चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह, जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह

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वाराणसीः भारत अध्ययन केन्द्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी एवं उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित ‘पालि साहित्य में निहित ज्ञानपरम्परा’ विषयक एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में बीज वक्तव्य देते हुए प्रो. हरि शंकर शुक्ल, पूर्व विभागाध्यक्ष, पालि एवं बौद्ध अध्ययन विभाग, का.हि.वि.वि. ने कहा कि भगवान् बुद्ध ने चार आर्य सत्यों के माध्यम से संसार की समस्याओं के रहस्य को उद्घाटित किया एवं समस्याओं के निदान का उपाय अष्टांगिक मार्ग का पालन बताया। बुद्ध ने पालि भाषा में ही लोगों को उपदेश दिये क्योंकि पालि जनसामान्य की भाषा थी और लोगों द्वारा आसानी से समझी जा सकती थी। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रो. प्रद्युम्न दूबे, पालि एवं बौद्ध अध्ययन विभाग, का.हि.वि.वि. ने कहा कि बुद्ध ने अलग से कोई धर्म नहीं चलाया। उन्होंने धर्म के परिष्कृत रूप को समाज के समक्ष प्रस्तुत किया और रूढ़िवादिता का खण्डन किया।

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अकादमिक सत्र में वक्ता के रूप में डॉ. वेदव्यास पाण्डेय, संस्कृत संस्थान, लखनऊ ने कहा कि बुद्ध की शिक्षायें आज के समय में उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी उस समय में थीं बुद्ध का आचरण सत्य एवं अहिंसा आज विश्वशान्ति के लिए आवश्यक है। वक्ता डॉ. राजेश कुमार मिश्र, असिस्टेंट प्रोफेसर, पालि विभाग, गया कॉलेज, गया, मगध विश्वविद्यालय, बोधगया ने कहा कि भगवान् बुद्ध की शिक्षायें त्रिपिटक में संकलित हैं जो विनय पिटक, सुत्त पिटक और अभिधम्म पिटक के रूप में विभक्त हैं। इसके अध्ययन से ही हम भगवान् बुद्ध उनकी शिक्षायें एवं सनातन को समर्पित योगदान के विषय में जान सकते हैं। वक्ता
डॉ. संजय कुमार, विभागाध्यक्ष, पालि-प्राकृत विभाग, मगध विश्वविद्यालय, बोधगया ने कहा कि पालि ज्ञानपरम्परा ने दुनिया को मध्यम मार्ग पर चलना सिखाया। सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो. रमेश प्रसाद, पूर्व विभागाध्यक्ष, पालि एवं थेरवाद विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी ने कहा पालि भाषा में निहित ज्ञान परम्परा एवं त्रिपिटक की शिक्षाओं का मूल उद्देश्य अज्ञानता से मुक्ति, बुद्धत्व (ज्ञान) की प्राप्ति ही है। अन्य शब्दों में कहंे तो ‘‘चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह। जिनको कछु न चाहिये, वे साहन के साह।।’’
समापन सत्र में सारस्वत अतिथि प्रो. सिद्धार्थ सिंह, पालि एवं बौद्ध अध्ययन विभाग, कला संकाय, का.हि.वि.वि. ने कहा कि जब तक कोई समाज स्त्रियों, बुजुर्गों का सम्मान करता है, अनैतिक आचरण नहीं करता है तब तक उस समाज को किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुँचाई जा सकती है। नागसेन द्वारा रचित गं्रथ मिलिन्दपन्हो भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शन का समेकित रूप है, रथ  एवं उसके अलग-अलग भागों के उदाहरण के माध्यम से मनुष्य के शरीर की चर्चा हुई है, बौद्ध दर्शन, विवेकपूर्ण श्रद्धा की बात करता है न कि विवेकहीन श्रद्धा की। धम्मपद की पहली शिक्षा में कहा गया है कि मन की गति ही समस्त समस्याओं एवं उपलब्धियों का कारक है। पालि साहित्य मे पहली ब्रेन सर्जरी की चर्चा बौद्ध जीवक के माध्यम से की गयी है।
विशिष्ट अतिथि प्रो. विजय शंकर शुक्ल, मुख्य सलाहकार, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, वाराणसी शाखा ने कहा कि पालि साहित्य की ज्ञानपरम्परा एवं बुद्ध की शिक्षाएँ चित्त को श्रेष्ठ आचरण के अनुरूप ढालने की बात करती हैं। जो यशःकाय महापुरुष होते हैं उनका जन्म नहीं होता है उनका प्राकट्य होता है, उदय होता है। बौद्ध केवल यज्ञ की परम्परा को स्वीकार नहीं करते हैं इसके अतिरिक्त सनातन की हर एक परम्परा को स्वीकार करते हैं।
कार्यक्रम का संचालन भारत अध्ययन केन्द्र के सेण्टेनरी विजिटिंग फेलो डॉ. अनूपपति तिवारी ने तथा स्वागतवक्तव्य एवं कार्यक्रम की प्रस्तावना केन्द्र के समन्वयक प्रो. सदाशिव कुमार द्विवेदी ने किया। धन्यवादज्ञापन डॉ. अमित कुमार पाण्डेय एवं डॉ. ज्ञानेन्द्र नारायण राय ने किया। कार्यक्रम में डॉ. जया पाण्डेय, डॉ. गीता योगेश भट्ट, डॉ. मलय झा, डॉ. दिग्विजय त्रिपाठी, डॉ. पंकज पाण्डेय तथा विश्वविद्यालय के अनेक संकायों एवं विभागों के वरिष्ठ प्राध्यापक एवं छात्र-छात्राएँ उपस्थित थे।

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