मेहनतकशों के साहित्य को सामने लाने के लिए हमें इसी पूँजीवादी तंत्र में बनानी होगी राहः डॉ. वंदना चौबे

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वाराणसीः प्रलेस की वाराणसी इकाई की सचिव और युवा कवियत्री वंदना चौबे ने कहा कि हमें मेहनतकशों-आमजनों के साहित्य को जन-सुलभ बनाने के लिए उन्नत टेक्नोलॉजी की मदद से इसी पूँजीवादी बाजार में जगह बनानी होगी। हम नियतिवादी ढंग से यह नहीं मान सकते कि एक दिन ऐसा आएगा जब जनपक्षधर लेखन को प्रशंसा मिलेगी और वह जन-जन तक पहुँचेगा। हमें इसके लिए समस्त उपलब्ध संसाधनों का कुशलतम उपयोग करना होगा और साहित्य को लोगों तक पहुँचाने के लिए सक्रियता दिखानी होगी।
उन्होंने कहा कि हिंदी साहित्य की दुनिया में स्टारडम पहले से रहा है और अब हमें व्याख्या और विश्लेषण के जरिए इसकी जड़ में जाना होगा। उन्होंने कहा कि स्टारडम आगे भी रहेगा और इससे दिक्कत नहीं होती। कला निर्माता और कला उपभोक्ता यानि कला का जो निर्माण कर रहा है और कला का जो उपभोग कर रहा है उसके बीच जो सामाजिक संरचना है वह निर्मित कौन कर रहा है। सामंती परिवेश में जो कला रची जाती थी वह एलीट लोगों के लिए रची जाती थी और चूँकि उत्पादन पर उनका अधिकार था तो तो उसी जैसे प्रोडक्ट वह अपने हिसाब से तैयार करते थे।
वह ‘क्या स्टारडम में फँस गया है साहित्य जगत?’ विषय पर ‘सत्य हिन्दी’ की ऑनलाइन साहित्यिक पत्रिका तानाबाना द्वारा आयोजित पैनल डिस्कसन में अपनी बात रख रही थीं। तानाबाना के प्रस्तुतकर्ता वरिष्ठ पत्रकार मुकेश कुमार थे।
उन्होंने कहा कि वे वैसे ही कलाकारों-साहित्यकारों को तैयार करते थे और उसी को मान्यता मिलती थी। क्योंकि उत्पादन पर उनका अधिकार था। आपने देखा कि सामंती समाज जब था और बुर्जुआ संस्कृति आई मतलब वर्गीय संस्कृति आई और पूँजी का जब वर्चस्व हुआ तो वह कैसे सामंती चीजों को ढहाकर एक खास तरह के लोकतांत्रिक पैटर्न के साथ साहित्य को भी और दूसरे प्रोडक्ट को भी शामिल कर लिया और वह बड़ी क्रांति थी मतलब सामंतवाद टूटा और भारत में पूरी तरह से तो नहीं टूटा मगर टूटने की कगार पर है। टूट ही गया।
उन्होंने कहा कि जैसे-जैसे सामाजिक उत्पादन में बुर्जुआ वर्ग का वर्चस्व हुआ, हमें यह भूल जाना चाहिए कि साहित्य कोई आसमान से आई चीज है। जैसे अन्य प्रोडक्ट की तरह अन्य चीजें बाजार में उतरती हैं और समाज में आती हैं। समाज में जिसका अधिकार होता है, उत्पादनों पर जिसका अधिकार होता है, वैसे ही साहित्य भी। इसीलिए लेखक एक आदर्श हो सकता है। भारतीय समाज भाववादी समाज रहा है। और लेखक की बात को काफी सत्य की तरह मानता है। लेकिन लेखक भी अपने समाज के उत्पादन में हिस्सेदारी करता है लेकिन वह उस तरह से श्रमिक नहीं है क्योंकि वह प्रकाशकों से मजूरी लेकर प्रकाशक को संपन्न बनाने का काम करता है।
उन्होंने कहा कि हम सभी जानते हैं कि भारत तथा दुनिया भर में पूँजी कैसे संकेंद्रित होकर एक तरफ हो गई है और दूसरे तरफ सभी श्रम का बाजार पूरा निर्मित होता जा रहा है।
मुकेश कुमार के इस प्रश्न के जवाब में कि इस पूरी प्रक्रिया में स्टारडम की क्या भूमिका रही है, उन्होंने कहा कि मुझे यह लगता है कि साहित्य में स्टारडम वही है कि जब जिसका वर्चस्व होगा उसका ही रचनाकार होगा, उसके ही साहित्यकार होंगे, लेखक उसी तरह से बनाए जाते हैं, क्रिएट किए जाते हैं, पाठक भी क्रिएट किए जाते हैं। पाठक भी कोई बहुत नेचुरल नहीं होते, इसका मतलब मैं यह नहीं कह रही कि पाठक की अपनी समझ नहीं होती लेकिन धीरे-धीरे उसे निर्मित किया जाता है, जैसे फिल्मकार कहता है कि दर्शक तो यही मांग रहे हैं वैसे लेखक कहता है कि पाठक तो यही मांग रहा है।
