऐसे ही तो है
नीचे से नीचे गहराई में
ऊपर से ऊपर अंतस ऊँचाई में
मज़दूर बेलगाम बोल उठते हैं
हमारी हड्डियों में कैल्सियम नहीं
शीशा है
आँखों में रतौंदी
हमारी माँएँ घरों में बर्तन माँजती हैं
बहनें सैलानियों का मनोरंजन करती हैं
भाई बजरबट्टू बने सड़क पर पानी की बोतलें बेचते हैं
दुनिया भर की अजीबों-गरीब बीमारियाँ
बाजीगरी दिखती हुई
एक मज़बूत रस्सी की मदद से
सीधी हमारे जिस्मों में उतरती हैं
अपने ही देशों में विस्थापित हम
हमारे धर्म अलग
जाति अलग
हमारी भूख अलग
हमारी प्यास अलग
हमारे राशन कार्ड अलग
हमारी जनगणना अलग
हम अलग थलग शलग
हमारा थूक अलग
हमारा पेशाब अलग
देखते तो हो ही तुम
बाल मज़दूरी के ख़िलाफ़ झंडा बुलंद करने वाले अगवाओं के
घर हम रोटी पकाते
बर्तन साफ़ करते पाए गए
हमारा श्रम-देवता भी
तुम्हारी चिकनी दुनिया की ओर मुँह भी नहीं करता
बस आशीर्वाद देता है
“प्रसन्न रहो ओर हमारी मेहनत पर ऐश करो’।”
(२२). किसान – अच्युतानंद मिश्र
“उसके हाथ में अब कुदाल नहीं रही
उसके बीज सड़ चुके हैं
खेत उसके पिता ने ही बेच डाला था
उसके माथे पर पगड़ी भी नहीं रही
हाँ, कुछ दिन पहले तक
उसके घर में हल का फाल और मूठ
हुआ करता था
उसके घर में जो
नमक की आख़िरी डली बची है
वह इसी हल की बदौलत है
उसके सफ़ेद कुर्ते को
उतना ही सफ़ेद कह सकते हैं
जितना की उसके घर को घर
उसके पेशे को किसानी
उसके देश को किसानो का देश
नींद में अक्सर उसके पिता
दादा के बखार की बात करते
बखार माने
पूछता है उसका बेटा
जो दस रुपये रोज़ पर खटता है
नंदू चाचा की साइकिल की दुकान पर
दरकती हुए ज़मीन के
सूखे पपड़ों के भीतर से अन्न
के दाने निकालने का हुनर
नहीं सीख पाएगा वह
यह उन दिनों की बात है
जब भाषा इतनी बंजर नहीं हुई थी
दुनिया की हर भाषा में वह
अपने पेशे के साथ जीवित था
तब शायद डी०डी०टी० का चलन
भाषा में और जीवन में
इतना आम नहीं हुआ था
वे जो विशाल पंडाल के बीच
भव्य-समारोह में
मना रहे हैं पृथ्वी-दिवस
वे जो बचा रहे हैं बाघ को
और काले हिरन को
क्या वे एक दिन बचाएँगे किसान को
क्या उनके लिए भी यूँ ही होंगे सम्मलेन
कई सदी बाद
धरती के भीतर से
निकलेगा एक माथा
बताया जाएगा
देखो यह किसान का माथा है
सूंघों इसे
इसमें अब तक बची है
फ़सल की गंध
यह मिट्टी के
भीतर से खिंच लेता था जीवन-रस
डायनासोर की तरह
नष्ट नहीं हुई उनकी प्रजाति
उन्हें एक-एक कर
धीरे-धीरे नष्ट किया गया।”
(२३). किसान – शंकरानंद
“पूरी पृथ्वी का अधिकांश उसके बीज के लिए बना
हुआ यह कि सब ग़ायब होने लगा धीरे-धीरे हिस्सा
जैसे बच्चे का खिलौना कोई ग़ायब कर देता है
वह सरकार हुई
जिसके लिए किसान बीते मौसम का उजड़ा हुआ दिन था
कोई बंजर जिसका होना न होना कोई मायने नहीं रखता
कोई खण्डहर कोई खर-पतवार
यह एक किसान का जीवन तय हुआ
जिसके मरने पर भी कोई आँसू नहीं बहाता था ।”
(२४). मजदूर औरतें लौट जाती हैं – गौरव पाण्डेय
“मजदूर औरतें
आती हैं दूर-सुदूर के गाँवों से
दिन-दिन भर खेतों में काम करती हैं
रोपती हैं धान खर-पतवार साफ़ करती हैं
अकेली नहीं आती ये
बहू, बेटी और पोतियाँ साथ लाती हैं
