सपनीले चेहरे पर उभरते रेशों को
अनजाने ही पहचान लेते थे हम अक्सर
हमारी योजनायें कभी भी कागज़-कलम की मोहताज ना हुईं
उनमें बिना कहे
शामिल था
सिकहर पर रखे गुड़ चुराने का आविष्कार
चुराए हुए गुड़ खाने के स्वाद का भी
समय की चटख धार
दुधारी पर चलने का गुन पहले ही सिखा देती है।
कि जितना इन्तिज़ार होता था लोगों को रविवार का
रामायण देखने के लिए
उससे कहीं ज़्यादा इन्तिज़ार होता था
हमें बुधवार का
कि आज आएगा घर में ब्रेड
और पीने को मिलेगी चाय।
दिवाली की पिछली शाम
जब हमारा इकलौता घर
जिसे एक छोटा कमरा कहा जाना चाहिए;
रह गयी जिसकी दीवार
उदास और बिना चूना लिपी
तुमने उठा ली थी कूंची
और मैंने भी….
आधे-आधे भाग पानी मिला दूध पीने वालों ने
पहली बार देखा बाल्टी में खौलता चूना
जैसे खद-खद उबलता हुआ दूध
जिसने सांवले चेहरे वाली हमारी माँ को बना दिया था ठस्स
और हमें सख्तजान
चूने की काट ने ज़िन्दगी की छलनियों से पहली बार कराया वाबस्ता.
तुमने अपने क़द की आधी दीवार पर पहली बार उकेरा चूना
और उसकी गरम बूँद टपकती रही मेरी आँखों में तेज़ाब की मानिंद
कमरे की छत पर चूने की पच्चीकारी में हमने लिखे अनाम लावारिस दुःख
हमारे हिस्से फूल नहीं थे
लेकिन जहाँ भी हमने देखी फूल भरी क्यारियाँ
रंग दिए गेरू से उनके तिकोने ईंटों को लाल
अपने अकेलेपन के उल्लास में हम
अपने दिलों के राजा-मजूर
उस रात सांवले चेहरे वाली के साथ हमने पिया खौलता चूना
जो भीन गया हमारे फेफड़ों, धमनियों से मज्जा के सोर तलक
रेल के धुंए-सा धुन्धलाया सांवला चेहरा
ठीक वैसे ही जैसे
स्टेशन पर बेबस बच्चे चिपटे हुए हों रोटी के लिए
माँ की चमड़ी से
हम खंखोरते रहे स्याह साड़ी
नहीं पता था तब जल जीवन तो हो सकता है
लेकिन रोटी नहीं
रोटी एक विकल्पहीन संज्ञा है.
पेट की आग पानी से बुझाने का अव्यावहारिक सिद्धांत संवलाई सोख्ता चेहरे वाली
औरत ने ईज़ाद कर ली उस दिन।
भूख और बचपन ने खोज लिए पुरनियों के दुःख और सपने
फिर कभी नहीं की प्रतीक्षा किसी रेल की
नसें पटरियों की तरह देह में बिछ गईं
जिन पर कान लगा कर सुनो तो आती थीं अनजान रेलों की दूर से आती ध्वनि-तरंगें
हमारे बस्ते टिन की एक कुर्सी पर रखे जाते थे आमने-सामने
हमें पता था हमारी पुरानी कॉपियों के कागजों की लुगदी से
सुन्दर मिथिला चित्रकारी की डलिया बन जाया करती थी
जिसमे रखते थे हम बची और खुरची हुई रबरें
आधी अंगुली भर बची रह गयी पुरानी पेंसिले
और दाढ़ी बनाये बचे हुए आरी के आकार के
अधकटे ब्लेड
फिर भी जाने क्यों……!
मैंने अपनी जीभ पर कांटे गड़ाए
गोवर्धन पर घडिया और लाई चढ़ाई
जिसे खाकर बदल जाना था मेरा हॉर्मोन
आ जानी थी मेरी मूंछे
लेकिन
बार-बार हर-बार तुम्हे और खुद को अजमाने के लिए
रसोई में छुपकर खायी मैंने घडिया और लाई
कई प्रयोग किए
और जान लिया गोबर-गोवर्धन के पाखंड को
कि आवारा सड़कों पर रक्षाबंधन के राहगीर फ़िल्मी गीतों की गूँज
भटकती है शून्य में
सदियों की कहानियां
रक्षक और रक्षणीय का समीकरण रचकर
बेग़ैरत भाव-संस्कृति पोसती हैं
रक्षा-सूत के हवाले से।
कहते हैं कि एक डॉक्टर हुआ करते थे जो एक सूत से नाप लेते थे बुख़ार
सूत की महिमा यह थी कि गरीब, गंदे, अपढ़ असंस्कृतों को छूने से बचने के लिए वे सूत से ताप नापने का चमत्कार करते थे
इन्हीं असभ्य-असंस्कृत जनों से मालूम पड़ा कि संस्कृतियों से उपजी घर की पकवानी गंध उदास क्यों करती रही!
मार्च की दुपहरी में तुम्ही ने सुखाये पापड़
मेरी जगह
और तुम्ही ने लगायी आन-जाने पर रोक भी
तुम्ही ने हॉस्टल में रहकर पढ़ने की पैरवी की
और तुम्ही ने जला दिए अनाम ख़त
सफ़ेद फाहों से मेरे दुध मुंहे बच्चे के
नन्हे पांव उठाकर उसके रुई जैसे नितम्बों को पोंछा
और तुम्ही ने ढूँढा मेरे लिए वर और बताई हद
लेकिन हमने ही घर में लगायी यह आग भी कि
नहीं होता कोई ईश्वर कहीं भी, कैसा भी!
आबिदा की ग़ज़ल सुनते हुए मुझे ‘मुसलमान’ संबोधन वाले संगीन आरोप में
हम साथ खड़े रहे
हमने मिलकर कितनी जिरहें की
परिवारों से….खुद से
लड़ी छोटी-छोटी लड़ाईयां बचपनी
और जैसे बख्तरबंद बना लिए
भवितव्य बनते इस समय में
अब भी तेज़ दुपहरी में पापड़ सुखाने हैं तुम्हें अकेले ही
ईश्वर के चालाक चेहरे को उघाड़ कर करनी है दूर देस की तैयारी
किताबों भरे बस्ते के साथ..
लेकिन यह भी कि किताबों के बाजारों में हमें किताबें सही जगह नहीं पहुँचातीं
ख़त जलाने के लिए नहीं..ख़त समझने के लिए
हद बताने के लिए नहीं…हद के पार जाने के लिए
रक्षा-सूत और गोवर्धन ही नहीं
सात फेरों के पाखंड को भी तोड़कर
मन-भवि के शिशु के लिए
करनी है तैयारी
अपनी बेटी के लिए।
डॉ. वन्दना चौबे