बम्बई में का बा बनाम बिहार में का बा

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संतोष कुमार

 

कोरोना त्रासदी की रचना्त्मक अभिव्यक्तियां विभिन्न प्रकार के माध्यमों से लोकप्रिय हो रहीं है। जिसमें आजकल एक चर्चित रैप बम्बई में का बा भी काफी लोकप्रियता प्राप्त कर रहा है। अनुभव सिन्हा द्वारा निर्देशित और मनोज बाजपेयी द्वारा अभिनीत यह रैप चन्द घण्टों में ही हिन्दी पट्टी पर छा गया मानो सड़क पर भूखे प्यासे घिसटते हुए घर वापस आए पूरबिया के आहत स्वाभिमान पर मरहम लगाया है। इस रैप में पुरबिया ने वर्गफुट में घमण्ड करने वालों को बताया कि हमलोग बिगहा (जमीन के क्षेत्रफल की एक देशज इकाई जिसमें एक बीघे या बिगहे में लगभग 17452 वर्गफुट होता है) में अपना घर दुआर रखते हैं।

यानि इस रैप का नायक उस बिहार का प्रति निधित्व नही कर रहा है जहां के ग्रामीण क्षेत्र में 65 प्रतिशत परिवार भूमिहीन है अपितु यह नायक बिहार के उस हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है जिसके पास इतना भूगोल है कि वो महानगर में वर्गफुट में जीने वालों की खिल्ली उड़ा सके। सामाजिक संरचना में यह हैसियत बिहार और पूर्वाचंल के सवर्ण और ताकतवर पिछड़े समुदाय से आने वाले विपन्न युवक की है जिसकी सारी प्रतिभा और क्षमता का महानगर ने दोहन कर उसको निष्प्रयोज्य बर्तन की तरह फेंक दिया है और इसे बस हवा में उड़ते पालीथिन के थैले की तरह किसी गटर में अटक कर रह जाना है। इसके पास बिहार में थोड़े कम में लेकिन स्वाभिमान से जी लेने की सम्भावना है लेकिन उसके सपनों को उड़ान मुम्बई ही दे सकती है। यह युवा बिहार में जी नही सकता है और मुम्बई में मर नही सकता है। यह जब मुम्बई पहुंचता है तो उसको पूर्वाचंल और बिहार में छूट गयी सामाजिक पूंजी याद आती है और जब बिहार पहुंचता है तो यहां की सामाजिक जकड़न और आर्थिक गतिहीनता के बरक्स उसके सपनों में मुम्बई झिलमिलाती है।

इसी के समानान्तर एक नवोदित गायिका द्वारा गाया गया एक रैप बिहार में का बा भी लोकप्रियता बटोर रहा है। यह भी बिहार के सम्भावना विहीन भविष्य, मर्दवादी अपसंस्कृति और बर्चस्ववादी राजनीति में घुटते युवाओं का दर्द है। यह गीत कमजोर सामाजिक आधार वाले उसी बिहार और पूर्वाचंल के गांव के दलितों कमजोर पिछड़ों और महिलाओं के संत्रास को बयान करता है। जिसके पास अपनी ही जन्मभूमि पर अपने पावों के नीचे खड़े रहने भर की भी जगह नही है। यह दूसरा गीत बिहार के उस युवा का बयान है जिसको सभी राजनैतिक दलों ने स्वास्थ्य विभाग द्वारा मुफ्त में बांटे गए निरोध के गुब्बारों की तरह फुला–फुला कर बच्चों का खिलौना बना दिया और जिसकी नियति कुछ देर हवा में उछलते रहकर फट कर बिखर जाने के अलावा कुछ नही है।

इस प्रकार ये दोनो गीत इस मायनें में एक विरल सांस्कृतिक घटना है कि इन दोनो गीतों ने बिहार की त्रासद राजनैतिक और सामाजिक पक्षों को एक दूसरे का पूरक बनकर उजागर किया है और शायद भोजपुरी यहां से पुर्नजन्म ले रही है जो अपने अश्लील और भौंड़े नायकों से मुक्त होकर गंभीर सामाजिक मुद्दों पर विर्मश का माध्यम बनेगी।

 

 

 

 

 

 

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