
अरुण कमल की कविता में पुतली के संसार को नयी अरुणिमा मिली है। कवि यहाँ अनुभव के नये इलाके में प्रवेश करता है। किन्तु नया जूता एड़ियों को काटता बहुत है। इस नए इलाके में अब उम्मीद और प्रेम के साथ – साथ हताशा और विराग के शेड्स कहीं ज़्यादा हैं। यहाँ ज़िन्दगी के क्लासिक्स या अनुप्रास नहीं, अनगढ़ नैसर्गिक जीवन छवि और मानवीय पीड़ा की बारंबारता का सौंदर्य शास्त्र है। यहाँ अपराधीकरण और अमानवीयकरण के हाथों मारते हुए मनुष्य को बचा ले जाने की सफल कोशिश विन्यस्त है। यहाँ मृत्यु में भी ज़िन्दगी की धमक महसूस होती है।जीवन और मृत्यु के द्वन्द्व के बीच सामाजिक- आर्थिक वैषम्य उनकी कविताओं में गहरी मानवीय करुणा के साथ नियोजित है—–
माफ़ करना प्यास से तड़पते लोगों!
आज मैं दो बार नहाया।
यहाँ आत्मपरक संरचनाओं में सामाजिक यथार्थ संघनित होता है ,साथ ही यह मौन संलाप के शिल्प में मूल्यों के पुनर्वास की कविता है। ज़िन्दगी के बोझ से ढँकी आँखों वाले मजदूर उनके सपनों में सूराख करते हैं। साधारण जीवन दशाओं, स्थितियों के अंकन में असाधारण सौंदर्य भर देने वाले अरुण कमल रात की स्याही से रोशनी लिखने वाले देदीप्यमान नक्षत्र हैं। अपनी छाया पर चलते आवारा कुत्ते की छाया भी उनकी पुतली पर पड़ती है और एक वेल्डिंग करने वाले मिस्त्री की ज़िन्दगी की रस्सी गाँठ पड़ते पड़ते छोटी हो गयी है। यहाँ आतंकवाद की कोख में एक बच्चा मृतक माँ का दूध पी रहा है और इसी आतंक के कारण एक बच्चे का खून होते देखने के बावजूद गवाही देने से कतराती एक माँ को अनुभव होता है कि धीरे-धीरे वो बंदूक घूम रही है मेरी तरफ। दुनिया बड़ी है और छोटे पद गये कपड़े की तरह संबंधों को अलविदा कहने के क्रम में आत्मीय अनुवादक की देह गाथा समाप्त होने पर प्रतीक बुनता है —
पोखर पर अचानक फूटता है चाँद का बताशा
जिसमे इतनी आग थी
उसकी इतनी कम राख!
अतीत और वर्तमान के तनाव को झेलती नयी पीढ़ी के रक्त में पूर्वजों के सारे रोग संक्रमित हो गए हैं —
हमारी ही थाली में शासकों के दाँत छूटे हुए और ज़रा सी धूप में
धधक उठती आदिम हिंसा।
जीवन में एक साथ कई चीज़ें घट रही होती हैं इसलिए इकहरापन तोड़ने के लिए उनकी एक कविता में कई कविताएँ मौजूद हैं। फंतासी बिम्बों की सृष्टि, अर्थसघन ऐन्द्रिय बोध, चाक्षुष बिम्ब योजना, नाटकीयता, एकालाप, संवाद धर्मिता, वृत्त चित्र शैली, आख्यानपरकता आदि के प्रयोग के साथ ही लोक जीवन से उठाये गए अनछुए प्रासंगिक अप्रस्तुत विधान के कारण ये कवितायेँ अपने रचना समय का स्मारक बन गयी हैं।जिनमे भाषा का अमूर्त्तन नहीं , संवेदना की सादगी लक्षित होती है। भारतीय जीवन चेतना की सही पहचान प्रकारान्तर से भूमंडलीकरण एवं सांस्कृतिक उपनिवेशवाद के विरूद्ध प्रतिरोध की शिल्प प्रविधि का आविष्कार भी है इसलिए माथे पर लोटा भर पानी पड़ते ही याद आते श्लोक की तरह ये कविताएँ सामूहिक स्मृति में जीवित रहेंगी – कविता की मृत्यु की असंख्य घोषणाओं के विरूद्ध। माइक्रोहिस्ट्री के माध्यम से विश्वजीवन की चेतना
