बिहार के नियोजित शिक्षकों का हाल-बेहाल

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दिनांक 23 अप्रैल 2020 को NEWS18 हिन्दी के हवाले से “वेतन के अभाव में बिहार के चार नियोजित शिक्षकों ने तोड़ा दम, अबतक 60 की हो चुकी है मौत” खबर पढ़ा. यह खबर किसी भी सह्रदय को विचलित करने के लिए काफी है. कोरोना से अबतक बिहार में मात्र 2 मौतें हुई हैं, जबकि लगभग उसी काल में 60 शिक्षक काल के गाल में चले गए थे. यदि समय पर वेतन मिला होता तो शायद यह आंकड़ा 60 पर नहीं गया होता, परन्तु यहाँ तो हड़ताल के कारण वेतन ही रोक दिया गया है.
कोरोना काल के रोकथाम हेतु पूरे देश में 25 मार्च से लॉकडाउन जारी है. दूसरा कोई विकल्प भी तो नहीं है. लगभग 13-14 मार्च से ज्यादातर राज्यों में शैक्षणिक संस्थान विद्यार्थियों के लिए बंद कर दिए गए. उसी वक्त से बिहार में भी बंद है. कई बोर्ड के वार्षिक परीक्षा अभी चल ही रहे थे, लेकिन बिहार बोर्ड 10वीं तथा 12वीं की परीक्षा कराकर कॉपी मूल्यांकन शुरू कर चुका था जिसके परिणाम स्वरूप 25 मार्च 2020 को 12वीं का परिणाम भी जारी कर दिया. यह पूरे देश में 2020 का पहला बोर्ड परीक्षा परिणाम रहा. आनफानन में जैसे-तैसे 12वीं का परिणाम तो आ गया पर 10वीं का लटक गया क्योंकि लॉकडाउन तक मूल्यांकन अधूरा था. जिसका मुख्य कारण था नियोजित शिक्षकों का हड़ताल. 12वीं के मूल्यांकन में निजी एवं सरकारी महाविद्यालयों के शिक्षकों से मदद मिल गई थी.
बिहार बोर्ड की उच्च माध्यमिक परीक्षा-2020 की शुरुआत 17 फरवरी से हुई और उसी के साथ शुरू हुई नियोजित शिक्षकों की हड़ताल. जबकि एक सप्ताह पहले से ही सरकार हिदायत देते हुए डराने-धमकाने लगी थी फिर भी ज्यादातर शिक्षक हड़ताल पर चले गए. किसी तरह परीक्षा तो संपन्न हो गयी लेकिन मूल्यांकन के समय मुश्किलें बढ़ने लगीं. शिक्षक आन्दोलन भी उग्र होने लगा था और सरकार भी सख्त. स्थिति को देखते हुए कई शिक्षकों ने मुल्यांकन केंद्र पर योगदान कर दिए तो कई ने नहीं किये. कहीं-कहीं तो हड़ताली शिक्षकों ने मुल्यांकनरत शिक्षकों को पिटा भी, क्योंकि यह आन्दोलन सबके हित के लिए था, परन्तु कुछ उनका साथ नहीं दे रहे थे. नियोजित शिक्षकों के बीच भी कई प्रकार के संगठन, राजनितिक गुटबाजी एवं जातीय गुटबाजी के साथ-साथ कुछ शिक्षक नेताओं की स्वार्थ सिद्धि बताई जाती है. जिसके कारण कुछ शिक्षक आन्दोलन में साथ नहीं देते हैं.कुछ व्यक्तिगत कारण से हिस्सा नहीं लेते. कुछ इन्सान का तो स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे करेंगे कुछ नहीं और चाहेंगे कि सब मलाई मुझे भी मिलता रहे. ऐसे स्वभाव वाले हर समूह, संघ या समाज के लिए घातक होते हैं. खैर.
आज विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम को देखते हुए कई सरकारी और निजी शिक्षण संस्थान ऑनलाइन शिक्षण करा रहे हैं. कुछ जगहों पर तो बहुत ही बेहतर तरीके से चल रहा है परन्तु ज्यादातर जगहों पर औपचारिकता मात्र है. अचानक सा ऑनलाइन शिक्षण व अध्ययन से बहुत सारे विद्यार्थी और अध्यापक असहज महसूस कर रहे हैं. उम्मीद है कि दिनोंदिन सकारात्मक असर पड़ेगा. बहरहाल बिहार बोर्ड के स्कूल में तो यह व्यवस्था लागू करना बहुत ही मुश्किल है क्योंकि बिहार के सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चों की पारिवारिक स्थिति दयनीय है, फ़िलहाल शिक्षकों का हड़ताल भी तो जारी है.
