अथ सनातन कथाः ब्राह्मणों के ज्ञान की कायल है दुनिया

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सुधीर राघव
ईसा से 2000 साल से भी पहले दुनिया में मूर्तिपूजा थी। इसके पुख्ता प्रमाण मिलते हैं। यानी मूलतः सभी लोग हिंदुओं की तरह मूर्तिपूजक थे। इसीसे पश्चिमी एशिया में शब्द निकला सना यानी पूजा और तन यानी देह। ईश्वर को भी देह रूप मानकर मूर्ति बनाकर पूजने वाले सनातन कहलाए।
यहूदियों के पितामह और उनके प्रथम पैगम्बर इब्राहिम ने सबसे पहले अक्केडिया में मूर्तिपूजा का विरोध किया। उन्होंने ईश्वर को देह रूप मानने से इनकार किया। मूर्तिपूजा के विरोध की वजह से इब्राहिम के पूरे कबीले को अक्केडियन राज्य के ऊर प्रदेश यानी अपनी जन्मभूमि छोड़कर जाना पड़ा।
कहा जाता है कि मूर्तिपूजा से व्यथित होकर इब्राहिम ने ईश्वर की खोज में अपने कबीले के साथ एक लम्बी यात्रा शुरू की।
इब्राहिम और उनके कबीले ने मूर्ति पूजा के विरोध में ही ऊर को छोड़ा इसका उल्लेख हजरत मूसा द्वारा रचित तोराह में है। इस कबीले के यर्दन नदी की तराई के प्रदेश में पहुँचने के बाद प्रथम इज़राइली प्रदेश की नींव पड़ी। मगर दो सदी बाद ही यहाँ भीषण अकाल पड़ने के कारण इन इब्राह्मनों (इब्राहिम कबीले के वशंज) को  मिस्र देश में जाकर शरण लेनी पड़ी। एक सदी बीतते बीतते मिस्र ने शरणार्थियों के रूप में आए इन इब्राह्मनों को देवताओं को न मानने पर गुलाम बना लिया गया।
1300 ई. पू. में हजरत मूसा ने इब्राह्मनों को मिस्र की गुलामी से मुक्ति दिलाई। उन्होंने इन इब्राह्मन यहूदियों के लिए पांच पवित्र पुस्तकें रचीं जिन्हें तोराह यानी ईश्वर का संदेश कहा जाता है।
हजरत मूसा के समय ही मिस्र से लेकर मध्य एशिया तक धार्मिक विचारों को लेकर बड़ी उधल- पुथल मची। हजरत मूसा के नेतृत्व में यहूदी जीत रहे थे और देवताओं को मानने वालों और मूर्तिपूजकों को मध्य एशिया से पलायन करना पड़ रहा था। उनमें से बहुत से समुद्र के रास्ते सपाट नोकाओं से दक्षिण-पूर्व की ओर भी भागे।
ऐसे ही काकेशस से माली और सुमाली का कबीला भागकर भारत की तरफ आया और उसने छल-बल तथा प्रपंच से दक्षिण एशिया में असुर साम्राज्य की नींव रखी। यह कैसे हुआ? इसके बारे में हम आगे चर्चा करेंगे।
अनेक ऐतिहासिक प्रमाण बताते हैं कि ईसा से 2000 साल पहले पश्चिम एशिया, मध्य एशिया और मिस्र तक धर्म ने अलग- अलग रूप में अपनी जड़ें जमा ली थीं।
अक्केडियन मूर्ति पूजक थे, असीरियन मूर्तिपूजक के साथ बहुदेववादी भी थे। हवा, पानी, स्वर्ग, समुद्र, नदी, बरसात, उनके पास सबका एक अलग देवता था।