अर्जित करने की अणिमा सिद्धि ही अरुण कमल की लोकप्रियता का सशक्त आधार है।
यद्यपि डॉ0 पी0 एन0 सिंह को अरुण कमल एक मेधावी कवि के रूप में अपील नहीं करते उनकी तुलना में उन्हें पंकजं सिंह की कविताएं अधिक सौष्ठवपूर्ण लगती हैं किन्तु विजय कुमार कहते हैं कि दृश्य-बंध की सघनता, अनेक स्तरीयता, एक घिरे हुए मन के अवचेतन की तमाम यात्राएँ और स्थितियों का जैसा डाक्यूड्रामा यहाँ खड़ा किया गया है वह समूची हिंदी में दुर्लभ है। यहाँ मनुष्य का निपट अकेलापन और एक बर्बर व्यवस्था का तिलिस्म है। यहाँ जीवन अब भी हिंसा के बीचोबीच बचा हुआ है। वे अपनी कविताओं में उस छटपटाहट को रचते हैं जो लाशों के बीच ज़िंदा रह गए मनुष्यों के भीतर जन्म लेती है—
जो घर से निकल गया उसका इंतज़ार मत करना।
यह ऐसा दौर है जब जीते-जागते आदमी गायब कर दिए जाते हैं। यदि कविता न होती तो शायद वे स्मृतियों से भी पोंछ दिए जाते। चारों तरफ व्याप्त एक सर्वग्रासी मूल्यहीनता के बीच लिखी जा रही यह कविता आम आदमी के भौतिक वजूद और नैतिक विफलताओं को दिन-प्रतिदिन के सच से जोड़ती है। मनुष्य होने और कहलाने के यहाँ वहां बिखरे दृष्टांत उनकी कविता में मौजूद हैं। अपनी सारी रागात्मकता और ऐन्द्रिकता के बावजूद अनुभव को लिरिकल बनाने में उनका विश्वास नहीं है इसलिए अरुण कमल आधुनिक संवेदना के लोक-कवि लगते हैं। सामुदायिक अवचेतन का कोलाज बनाती इन कविताओं में ज़िन्दगी के अंतराल मौजूद हैं और इस भागदौड़ के जीवन में बहुत कुछ हमसे छूटता जा रहा है। उसकी मजबूत पकड़ यहाँ दृष्टिगत होती है। यहाँ निजी और सार्वजनिक के बीच एक आवाजाही परिलक्षित होती है। औसत मनुष्य के जीवन-रस और जिजीविषा के साथ ही उसमें परिवेश का रंग ज़्यादा स्याह होता गया है। शक्ति-केंद्रों की अमानुषिकता को सहते-सहते निरुपाय व्यक्ति के प्रतीक रूप से इम्यून हो जाने की भयावह सच्चाई का सूचकांक वंचित मनुष्य की श्रम की विफलता के बाद शनैः-शनैः अँधेरे में चले जाने को दर्ज करता है।
लोकानुवर्तन का यह बोध एकान्त श्रीवास्ताव के यहाँ भी अपनी पूरी सान्द्रता में मौजूद है। केदारनाथ सिंह की नागर चेतना में लोकजीवन की कसमसाहट आस्वाद का एक नया प्रारूप रचती है। इसके बरक्स हेमंत कुकरेती और कमलेश्वर साहू जैसे गद्य-ब्रांड कवि हैं जो कविताहीन कवितायेँ लिखते हैं। पंकज चतुर्वेदी एक श्रेष्ठ आलोचक हैं किन्तु उनकी कविताओं में भी तरु-पत्रों से छनकर आती चाँदनी की तरह बहुत कम काव्यात्मकता बची है। एकान्त श्रीवास्तव के बचपन में लालटेन के भभक कर बुझ जाने में उस रचना-समय को पढ़ा जा सकता है। यहाँ भूख और अघाई हुई ज़िन्दगी लहरों की तरह एक दूसरे को काटती हैं उसी प्रकार सौंदर्य बोध और संघर्ष चेतना भी—–