उन्होंने कहा कि पाठक और लेखक निर्मित किए जाते हैं, आलोचक निर्मित किए जाते हैं, आज के समय के लिए कैसा लेखक चाहिए। यानि जिसका वर्चस्व है उन्हीं का वर्चस्व रहेगा तो ऐसे लेखक नायक बनेंगे। सामंती जब समय था तो वैसे लेखक नायक बने थे। आने वाले समय में जैसा वर्चस्व होगा वैसे लेखक अपने रूप में आएंगे तो हमें तय करना है कि हमें किस तरह के समाज की निर्मिति चाहिए वैसा लेखक या रचनाकार हमारे सामने आएगा।
मुकेश कुमार के इस पश्न पर कि ये जो प्रकाशन उद्योग है और ये जो नकली फर्जी स्टार बनाने की कोशिशें हो रही हैं, जो अधकचरा साहित्य है उसकी प्रतिष्ठा हो रही है और जो अच्छा साहित्य है वह दरकिनार हो रहा है, इसका कैसे देखा जाए, डॉ. वंदना चौबे ने कहा कि ऐसा वह नहीं मानतीं कि यदि सरकारी संस्थानों को आर्थिक दिक्कतें कम हों तो लेखकों की मदद या साहित्यिक संस्थाओं की मदद हो सकती है। मैं ऐसा इसलिए नहीं मानतीं कि बहुत साफ है कि राज्य और कार्पोरेट मिलकर पूरी दुनिया में काम कर रहे हैं और साहित्य के संस्थान भी उससे अछूते नहीं हैं। तो आर्थिक ढाँचा अगर उनके पास भी होगा तो वह किसकी मदद करेंगे। राज्य किसकी मदद करेगा ये तो उसके वर्गीय हित पर निर्भर करेगा। वह स्टार भी तय करेगा वह आलोचक भी तय करेगा वह विश्वविद्यालय में ऐसे लेखकों की खेप तैयार करेगा। राज्य ऐसे प्रोजेक्ट-संगोष्ठियों और आयोजनों को तय करेगा, जिससे वह अपने वर्गीय हित के हिसाब से तेखन तैयार कर सके। उन्होंने कहा कि वह इसके लिए नियतिवादियों की तरह यह नहीं मानतीं कि एक दिन जो अच्छा लिख रहा है जो बाजार में नहीं है या बाजार के मापदंड के अनुरूप उसका लेखन नहीं है, इसलिए पाठकों के बीच वह जा नहीं पा रहा है या उसे जाने नहीं दिया जा रहा है। क्योंकि प्रकाशक और राज्य के सबके अपने-अपने हित के हिसाब से किताबों को पहुँचाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि अमेजन भी उसी को पहुँचाता है जो ज्यादा प्रचारित है। सब पूरी तरह से मिलीभगत है। इसके भीतर की जड़ों को बताया जा सकता है। जो जेनुइन लेखक है जो लोकप्रियता के लिए उस तरह से नहीं लिख रहा वह आपके सामने नहीं आता। हम नियतिवादियों की तरह यह नहीं मान सकते कि एक दिन उसको पहचान लिया जाएगा। एक दिन समय आएगा जब उनको देख लिया जाएगा। हम इस तरह से नहीं सोचते। मैं इस तरह से सोचती हूँ कि इसके लिए हमें लड़ना होगा और लड़ना मतलब हवा में तलवारबाजी से नहीं लड़ना। इसके लिए यह होगा कि हमें उत्पादन के उन संबंधों को समझना होगा। उत्पाद की तरह लेखन साबुन नहीं है। लेकिन एब्सट्रैक्ट (अमूर्त) ढंग से वह आपकी कल्चर को चेंज कर रहा है जो आपको पता ही नहीं चलता। वह आपके पूरे दिमाग-मानसिकता को चेंज करता है। वह साबुन नहीं है लेकिन वह है।
उन्होंने कहा कि तो उसे चेंज करने के लिए हमें बराबर इसी मार्केट, इसी बाजार, इसी दुनिया में अपने पाँव जमाकर उसको अपदस्थ करने के लिए अपनी तरह का साहित्य को सामने लाना होगा न कि हम लिख रहे हैं, हमको बाजार से मतलब नहीं, एक दिन दुनिया हमें पहचान लेगी, इस तरह से नहीं होगा। हमें इसी तंत्र, इसी टेक्नोलॉजी, इसी बाजार का इस्तेमाल उन तमाम मेहनतकशों, आमजनों के साहित्य के लिए इसका इस्तेमाल हमें करना होगा, नहीं तो हम पिछड़ जाएंगे। उन्नत टेक्नोलॉजी आ चुकी है, आप कहाँ लड़ेंगे, किससे लड़ेंगे। पुराने जमाने की लड़ाई से आप नहीं चल सकते हैं। और न आप नियतिवादी बन सकते हैं।
प्रस्तुति
कामता प्रसाद

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