काकेशियन राजा को ही ईश्वर मानते थे, मित्तानी राज्य भी देवताओं को खारिज करता था मगर ईश्वर को मानता था। मिस्र में राजधर्म था। वहाँ राजा ईश्वर का दूत था और इसके अलावा उनके धर्म में ईश्वर के साथ-साथ बहुत से देवता भी थे। कुल मिलाकर मध्य और पश्चिम एशिया में कोई भी अनिश्वरवादी नहीं था।
सभी अपने धर्म को श्रेष्ठ मानते थे, इसलिए उनमें द्वंद्व होते थे और मतभिन्नता की वजह से अक्सर पूरे कबीले को पलायन भी करना पड़ता था। इब्राहिम और उनके कबीले का पलायन भी इसी वजह से हुआ था, क्योंकि वह कबीला यह मानने को तैयार नहीं था कि इंसान के अपने हाथों से बनाई मूर्ति ईश्वर हो सकती है। इब्राहिम के कबीले के  इन इब्राह्मनों ने देवताओं को भी मानने से इनकार कर दिया था।  इस वजह से इनके कष्ट बढ़ते गये। जिस मिस्र ने अकाल के समय इजराइल से भागकर आए इन इब्राह्मनों को शरण दी थी, उसी मिस्र ने मूर्ति पूजा और देवताओं को न मानने पर इन्हें गुलाम बना कर बदतर जिंदगी दी।
इस तरह के बर्ताव से बचने के लिए अलग विचारों के लोगों का दुनिया के इस हिस्से में पलायन तेजी से बढ़ रहा था। ये एक दूसरे पर हमले करते और हारने वाले कबीले को भागना पड़ता। ये सभी दिशाओं में भाग रहे थे। हालांकि इनमें अधिकांश ईश्वर और देवताओं को मानव की तरह देह रूप मानकर ही पूजते थे। इसलिए सनातन थे।
ऐसे काफी लोग  मध्य एशिया, पश्चिमी एशिया और मिस्र के अलग अलग हिस्सों से पलायन कर भारत पहुंच रहे थे। उस समय भारत में कौनसा धर्म था तथा पश्चिम से पलायन कर आए इन अलग अलग विचारों के लोगों का भारत में क्या हुआ? इसकी चर्चा हम इस लेख में आगे चलकर करेंगे।
सृष्टि का निर्माण किसने किया? यह धरती, इंसान, पेड़-पोधे, मनुष्य, जीव-जंतु, सूरज, चांद, सितारे किसने बनाए? ये प्रश्न लगातार मनुष्यों का परेशान कर रहे थे? मध्य एशिया में सबसे पहले एक कबीले के प्रमुख ने इसका जवाब ढूंढा – ईश्वर ने!
ईश्वर की खोज से उनकी सारी जिज्ञासा शांत हो गई थी। पूरा कबीला प्रसन्न था कि उसने कोई बहुत बड़ी चीज ढूंढ ली है। बस बाकी कबीलों वालों से इस बात को मनवाना था।
सभी उन प्रश्नों से परेशान थे अत: ज्यादातर को ईश्वर द्वारा सब रचे जाने का विचार पसंद आया। कुछ चंद ही थे जो इस पर सहमत नहीं थे। उनके साथ लड़ाई लड़ी गई, उनको हारने पर दो विकल्प मिलते थे कि या तो ईश्वर को मानो या जान दो। तीसरा विकल्प जान बचाकर भागने का था, अगर भागने का मौका मिल पाता तो…
इस तरह ईसा से हजारों साल पहले पूरा मध्य और पश्चिमी एशिया ईश्वर के नाम पर लड़ाई का अखाड़ा बन चुका था। मगर ईश्वर को मान लेने पर भी उनके सारे प्रश्न खत्म नहीं हुए। एक नया प्रश्न खड़ा हुआ कि ईश्वर अगर है तो कैसा है?