दिन के उजले दर्पण पर फ़ैल गयी है साँझ की स्याही
तारों के पारिजात फूलों से
आकाश का कटोरा भर गया है।
प्रकृति के इस दर्पण में मनुष्य का चेहरा स्पष्ट प्रतिभासित होता है और मानवता के नैतिक अधःपतन की अतःगाथा को एकान्त एक दूसरी कविता में प्रतिफलित करते हैं। रोमानी भावबोध से प्रेरित पन्त जी कहते हैं–
सुन्दर हैं विहग सुमन सुन्दर
मानव तुम सबसे सुन्दरतम।
इसके बरक्स एकान्त मानवीय चरित्र के विद्रूप को बहुत खूबसूरती से उत्कीर्ण करते हैं।
“मुरम वाली ज़मीन पर नंगे पांव
चलता हूँ _
तो तलुवे लाल हो जाते हैं
धरती अपना रंग छोड़ देती है।
किसी वन से गुजरते हुए
गहराती साँझ
पक्षी जिस वृक्ष पर उतरते हैं
अपने पंख छोड़ देते हैं।
फूल छोड़ देता है अपनी महक पवन में
पानी में मछली छोड़ देती है अपनी गंध
कैसा मैं मनुष्य हूँ
की कहीं छोड़ नहीं पाता अपनी छाप
अपने मानुष होने की सुगंध
कहीं छोड़ नहीं पाता
धरती अपना रंग छोड़ देती है।”
कवि पृथ्वी का रफूगर होता है। वह पृथ्वी को झाड़- पोंछकर साफ़ और सुन्दर बनाने की उद्यमिता से जुड़ा हुआ है। प्रेम का खगोल सारे विन्यास को बदल देता है । यहाँ सूर्य धरती की परिक्रमा करने लगता है, आकाश नक्षत्रों की गाँठें खोलता है और चट्टान सदियों की करवट लेती है । जब उसने अपने प्रेम के लिए जगह बनायी-
“बुहारकर अलग कर दिया तारों को
सूर्य-चन्द्रमा को रख दिया एक तरफ
वनलताओं को हटाया
उसने पृथ्वी को झाड़ा पोंछा
और आकाश की तहें ठीक कीं ।” (-अशोक वाजपेयी)
राजेन्द्र यादव ने हंस के एक संपादकीय में लिखा था कि उदय प्रकाश प्रथम श्रेणी के कहानीकार और दोयम दर्जे के कवि हैं। किंतु कभी-कभी रात में हार्मोनियम की दूर से आती आवाज़ अच्छी लगती है। भोपाल त्रासदी में जहरीली गैस से शताब्दी की सबसे भयानक दुर्घटना के शिकार लोगों के प्रति अपार शोक से भरा कवि महान संगीतज्ञ भीमसेन जोशी से आग्रह करता है कि वे इनके लिए गायें और उन सारी अमानवीय स्थितियों के विरूद्ध गायें ताकि आगे ऐसी घटना न घटे—–
उस अमर नींद के काले माथे पर रखो
बहुत संभालकर अपने संगीत के नए मुलायम उजले पंख
जिस नींद के सपनों में है
मिथाइल आइसोसाइनेट के नशे का
गहरा नीला अँधेरा।