बहरहाल, अब आइए देखते हैं कि आख़िरकार यह हड़ताल क्यों है? सर्व शिक्षा अभियान के तहत पूरे देश में एक नया टर्म चला ‘शिक्षामित्र’. वास्तव में उस वक्त दलील दिया गया कि इसके जरिये कम बजट में अधिकांश लोग को रोजगार दिया जा सकेगा और पैसा स्कूल, बिल्डिंग व बच्चों पर खर्च कर साक्षरता दर में बढ़ोतरी की जा सकेगी. वास्तव में विद्यालयों में विद्यार्थीं तथा शिक्षकों की संख्या में बढ़ोतरी तो हुई लेकिन गुणवत्ता के नाम पर नील बटा सन्नाटा होता चला गया. यदि सच कहा जाये तो शिक्षक प्रजाति के लिए अटल जी की सरकार विनाशक साबित हुई. एक तरफ पुराने पेंशन बंद कर दिए गए, दूसरी तरफ शिक्षकों को शिक्षा मित्र में तब्दील कर दिया गया.
बिहार सरकार द्वारा 2003 में सभी पंचायत समिति को निर्देश दिया गया कि अपने-अपने पंचायत के प्राथमिक विद्यालयों में 10 वीं तथा 12वीं में प्राप्त अंक के आधार पर ग्यारह माह के लिए अनुबंध पर शिक्षकों की नियुक्ति करें. यह अनुबंध आगे चलकर स्थायी रूप ले लिया. 1500 प्रतिमाह की नौकरी के लिए भी होड़ मच गयी जिसमें ज्यादा मुखियाओं ने अपने सगे-सम्बन्धियों की नियुक्ति कर दी. कहीं-कहीं तो खूब धांधली हुई. कुछ पंचायत समिति को पैसा देकर नौकरी पाए तो कुछ फर्जी अंकपत्र देकर. खैर यह अपने देश में कौन सी नयी बात है, धांधली की खबर तो लगभग हर बहाली में आज भी दिख ही जाते हैं.
2005 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने वादा किया कि यदि हम सत्ता में आये तो सभी शिक्षामित्रों को स्थायी कर देंगे. नीतीश कुमार के नेतृत्त्व में एनडीए की सरकार बनते ही नवम्बर, 2005 में शिक्षा-मित्रों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया. यह शिक्षा मित्रों का पहला विरोध प्रदर्शन था. तत्पश्चात बिहार सरकार ने ‘बिहार प्रखण्ड नगर नियोजन नियमावली-2006’ बनाकर 01 जुलाई 2006 से लागू की. इसी नियमावली के तहत शिक्षामित्र को नियोजित किया जाने लगा और स्थायी भी कर दिया गया. 2003 के बाद 2006 में नयी नियमावली के तहत नियोजन बहाली हुई जिसमें माध्यमिक विद्यालय में भी शिक्षक बहाल किये गए लेकिन 2006 में भी कोई परीक्षा नहीं ली गई. 2006 में 1500रु से बढकर 4000रु प्रतिमाह मानदेय कर दिया गया. कई बार मीडिया के लोग जाकर एक्का-दुक्का शिक्षकों का वीडियो बनाने लगे और एक धारणा विकसित कर दी गयी कि नियोजित शिक्षकों को कुछ नहीं आता है. बिहार प्रारम्भिक विद्यालय शिक्षक नियुक्ति नियमावली-1991 के तहत आयोग द्वारा 1994, 1999 एवं 2000 में नियुक्त वेतनमान वाले शिक्षक तो शुरू से ही इनके प्रति अलग नजरिया अपनाये हुए थे जिस पर मीडिया ने कुछ शिक्षकों के आधार पर मुहर लगाने का काम कर दिया.
नियोजित शिक्षकों को स्थायी करते ही उन्हें प्रशिक्षित कराने का भी दबाव सरकार पर बनने लगा. बिहार सरकार द्वारा इग्नू तथा एनओयू से सम्पर्क करके प्रथम चरण के तहत 2007-09 में 40000 शिक्षकों को प्रशिक्षित किया गया. बाद में लगभग सभी अप्रशिक्षित शिक्षकों को प्रशिक्षित करा दिया गया. बिहार शिक्षक पात्रता परीक्षा-2011 के बाद तो ढेर सारे शिक्षक नियोजन से पहले ही प्रशिक्षित थे. टीईटी-2011 के तहत पहली नियोजन पूर्व पात्रता परीक्षा ली गई. प्राथमिक, उच्च-प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्च-माध्यमिक के लिए अलग-अलग पात्रता परीक्षा ली गई थी. पात्रता परीक्षा के प्राप्तांक और शैक्षणिक प्राप्तांक को मिलाकर मेरिट बनाई गई.