इस प्रश्न का जवाब किसी ने मूर्ति बनाकर दिया। मूर्ति में दिख रहा ईश्वर इंसान जैसा ही हाथ-पैर वाला मगर ज्यादा आलोकिक था। इसलिए अधिकांश लोग ने यह भी मान लिया कि ईश्वर इस मूर्ति जैसा ही है। मगर ऊर में इब्राहिम कबीले ने मूर्ति को ईश्वर मानने से इनकार कर दिया और ऊर को छोड़ कर ईश्वर की खोज में निकल गया।
इसके बाद ईश्वर का विचार दो भागों में बंट गया।
एक जो ईश्वर को मूर्ति के इंसान जैसी देह वाला मानकर उसे पूज रहे थे, वे सनातन (सना -पूजा, तन-देह) कहलाए और दूसरे आगे चलकर यहूदी जाने गए। इसी विचार से ही बाद में ईसाई और मुस्लिम निकले।
मगर ईश्वर और उसकी मूर्ति भी आ जाने के बाद कई नये प्रश्न निकल आए थे कि यह आंधी, बारिश, तूफान कौन लाता है? हवा को कौन चलाता है? पेड़ों पर फल कौन लगाता है? जमीन के अंदर बीज कौन फोड़ता है?
इसके जवाब में कुछ ने मान लिया कि यह सभी काम ईश्वर करता है, जबकि कुछ इससे सहमत नहीं थे कि सारे काम खुद ईश्वर क्यों करेगा? वह ईश्वर है, वह खुद काम क्यों करेगा. उसकी हैसियत तो राजा से भी बड़ी है। इसलिए हर काम के लिए उसके द्वारा नियुक्त अलग- अलग देवता हैं।
देवता हैं या नहीं अब इस विचार को लेकर फिर से पूरे मध्य और पश्चिम एशिया के कबीलों और राज्यों में जंग छिड़ गई। हारने वालों को जान बचाकर भागना पड़ता।
जब देवताओं का विचार जम गया तो प्राकृतिक आपदाओं का जवाब ढूंढा गया कि देवताओं के नाराज हो जाने से प्राकृतिक आपदाएं आती हैं। तब देवताओं को खुश रखने के लिए बलि प्रथा शुरू की गई।
‘Rituals thats yuor were anithing but serine’ में जॉन नोबेल विलफोर्ड ने ऊर के शाही कब्रिस्तान से मिले प्राचीन मानव खोपड़ी अवशेषों के बारे में बताया है, जिनसे सबसे भयानक तरीके से मानव बलि दिए जाने का प्रमाण मिलता है। कोई बर्छी जैसी नुकीली चीज उनके सिर में घुसाकर बलि दी जाती थी।
बनारस में भी एक प्रसिद्ध मंदिर है, जहाँ कुछ दशक पहले तक इसी तरह सिर में नुकीली चीज से छेदकर मोक्ष दिया जाता था। बनारस में यह बलि प्रथा के रूप में नहीं था बल्कि लोग स्वेच्छा से मोक्ष की कामना से आते थे। मगर मृत्यु देने का तरीका ऊर के कब्रिस्तान के तरीके से काफी मिलता- जुलता था।
 बाइबिल में भी कुछ जगह बलि देने का जिक्र है। मोआब के राजा ने इजराइलियों से युद्ध जीतने के लिए और ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए अपने प्रथम पुत्र और उत्तराधिकारी को जला कर बलि दी। इसी तरह यिप्तह भी अपनी पुत्री की बलि देने का प्रण ईश्वर के आगे लेता है मगर लड़ाई जीतने के बाद दूत उसे बलि से रोक देते हैं और वह पुत्री को आजीवन कुंवारी रखता है।
 पश्चिम एशिया में इब्राहिम कबीले के वंशज इब्राह्मनों का यहूदी धर्म दुनिया का पहला ऐसा ज्ञात धर्म है, जिसके मानने वालों ने अपने चारों ओर फैले प्राचीन धर्म मूर्ति पूजा यानी सनातन का विरोध किया। बहुदेववाद का विरोध किया।