इधर देखा यह गया कि राजेश जोशी की कविता की दो पंक्तियों के बीच की खाली जगह कुछ ज़्यादा ही बढ़ती गयी है। और मंगलेश डबराल की तेज़ आँख की तरह टिमटिमाती लालटेन भी पहाड़ की ऊंचाइयों पर ही जलती- चमकती है। यहाँ लालटेन में निहित आग और अन्धकार में से आते संगीत पर गौर ज़रूरी है। इधर जीवन से गायब होती संगीत-लिपियों को कविता में सहेजने की आकुलता बढ़ती जा रही है। मंगलेश ने समय और समाज के शोरीले वातावरण को अत्यंत सुरीलेपन से व्यक्त करने की चेष्टा की है। उनकी कविताएं शब्दों की स्फीति पर आश्रित रहने वाले और विवरणात्मकता से लदे-फंदे कवियों के उद्यम के आगे कहीं प्रयत्न-लाघव से बनी-बुनी लगती हैं। ये कविताएँ आनुभूतिक सरलीकरण के बजाय संवेदना के गहरे उत्खनन से उपार्जित हैं। ओम् निश्चल के अनुसार यहाँ कविता को कथ्य की केंद्रीयता से अनुभव की केन्द्रीयता में बदलने की कोशिश संलक्ष्य है। उनकी कविता में आते ही जीवन के सारे स्थूल दृश्य अनुभव की सूक्ष्म इकाइयों में बदल जाते हैं। इसीलिए उनकी कविता केवल वस्तुनिष्ठता के ताने-बाने बुनने में ही निमग्न नहीं रहती बल्कि वस्तुओं के अंतस्तल तक पैठ बनाती है । वह वस्तुओं को छूकर नही निकलती वस्तुओं के भीतर से गुज़र कर आती है। वे राजनैतिक परिदृश्य अथवा समकालीन मुद्दों के द्वारा आधुनिक बनने की कोशिश नहीं करते। उनकी कविताओं में उनकी आवाज़ें हैं जिनकी कोई आवाज़ नहीं थी। उन्हें खीझ होती है कि जिसने कुछ नहीं रचा समाज में उसी का हो चला समाज—
मैं एक विरोध पत्र हूँ
जिन पर उनके हस्ताक्षर हैं जो अब नहीं हैं
मैं सहेज कर रखता हूँ उनके नाम आने वाली चिट्ठियाँ।
मैं दुःख हूँ, मुझमें एक धीमी कांपती हुई रोशनी है ,
मुझमें से गुज़रती हैं छायाएँ और श्रद्धांजलियाँ
गुजरते हैं फूलों के हार
और संवेदना के वाक्य
जिनमे मुश्किल वक्तों का ज़िक्र होता है
और आने वाले दिनों के बारे में
एक उम्मीद जतलाई जाती है।
मंगलेश की कविताओं की भाषा निश्चय ही सरल है परंतु उसकी ध्वनियाँ दूरसंवेदी हैं। पुरानी चीज़ों, परंपराओं और कलाओं के प्रति व्यावसायिकता के प्रवाह में नष्ट होने या बदलते जाने के प्रति एक हल्की विकलता मंगलेश के ग्राम- संस्कारी मानस में मौजूद है—–
मुझसे एक सुन्दर रास्ता छूटा,एक पेड़ ,एक विश्वास
एक बड़ी भावना खो गयी, कुछ कलम और कुछ छाते खोए,
अंततः एक दिन मैंने एक दिन अपने पिता को खो दिया।
पिछवाड़े जमा होता रहा जीवन का कबाड़
युवावस्था के चमकते आइने के टूटे हुए टुकड़े
पुरानी चिट्ठियों के मिटते हुए अक्षर।
आकस्मिक नहीं है कि इधर देवताओं पर अलग-अलग कोणों से कविताएँ लिखी गयी हैं। अशोक वाजपेयी के जम्हाई लेते बूढ़े देवता और ज्ञानेन्द्रपति के सड़क किनारे अर्द्धसभ्य ईश्वर के अतिरिक्त मंगलेश के यहाँ दलित किस्म के देशज देवता भी हैं। सुन्दर सर्वशक्तिमान संप्रभु स्वयंभू सशस्त्र देवताओं से अलग उनके चेहरे बेडौल और बिना तराशे हुए हैं——
हमारे देवता ताकतवर देवताओं से घबराये हुए और चुप्पे थे
उनके लिए उन जगमग मंदिरों में कोई जगह नहीं थी
जहाँ ढोल- नगाड़े बजते ,अनुष्ठान तुमुल नाद होता
आवाहन ध्यान स्तुति घंटियां घड़ियाल बलियाँ मंत्रोच्चार