साथ होती हैं पड़ोस की तमाम मजदूर औरतें
पानी से भरे लबालब खेत में
सकेल कर साड़ी, कमर में बांधकर दुपट्टा
मारकर कछोटा छप्प्-छप्प कूद जाती हैं
एक-दुसरे पर फेकती हैं गीली मिट्टी-कीचड़
अंजुरी भर भर छीटे मारती हैं
समवेत स्वरों में हँसती हैं
ये अलग-अलग उम्र की औरतें
मिट्टी-पानी के मिलन रंग में रंग जाती हैं
दादी-चाची-माँ-बेटी-नन्द-भउजाई
जब खेत में ही होने लगती है झमा-झम बारिस
बच्चियों संग बच्चियाँ बन लोटती-पोटती हैं
शगुन मनाते रोपनी के गीत गाती हैं
इस तरह कब रोप देती हैं ये दस-दस बीघे धान
पता ही नहीं चलता
पता ही नहीं चलता दिन के अंत का
और ये अपनी हंसी-किलकारी खेतों में छोड़कर
रोपी गयी फसलों के प्रति निःस्पृह होकर
लौटने लगती हैं
कुछ रुपया मुट्ठी में दबाये, आँचर में गठियाये
कल कहीं और रोपनी की बात करते हुए
लौट जाती हैं
ये मजदूर औरतें।”
(२५). मेहनतकश आदमी – प्रेमनन्दन
“घबराता नहीं काम से
मेहनतकश आदमी,
वह घबराता है निठल्लेपन से।
बेरोज़गारी के दिनों को ख़ालीपन
कचोटता है उसको,
भरता है उदासी
रोज़ी-रोटी तलाश रही उसकी इच्छाओं में।
पेट की आग से ज्यादा तीव्र होती है
काम करने की भूख उसकी
क्योंकि भूख तो तभी मिटेगी
जब वह कमाएगा
नही तों क्या खाएगा।
सबसे ज़्यादा डरावने होते हैं
वे दिन
जब उसके पास
करने को कुछ नहीं होता।
रोज़ी-रोटी में सेंध मार रहीं मशीनें
सबसे बड़ी दुश्मन हैं उसकी
साहूकार, पुलिस और सरकार से
यहॉ तक कि भूख से भी
वह नहीं डरता उतना
जितना डरता है
मशीनों द्वारा अपना हक़ छीने जाने से ।
रोज़गार की तलाश में
वह शहर-शहर ठोकरे खाता है
हाड़तोड़ मेहनत करता है
पर मशीनों की मार से
अपनी रोज़ी-रोटी नहीं बचा पाता,
तब वह बहुत घबराता है ।”
(२६). मज़दूर महिला – वंदना गुप्ता
” जीवन जीने की जिजीविषा
व्यक्त हैं तुम्हारे चेहरे की लकीरों में
हाथों पर पढ़ी झुर्रियाँ , झुलसी त्वचा
स्वयं एक दस्तावेज़ है
तुम्हारी ज़िन्दगी की जद्दोजहद की
आशा निराशा और हताशा के झुरमुटों में भी
सहेजी हैं तुमने उम्मीद की किरणें
यूं ही नहीं त्वचा सँवलाई है
आँखें प्रतीक हैं तुम्हारे पौरुष की
जहाँ ठहरी चिंता की लकीरें
दे देती हैं पता तुम्हारे मन की तहरीरों का
दया करुणा की मोहताज नहीं तुम
तुम तो हो वो स्वयंसिद्धा
जिसके आगे नतमस्तक है
सृष्टि का हर बंदा
ऐसा कह उपहास नहीं कर सकती
क्योंकि … जानती हूँ न
रोज कितनी आँखों में सिर्फ अपना बदन देखती हो
तो कितने ही चेहरों में अपने लिए वितृष्णा
फिर कैसे हो सकता है हर बंदा नतमस्तक
किन हालात से गुजरती हो
किस नारकीय यातना को झेलती हो
तब जाकर एक वक्त की रोटी का जुगाड़ करती हो
सब जानती हूँ ………. क्योंकि
आखिर हूँ तो एक औरत ही न
और सुनो
तुम्हारे रहन सहन के स्तर को जानने को
नहीं है जरूरत मुझे तुम तक पहुँचने की
तुम्हारी जीवन शैली का दर्शन करने की
क्योंकि
तुम अव्यक्त में भी व्यक्त हो
यदि हो किसी के पास वो नज़र
जो तुम्हें देह से परे देख सके
जो तुम्हारी उघड़ी देह का सही आकलन कर सके
तो स्वयं जान जाएगा
कैसे एक कपडे मे समेटा है तुमने पूरा ब्रह्माण्ड ।”