 इस विरोध की उन्होंने बड़ी कीमत भी चुकाई, क्योंकि उनके चारों ओर सनातन और देवताओं को मानने वाले ही राज्य थे। उनके सामने ये इब्राह्मन अल्पसंख्यक थे।
ईश्वर को लेकर अलग धारणा की वजह से इब्राह्मनों को मिस्र में गुलाम बना लिया गया।चार सौ साल की इस गुलामी के खिलाफ हजरत मूसा ने उन्हें एकजुट कर आजादी दिलाई और फिर से इजराइल में बसाया। मगर यहूदियों की यह आजादी भी ज्यादा दिन नहीं चली और मिस्र की तरह ही देवताओं को मानने वाले रोमन साम्राज्य ने उन्हें अपना गुलाम बना लिया।
हालांकि यहूदियों के बार-बार गुलाम होने की इकलौती वजह सिर्फ धर्म ही नहीं था, इसकी वजह उनकी भौगोलिक स्थिति भी थी। असल में इब्राहिम ने अपने कबीले को ऊर से लाकर ऐसे गलियारे में बसा दिया था जो एशिया, अफ्रीका और यूरोप तीन महाद्वीपों को जोड़ने का रास्ता था। किसी भी साम्राज्यवादी के लिए दूसरे महाद्वीप के देशों को जीतना तभी संभव था, जब वह पहले इजराइल में मौजूद यहूदियों को जीतकर गुलाम बना ले।
इस तरह इब्राह्मनों पर लगातार वक्त की दो तरफा मार पड़ रही थी। मगर फिर भी वह अपनी धार्मिक आस्थाओं के साथ डटे हुए थे। इसकी वजह थी कि सभी इब्राह्मनों को एक ही बात सिखाई जाती थी कि यहूदी ईश्वर की सबसे प्रिय कौम है और ईश्वर का स्वर्ग सिर्फ उन्हीं के लिए है।
इस तरह यहूदी उस स्वर्ग के लिए इस दुनिया की हर गुलामी और हर  कष्ट भोगने को मानसिक रूप से तैयार थे। उनके रब्बी इसके लिए उन्हें लगातार तैयार करते थे। कष्ट सहना सिखाने की शुरुआत बचपन से ही हो जाती थी।  सबसे नाजुक अंग शिश्न का छेदन बचपन में ही कर दिया जाता था। लड़कों का खतना करने के पीछे मुख्य विचार यह था कि इससे एक महान कौम बनेगी और वह एक महान राष्ट्र बनाएगी।
जब यहूदियों पर बाहरी हमले होते तो वे बहादुरी से लड़ते। पराजित होने पर गुलाम बना लिए जाते। जिनके पास बच निकलने का मौका होता, वह परिवार सहित जिधर मौका मिलता उस दिशा में पलायन कर जाते। वैसे भी आम दिनों में राजा के कोप से बचने या जान बचाने के लिए परिवारों का पलायन चलता रहता था।
बाइबल में बताया गया है कि राजा हेरोद के अत्याचार से बचने के लिए ईसा मसीह के पिता युसूफ बच्चे और पत्नी मरियम के साथ बेथलेहम से मिस्र चले गए थे।
युसुफ से सदियों पहले से ऐसा पलायन हो रहा था। ऐसे ही इब्राह्मन इजराइल से भागकर यूरोप और एशिया की तरफ भी गए। इनमें से कुछ भारत भी पहुंच रहे थे। यहाँ की संपन्नता, सुख और शांति के जीवन ने उन्हें सम्मोहित किया। उनमें बदलाव भी आया।
मगर पश्चिम और मध्य एशिया से जो लोग भागकर भारत आ रहे थे, उनके साथ सिर्फ उनका परिवार ही नहीं था, उनका ईश्वर भी विचार रूप में साथ आ रहा था, जो न सिर्फ भारत को बदलने वाला था, बल्कि भारत में हो रही वैज्ञानिक उन्नति को खत्म कर पूरी दुनिया की प्रगति को कम से कम पांच हजार साल पीछे धकेलने वाला था। भारत में भी ईश्वर और अनिश्वरवाद के बीच द्वंद्व मचने वाला था और इसकी कीमत समूची इंसानियत को चुकानी थी। पूरी पृथ्वी को चुकानी थी।