ब्रह्माओं विष्णुओं वामनों इंद्रों के समय में
हमारे देवता किसी बुद्ध की तरह आत्म में लीन रहते
हमारे देवता आँखें खोलकर हैरानी से देखते थे
शक्तिशाली देवताओं के जुलूस ठठ के ठठ हथियारबंद
चले आ रहे हैं तलवारें त्रिशूल भाले बंदूकें आग्नेयास्त्र लहराते ।
आम जन के जीवन सहचर इन देवता -अपदेवताओं की एक अंतर्कथा भी है। आम जन ही कवि का उपास्य देवता है और सर्वसत्तात्मक शक्ति संरचनाओं में अभिजात देवताओं की प्रतिछवि दिखाई पड़ती है। आज सत्ता-प्रवर्तित या सत्ता संरक्षित व्यापक हिंसा की विगर्हणा करते हुए उदय प्रकाश कहते हैं—–
क्या तुमने अपने शब्दों को ठीक से देखा है
उनकी बाहर निकली हुई जीभ
और टपकता कुछ बूँद-बूँद गाढ़ा लाल द्रव सा
सुनो!
मैं तुम्हारे सारे देवताओं को
तुम्हारी हिंसा और तुम्हारे शब्दों के साथ
खारिज करता हूँ।
विडम्बना यह है किं आम जन के लाडले ये अभिजात जनकवि आज स्वयं स्वयंभू देवता बन गए हैं और साहित्य कि सिंघासन पर अधिष्ठित हैं । ये साम्यवादी चिन्तक गाँधी के अहिंसक रक्तहीन क्रान्ति में विश्वास नहीं करते। तो क्या खुद ही प्रतिष्ठान बन गए इन देवताओं को खारिज कर दिया जाय जो पुरानी चिट्ठियों के अक्षर मिटाने पर तुले हुए हैं और शताब्दियों में उपार्जित परम्पराशील मनीषा के श्रेष्ठ तत्वों को वैज्ञानिकता के नाम पर खारिज करते रहे हैं।
कविता में ज़िंदगी के आघूर्णन, व्यक्ति और समाज की संश्लिष्ट जैविक संरचना, जीवन की सूक्ष्मतर विडंबनाएँ,मनोसामाजिक ग्रंथियां और ऐंद्रियता तथा बहुध्वन्यात्मकता का सन्निवेश वांछित है। कुँवर नारायण यथार्थ के प्रति प्रौढ़ प्रतिक्रिया देते हुए और दार्शनिक सन्दर्भों को वृहत्तर समकालीन आशयों से मंडित करते हुए कविता के उस मनोलोक में प्रवेश चाहते हैं —
जहाँ अनुभव कर सकूँ
कि मैं केवल एक देह में कैद नहीं
वह प्राण हूँ
जो धड़क रहा है पूरे संसार में।
उनकी कविता के पिण्ड में मानो ब्रह्माण्ड की लय बज रही हो
और एक बहुत बड़ी गूँज
सागर से उठकर समा जाती एक शंख में।
यह इस बात का शंखनाद भी है कि हम बहुत सारी गूँजें गए रिश्ते के भीतर से पैदा करते हैं या कि कविता की अपनी चली आती हुई परंपरा के साथ एक जीवन्त रिश्ता होता है । वह रिश्ता इधर कमज़ोर हुआ है। वसंत त्रिपाठी कहते हैं —
घर के कबाड़ में एक टूटी हुई वीणा है
परित्यक्त लेकिन फेंकी हुई नहीं
पुरखों के भीतर अभी बची है उसकी स्मृति
यद्यपि केश कंबलियों का समय बीत चुका है
अपने दर्शनों की तालपत्री थामे
अध्यात्म की खोज में भटकते हुए
वे कहीं नहीं पहुचे
अपनी सत्ता के सर्वव्यापी होने की आकांक्षा के साथ ।
लीलाधर जगूड़ी मिथकीय चेतना को विरूपित करते हुए कहते हैं—-
युधिष्ठिर स्वर्ग गया था
और अजीब संयोग था कि बेल्जियम की धरती
