पुस्तक समीक्षाः मूसा से मार्क्स तक

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मूसा से मार्क्स तक-नरेश कुमार

हम कितना भी मार्क्सवादी साहित्य क्यों ना पढ़ ले, लेकिन यह कहना मुश्किल होता है कि उसे पूरी तरह समझ गए हैं। ढेरों अनसुलझी बातें, ढेरों वैचारिक पहेलियां हमारे जेहन में घूमती रहती है। किसी वास्तविक समस्या का क्या मार्क्सवादी समाधान होगा यह कहना कठिन होता है। हम कब व्यवहारवादी होते हैं, कब मार्क्सवादी इसे तय करना भी मुश्किल होता है। हमेशा यह लगता है कि हमारी समझ एकांगी है और समाजवादी समाज के बारे में हमारी समझ न सिर्फ अधूरी है बल्कि अंतर विरोधी भी है। इस दायरे में पढ़ाई-लिखाई पर इतना जोर है और पढ़ने के लिए इतनी अधिक किताबें और साहित्य है कि कई बार डर लगने लगता है कि इतना तो हम पूरे जिंदगी में भी नहीं पढ़ पाएंगे। यह बात एक नाउम्मीद ही पैदा करती है। हम पढ़-लिखे व्यक्ति का अपना एक निजी मार्क्सवाद है और दो लोगों के मार्क्सवाद में क्या बुनियादी फर्क है इसे समझना तो और मुश्किल है। आज हम में से अधिकांश लोग इन्हीं जटिलताओं में फंसे हुए हैं और उनकी ऊर्जा बेकार जा रही है।

अनंत सवालों के इस दौर में सैयद सिब्ते हसन की किताब “मूसा से मार्क्स तक” एक रोशनी की नई किरण की तरह है। सैयद सिब्ते हसन आजादी के बाद पाकिस्तान में बस गए थे। वहां पर उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में आजीवन काम  किया। जमीनी स्तर पर काम करने से वे आम लोगों के सवालों और जिज्ञासाओं को समझ पाए। इन्हीं सवालों को ध्यान में रखते हुए आम लोगों की समझ को व्यवस्थित करने के मकसद से यह किताब लिखी। वैसे तो इस किताब का समय 1976 का है लेकिन इसका महत्व शायद आज अधिक है। वे वैचारिक विरोधाभास जो उस समय भ्रूण के रूप में थे आज खुलकर सामने आ चुके हैं, जिनको यह किताब संबोधित करती है।

एक तरह से देखा जाए तो यह किताब समाजवादी विचारों के विकास के इतिहास के रूप में है। लेकिन इस इतिहास की शुरुआत मार्क्स से नहीं होती बल्कि प्राचीन समाज से होती है। स्वयं मार्क्स उस विकास प्रक्रिया की एक कड़ी के रूप में हमारे सामने आते हैं। मार्क्स की रचनाएं किसी आसमानी प्रेरणा या विशेषज्ञता का नतीजा नहीं थी कि जिसकी इबादत की जाए। इस तरह समाजवादी चिंतन को आम जनजीवन के करीब लाने और इस प्रक्रिया को आगे ले जाने में लोगों को भागीदार बनाने में यह किताब एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह किताब सरल तो है लेकिन कहीं से सतही नहीं है।मार्क्सीय चिंतन की पूरी गहराई और व्यापकता में जाती है। उसके दार्शनिक, वैचारिक, राजनीतिक, अर्थशास्त्रीय, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि तमाम पक्षों को बहुत  स्पष्टता और सहजता से पाठक के सामने खोलती है।इस प्रक्रिया में लेखक हमारे समाज की यांत्रिकता, नियतिवादिता और अर्थवादी विसंगतियों को भी उजागर करती है और एक सुसंगत और जैविक समझ बनाने में मदद करती है। या यूं कहा जाए कि यह हमारे चिंतन को बंधन मुक्त करके एक निडर समाजवादी बनाने में मदद करती है।

किताब की शुरुआत आदिम साम्यवादी समाज के जीवन को नए सिरे से समझने से होती है। यहां से आगे बढ़ते हुए मूसा और बनी इजरायल कबीले के सामाजिक जीवन तक पहुंचती है। ओल्ड टेस्टामेंट जिसमें ईश्वर द्वारा मूसा को दिए गए निर्देशों का संकलन है। इन निर्देशों में नए समाज के वर्गीय विभाजन, जमीन के निजी मालिकाने, निजी संपत्ति आदि की जो आलोचना है उसे लेखक सामने लाता है। वास्तव में इन किताबों को धार्मिक नजरिए से देखने से आगे जाकर उस समय के समाज में जो वैचारिक चर्चा थी उसके संदर्भ और वर्गीय स्वरूप को सामने लाने से वह पूरी परिघटना हमारे सामने एक प्रक्रिया के रूप में स्पष्ट होती है। यहीं पर दो तरह के जीवन मूल्यों, सामाजिक मूल्यों की टकरा हट भी साफ तौर पर दिखाई देती है।

इससे आगे बढ़ते हुए ग्रीक समाज में चल रही दार्शनिक और राजनीतिक चर्चाओं को बेहद जीवंत और वस्तुगतता के साथ सामने लाया गया है। स्पार्टा के फौजी साम्यवाद, प्लेटो (अफलातून) के वैचारिक-दार्शनिक साम्यवाद और फिर ईसा मसीह के मानवीय साम्यवाद की वैचारिकी को सामने लाकर मज्दक आंदोलन की विस्तार में चर्चा की गई है। मज्दक चौथी शताब्दी का एक क्रांतिकारी चरित्र है। मज्दक का कहना था –