पश्चिम और मध्य एशिया से आए लोगों का भारत पर क्या असर पड़ा और उनके प्रभाव से पहले भारत कैसा था? यह इस लेख में हम आगे स्पष्ट करेंगे।

भारत की चर्चा करने से पहले से पहले हमें पश्चिम और मध्य-पूर्व एशिया से जुड़े एक और प्रश्न पर विचार करना चाहिए। वह यह है कि यहूदी धर्म दुनिया में उस तेजी से क्यों नहीं फैला, जिस तेजी से उसी से जुड़ी इब्राहिम और हजरत मूसा की शिक्षाओं को आगे बढ़ाने वाले ईसाई और ईस्लाम धर्म का प्रसार हुआ। या इन सबसे पहले मूर्तिपूजक और देवताओं को मानने वालों का धर्म पूरे क्षेत्र में फैल गया था।
इसकी वजह भी इब्राहिम कबीले की अवधारणा में ही छुपी थी। इब्राह्मन या इब्रानियन सिर्फ खुद को ईश्वर का सबसे प्रिय समझते थे। उन्होंने मृत्यु के बाद जो स्वर्ग की अवधारणा बनाई थी, वह भी सिर्फ उनके लिए ही थी। उनका मानना था कि ईश्वर सिर्फ यहूदियों को ही स्वर्ग में जगह देता है।
यही विचार अन्य लोगों को उनसे तेजी से जुड़ने में बाधक बना, क्योंकि इब्राह्मन भी सबको अपने साथ जोड़ने के बहुत इच्छुक नहीं थे। वह अपना अलग श्रेष्ठतर मानस दर्जा कायम रखना चाहते थे।
दूसरी ओर जब यीशु ने प्रवचन शुरू किए तो उन्होंने यही बताया कि स्वर्ग सबके लिए है। यह कर्मो के आधार पर तय होता है। इसके साथ ही उन्होंने कयामत की अवधारणा दी कि दुनिया के आखिरी दिन ईश्वर सबके कर्मों का हिसाब करेगा। कर्मों के आधार पर सबके लिए स्वर्ग का मौका होगा। ईसा की यह बात गैर यहूदियों को भी अपने साथ जोड़ने वाली बात थी।
हालांकि यीशु बार बार यह कह रहे थे कि वे हजरत इब्राहिम और हजरत मूसा की शिक्षाओं को ही आगे बढ़ा रहे हैं मगर यहूदी धर्म गुरुओं रब्बानियों को यह बात बेहद बुरी लगी कि यीशु ईश्वर के स्वर्ग पर सबका समान अधिकार बता रहे हैं। उन्हें लगा कि यीशु कोई नया धर्म चलाना चाहते हैं और उन्होंने रोम के गवर्नर से शिकायत कर यीशु को सलीब पर लटकवा दिया।
इस कृत्य ने गैर यहूदियों को यहूदियों से और दूर कर दिया। इसका प्रभाव यह हुआ की ईसा बाकी सबके मसीहा बन गए। मगर यहूदियों ने उन्हें मसीहा नहीं माना।
इसके छह सौ साल बाद जब मध्य पूर्व में इस्लाम का उदय हुआ तो इस्लाम का उद्देश्य ही था कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने साथ जोड़ना। उस काल तक देवी- देवताओं को मानने वाले बहुत से कबीले नर बलियां दिया करते थे।
नर बलि की जगह मेढ़े या बकरे की कुर्बानी भी पर्याप्त है, इस विचार ने नर बलि के भय में जीने वाले समाजों को आकर्षित किया।

मृत्यु के बाद स्वर्ग का विचार बेहद आकर्षक था और इसके आगे भारत में पनप रही वैज्ञानिक सोच धराशायी हुई, क्योंकि मौत के बाद स्वर्ग सबको चाहिए था।