एक मेम के कारण
मेरे बूटों से चिपक गयी थी।
प्रेम की यह अधूरी आकांक्षा पूरी धरती को सिर पर उठा लेती है, पैरों से चिपका लेती है। यद्यपि जगूड़ी यह मानते हैं कि उनकी कविता परंपरा के हज़ारों साल पुराने पेड़ पर खिला हुआ आज का फूल है। आज के कोरोना काल के निर्वासित मजदूरों के ही नहीं, समूची सामाजिक चेतना का औसत सत्य है–
सारे रास्ते पेट तक जाकर गुम हो गए हैं
और पड़ोसी अपनी औकात से भी कम हो गये हैं।
केकेदारनाथ सिंह ने बहुत पहले यह चिंता ज़ाहिर की थी कि महानगर के व्यस्त विस्तार में कोई ऐसी जगह नही जहाँ चींटी अपना अंडा रख दे और कोई किसान अपनी कुदाल। इसलिए उनकी कविता चींटियों की मूक रुलाई का हिंदी में अनुवाद करती रही। मंगलेश डबराल और व्योमेश शुक्ल जैसे कवियों की कविता में अमूर्तन बहुत अधिक है और उसमें से काव्याकत्मकता झड़ चुकी है किंतु उनकी गद्यात्मक समझ बहुत अच्छी है। बहुत सारे ओवर रेटेड कवि हैं जिनका निर्माण आलोचकों ने किया है। ये निर्गुणोपासक आलोचक अपनी दिव्य दृष्टि से रचना में जो नहीं है उसे भी देख लेते हैं अथवा अपनी सैद्धान्तिकी को इन कवियों पर आरोपित कर देते हैं । दूसरी ओर पवन करण जैसे प्रगतिशील कवि भी हैं जो स्त्री प्रत्यय से आक्रांत हैं। ये सामाजिक सरोकारों वाले सृजनधर्मी सामाजिक नैतिकता के सामान्य मानदण्डों को भी ध्वस्त कर जाने किस बेहतर समाज का सृजन करना चाहते हैं। कविता के सर्वायामी क्षरण के कारण ही अनामिका को लगता है कि आज कविता की बाथरूम सिंगिंग बढ़ती जा रही है और एक कवि का बैना पारात में भरकर दूसरे के यहाँ भी नहीं जाता। पाठक तो इस नए ग्रह लोक से बाहर हो चुका है।
अनीता वर्मा ने विरोध के वाचाल और मुखर शिल्प के बनिस्पत निजी, अंतरंग ,और आत्मीय मुहावरा आविष्कृत किया है जो अपने प्रभाव में ज़्यादा विश्वसनीय और मार्मिक है। उनके यहाँ एक कवि , एक स्त्री और एक नौकरी-पेशा नागरिक तीनों के समेकित संघर्षों का समुच्चय अभिव्यक्ति पाता है। आत्मा के अब तक अदेखे या अनजान रह गए आयामों की और उनकी निगाह जाती है। उनकी कविता का हरा रंग जैसे आकाश के नीले रंग को पुकारता हुआ प्रतीत होता है। जैसे भटकती हुई गर्मी पकड़ लेती है बारिश का हाथ वैसे ही सभ्य अन्धकार में डरी छिपी स्त्री के भय और विचलन को स्वर देते हुए इस विश्रृंखल विश्व में उनकी कला इसे कोई संगठित अर्थ देने की जद्दोजहद में है। स्त्रियों की वर्जना और वंचनापूर्ण नियति को रेखांकित करते हुए वे कहती हैं —–
उनके नाख़ून खूबसूरती से तराश दिए गए हैं
जिन पर मीठी पालिश चढ़ी है
चांदनी रात उनके लिए भी सुन्दर हो सकती है
अगर वे होती भय के बगैर
अगर उनकी छाया जन्म के पहले से
मृत्यु के बाद तक नहीं फैली होती
अगर एक क्रूर हँसी उनको दूर तक गूँजती सुनाई नहीं देती।