‘धनी और निर्धन बराबर हैं और एक को दूसरे पर प्रधानता का अधिकार नहीं है। सांसारिक संपत्ति में सबको समान हिस्सा मिलना चाहिए। धनवान के पास धन की अधिकता अनुचित है। इसलिए स्त्री, मकान और भौतिक वस्तुएं सब में बराबर बराबर बांटी जानी चाहिए। मैं यह सारे काम अपने पवित्र धर्म के माध्यम से संपन्न करूंगा।‘

मज्दक दजला नदी के किनारे मादराया शहर का रहने वाला था। उस की बढ़ती लोकप्रियता और उसके धर्म की स्वीकारता से परेशान होकर उस समय के राजा ने उसे षड्यंत्र करके मरवा दिया। उसके बाद तमाम तरह की वैचारिक चर्चाओं को एक दूसरे से जोड़ते हुए सैयद सिब्ते हसन सर थॉमस मूर की किताब ‘यूटोपिया’ पर आते हैं। इस पूरे दौर में अब्राह्मी धर्मों के बाहर तमाम तरह की छोटी-बड़ी वैचारिक धाराएं मौजूद थी जो अपने-अपने तरीके से समानता और सामुदायिकता के विचारों को सामने लाती थी और उसका प्रभाव संगठित धर्मों की वैचारिकी पर भी पड़ा।

‘यूटोपिया’ किताब का समाजवादी विचारों के इतिहास में एक निर्णायक महत्व है। कहते हैं कि इस किताब में जिन समाजवादी विचारों को प्रस्तुत किया गया है उसकी प्रेरणा हिंदुस्तानी कबीलों के सामुदायिक जीवन से मिली थी। यह किताब उस समय के यूरोप के सामाजिक-आर्थिक जीवन और चर्च की निरंकुशता की गंभीर आलोचना है और इस आलोचना के जरिए टॉमस मूर एक नए समाजवादी समाज की परिकल्पना प्रस्तुत करते हैं। यहां से आगे बढ़ते हुए लेखक बेकन के भौतिकवाद और काल्पनिक समाजवाद की विभिन्न धाराओं की वैचारिकी पर आता है। इसी बीच में हेराक्लाइट्स (535 ईसवी पूर्व) और डेमोक्रेट्स (460 ईसवी पूर्व) की समाजवादी प्रस्थापनाओं को भी सामने लाते हैं। फ्रांस की क्रांति के पहले की कई तरह की समाजवादी प्रयासों- विचारों की चर्चा करते हुए फ्रांसीसी क्रांति से पैदा हुई समाजवादी चर्चा को सामने लाते हुए कार्ल मार्क्स तक आते हैं।

कार्ल मार्क्स की उन्होंने बहुत विस्तार में चर्चा की है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस चर्चा का आधार वह सिर्फ मार्क्स की चर्चित किताब ‘पूंजी’ को ही नहीं बनाते बल्कि उसके साथ ही ‘जर्मन आइडियलजी’, ‘1844 की आर्थिक दार्शनिक पांडुलिपियां’, ‘ग्रुंडसे’, ‘होली फैमिली’ और स्वयं मार्क्स के जीवन संघर्ष को भी चर्चा में ले आते हैं।इस प्रक्रिया में ‘अलगाव’ के सवाल को स्पष्ट करते हैं और यह बताते हैं कि इस ‘अलगाव’ को खत्म करना ही समाजवाद की ओर आगे बढ़ना है। इसी के साथ हुए अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत, श्रमिक वर्ग की भूमिका, वर्ग संघर्ष और राजनीतिक अर्थशास्त्र के बारे में बहुत ही सहज और गहराई के साथ मार्क्स के दृष्टिकोण को पाठक के सामने रखते हैं। फिर भी कम्युनिस्ट घोषणापत्र की वैचारिकी को स्पष्ट करते हुए पेरिस कम्यून एवं प्रथम इंटरनेशनल की भूमिका को सामने लाते हैं। एंगेल्स की भूमिका को भी हुए पूरे विस्तार से रखते हुए उनकी मार्क्स के साथ सच्ची मित्रता की बात सामने लाते हैं।

इस आलेख में सैयद सिब्ते हसन के इस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कार्य को पूरी तरह समेटना संभव नहीं है लेकिन एक बात तो स्पष्ट है की मार्क्स को एक संपूर्णता में समझने में यह किताब सामान्य पाठक को बहुत मदद करती है। पाठक के सामने समाजवादी समाज की एक साफ तस्वीर बनती है और उसे जमीन पर उतारने में अपनी भूमिका समझ में आने लगती है। मानव सभ्यता के सांस्कृतिक-वैचारिक इतिहास के साथ पूरी तरह से संबद्ध मार्क्स को देखना एक नई दृष्टि और नई उम्मीद देता है। यह हमारे इतिहास और संस्कृति से हमारे ही अलगाव को खत्म करके हमें एक नई शक्ति और विश्वास देता है।

‘मूसा से मार्क्स तक’ किताब का उर्दू से हिंदी में अनुवाद डॉक्टर फिदा हुसैन ने किया है जो उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में एक लोकप्रिय और योग्य डॉक्टर हैं और कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य हैं। इस शानदार अनुवाद के लिए उनकी जितनी भी तारीफ की जाए वह कम है। सैयद सिब्ते हसन ने कई और किताबें लिखी हैं और उनकी सारी किताबें समाजवादी आंदोलन से जुड़े लोगों के लिए बहुत उपयोगी हैं।   ‘मूसा से मार्क्स तक’ किताब को गार्गी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है, इसके लिए प्रकाशक कि हम दिल से प्रशंसा करते हैं।
(वर्तमान साहित्य पत्रिका से साभार)

 

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