सनातन की इस चर्चा को भारत के संदर्भ में आगे बढ़ाने से पहले कुछ बातों को स्पष्ट करना जरूरी है। कुछ शब्दों को लेकर, खासकर इब्राह्मन और सनातन शब्द पर।
सबसे पहले सनातन शब्द की बात करते हैं। ऋग्वेद में आए सनातन शब्द का अनुवाद पिछले कुछ सौ वर्षों से शाश्वत या सदैव से मौजूद धर्म के रूप में किया जा रहा है।
इसका अनुवाद शाश्वत या सदैव से मौजूद होने वाले के रूप में करना वेद की समूची अवधारणा का उल्लंघन है। वेद में कोई बात उसकी मूल अवधारणा का उल्लंघन नहीं करती। समस्त सृष्टि के बारे में वेद की अवधारणा नेति नेति की है। जब प्रारंभ में कुछ भी नहीं था तो कोई धर्म या नियम शाश्वत कैसे हो सकता है? ऋग्वेद का नासदीय सूक्त इसका प्रमाण है। सनातन का अर्थ शाश्वत करना वेद के विपरीत जाना है।
सना और तन दोनों शब्द मध्य एशिया से हैं। सना का अर्थ पूजा है और तन का अर्थ देह है। भारत और मध्य एशिया का संबंध अति प्राचीन है। यह वेदों के समय से है। इसके अनेक प्रमाण है।
अब बात करते हैं इब्राह्मन की।
इब्राह्मन शब्द को भारतीय ब्राह्मण शब्द से जोड़कर कदापि न देखा जाए। दोनों एकदम भिन्न हैं। इब्राहिम कबीले के वंशजों को इब्राह्मन या इब्रानियन कहा जाता है।
जबकि ब्रह्मण चार मूल भारतीय वर्णों में से एक हैं, जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से बताई गई है।
इब्राह्मन का धर्म यहूदी है और वे स्वयं को ईश्वर का सबसे प्रिय मानते हैं। स्वयं को स्वर्ग का अधिकारी मानते हैं। इसलिए अन्य से श्रेष्ठ मानते हैं। यह दूसरी बात है कि अन्य समुदायों ने उन्हें कभी अपने से श्रेष्ठ नहीं माना। मिस्र ने उन्हें चार सौ साल तक गुलाम बनाकर रखा। हजरत मूसा ने उन्हें आजादी दिलाई। मगर यह आजादी भी ज्यादा दिन नहीं टिक पाई। देवताओं को मानने वाले रोमनों ने उन्हें अपना गुलाम बना लिया।
यह भविष्यवाणी हुई थी कि रोमनों की गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए फिर से मसीहा जन्म लेने वाला है, मगर ईसा मसीह को यहूदियों ने अपना मसीहा ही नहीं माना।‌ उसके दो हजार साल बाद नाजी हिटलर के यहूदियों पर अत्याचार तक की दहलाने वाली कहानियां इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। इस तरह अन्य कौमों ने यहूदियों को कभी अपने से श्रेष्ठ नहीं माना।
दूसरी ओर भारतीय ब्राह्मण चारों वर्णों में सदैव सबसे श्रेष्ठ माने गए। अन्य तीनों वर्णों ने भी उन्हें अपने से श्रेष्ठ माना। प्राचीन भारतीय राजाओं ने ब्राह्मणों को अपना मुख्य सलाहकार रखा।
मगर इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि यहूदियों ने दुनिया को एक से एक महान वैज्ञानिक और चिकित्सा क्षेत्र के विशेषज्ञ दिए हैं। अब तक विज्ञान के सभी नोबेल पुरस्कार में 20 फीसद यहूदी वैज्ञानिकों के नाम रहे हैं। उसी तरह भारत में भी ब्राह्मण समुदाय ने अनगिनत विद्वान दिए हैं। उनके ज्ञान की भी दुनिया कायल है।

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