उन्हें लगता है की स्त्रियों की नींद में किसी और के सपने चले आते हैं। इस प्रकार इस पतझड़ समय में एक हरी संवेदना से संवलित पृथ्वी जैसे उनकी कविता के छोटे छोटे फल आश्वस्त करते हैं। आकस्मिक नहीं है कि यह भय नीलेश रघुवंशी की कविताओं के अवचेतन में भी बैठा हुआ है। आधी रात के बाद की आवाज़ें, मसलन कुत्ते और बिल्ली के रोने की आवाज़ उन्हे भय से भर देती है। उच्च मध्यमवर्गीय परिवार में एक बच्चा सँभालने वाली लड़की को सपने भी दुबककर आते हैं। वह उदास और अनमनी रहती है और जब तब बच्चे की रोने की आवाज़ उसके सपनों को तोड़ती रहती है। किंतु नीलेश का अनुभव परिसर विस्तीर्ण है। उसमें बूढ़ी बुआ का दुःख तो है ही जिनकी सारी ज़मीन जायदाद किसी और का अँगूठा लगवाकर बेटे ने अपने नाम कर ली है , एक बन्दर और बूढ़े मदारी की व्यथा भी है। यह अलग बात है की जब भी किसी के घर बेटी जन्म लेती है तो बुआ दुःख से भर जाती हैं और अँधेरे में रास्ता टटोलती बड़बड़ाती चली जाती हैं। पोटली दबाए बूढ़ा मदारी बन्दर बंदरिया का खेल दिखा रहा है। बंदरिया रूठकर मायके जाती है ,वह डमरू बजाता है और घुंघरू बँधी लाठी के संग बन्दर-बंदरिया का मिलाप होता है। इस उबाऊ खेल में कोई उल्लास या उमंग नहीं और विडम्बना यह है—-
बन्दर बंदरिया की व्यथा छिपाए नहीं छिपती मदारी से
और मदारी की व्यथा बन्दर बंदरिया भी जानते हैं अच्छी तरह।
इस प्रकार भूख की त्रासद विडम्बना को बिना लाउड शिल्प अपनाए सहजता से व्यक्त कर देने के साथ ही मनुष्य और पशु के भावात्मक साहचर्य और प्राकृतिक उपादानों में मानवीय संवेदना का अन्तर्निवेश कविता की प्रासादिकता के आकर्षण को सौ गुना बढ़ा देता है। उनके यहाँ गैराज में काम करने वाला कई-कई कोणों से गाड़ी चलाने वाला, आँसुओं को भीतर तक पीता एक मैकेनिक भी है जो गाडी के पुर्जे-पुर्जे अलग कर देता है और —-
सारे नट-बोल्ट भीतर तहों तक कर देता फिट
कपड़े उसके आयल में सन जाते चिकटते हाथ पांव
आयल की गंध को भर लेता रोम-रोम में।
उसके सपनों की सीमित दिनचर्या के अलावा कवयित्री के सपनों में एक बाँसुरी वादक राजेंद्र भी है जो कला की असफल आर्थिक परिणति का प्रतीक है—–
खोंसकर कान में बाँसुरी दौड़ता सायरन गाड़ी की तरह
क्या बनने आया था भाउ और क्या बनकर रह गया
दफ्तर के ब्लैकबोर्ड पर लिखता है आज का शब्द
कैजुअल्टी/हताहत
हाय- बाँसुरी की आंख से टपका आंसू
सबकी चिरौरी करने के बाद भी बजा न पाया जब परदे पर बाँसुरी
हारकर खोल ली दुकान चाय की दूरदर्शन के बाहर।
स्थापित स्त्री-कवियों में गगन गिल और आदिवासी चेतना की प्रवक्ता निर्मला पुतुल का नाम भी आदर के साथ लिया जा सकता है जिनकी कविता में नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द।
– अजित कुमार राय