पात्रता-परीक्षा (टीईटी-2011) के आधार पर नियोजन होने के कारण पहले की तुलना में थोड़े बेहतर शिक्षक बहाल हुए. तब नव नियोजित शिक्षकों का मानदेय प्रशिक्षित शिक्षक (बेसिक ग्रेड) – 7000रु, अप्रशिक्षित शिक्षक (बेसिक ग्रेड) – 6000रु, प्रशिक्षित शिक्षक (स्नातक ग्रेड) – 8000रु, एवं अप्रशिक्षित शिक्षक (स्नातक ग्रेड) – 7500रु प्रतिमाह तय किया गया. मानदेय इतना कम था कि प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने वाले नियोजित शिक्षक दूसरी नौकरियों में धरल्ले से जाने लगे. 2012 में नियोजन के शिक्षकों की संख्या अच्छी खासी हो गई थी, इसलिए 2009 में शुरू हुए ‘समान काम समान वेतन’ आन्दोलन जोर पकड़ने लगा. आखिर विरोध क्यों न करें? एक ही विद्यालय में नियोजित को 7000 से 10000 तक प्रतिमाह और वेतनमान वाले को 50000 से 80000 हजार तक प्रतिमाह मिलता था. राज्य सरकार के कर्मचारियों में इनकी गिनती भी नहीं होती है. बिहार विधानसभा चुनाव-2015 के मद्देनजर शिक्षकों ने विरोध और तेज कर दिया. कई बार शिक्षक पुलिस की लाठी से लहूलुहान हुए. 74000 स्कूलों में 41 दिनों के हड़ताल से सरकार दबाव में आकर चुनाव पूर्व 01 जुलाई 2015 से वेतनमान देने का निर्णय ली. अफ़सोस वेतनमान तो मिला लेकिन शिक्षकों वाला नहीं. जिनका दो साल पूरा हो चुका था उनके लिए 5200 – 20200 बेसिक तथा 2000, 2400 एवं 2800 ग्रेड पे तय किया गया. जबकि केंद्र सरकार व तमाम राज्य सरकारों द्वारा निर्धारित 9300 – 34800 बेसिक तथा 4200, 4600 एवं 4800 ग्रेड पे है. फ़िलहाल जो मिला उसी पर लड्डू बाँट कर संतुष्ट हो लिए और यह मान लिए कि जब वेतनमान मिल गया तो वह भी मिल ही जाएगा परन्तु राह इतना आसान कहाँ? शिक्षक संघ सड़क पर आन्दोलन के साथ ही न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाया. पटना उच्च न्यायालय द्वारा 31 अक्टूबर 2017 को फैसला शिक्षकों के पक्ष में सुनाया गया. शिक्षकों के बीच ख़ुशी की लहर दौड़ गयी. सड़क से सोशल मीडिया तक लड्डू खाते और गुलाल लगाते दिखे शिक्षक.
बिहार सरकार भी कहाँ मानने वाली थी. मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा. शुरुआत में तो सर्वोच्च न्यायालय पटना उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगाने से इंकार किया, फिर कहा पहले आप उनकी 40 प्रतिशत तनख्वाह बढाइये. जब चपरासी को न्यूनतम 34000 प्रतिमाह दिया जाता है, तो फिर इन्हें 20000-25000रु ही क्यों? लेकिन राज्य सरकार द्वारा तमाम दलीलों के साथ न्यायालय को बताया गया कि मूल वेतनमान देने में 9500 करोड़ रूपये का राज्य सरकार पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा साथ ही केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकार का समर्थन करते हुए 36 पन्नों के हलफनामा में कहा गया कि यदि शिक्षकों को मूल वेतनमान दिया गया तो केंद्र सरकार पर 36998 करोड़ का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा और दूसरे राज्यों में भी इसका असर पड़ेगा. तब तक नीतीश कुमार महागठबंधन से पलटी मारकर एनडीए में आ चुके थे. नियोजित शिक्षकों का वेतन 30% राज्य सरकार तथा 70% केंद्र सरकार द्वारा वहन किया जाता है. 10 मई 2019 को सर्वोच्च न्यायालय ने 136 पन्नों के फैसले में पटना उच्च न्यायालय के निर्णय को पलट दिया. उम्मीद से लबरेज शिक्षकों के पांव से जमीन खिसक गई. आरोप लगा कि यह निर्णय कार्यपालिका के दबाव में दिया गया है. खैर आरोप जो भी लगाइए सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय तो शिक्षकों के तकदीर पर पत्थर की लकीर सी खिंच गई. बिहार में 16 लोकसभा संसदीय क्षेत्र के मतदान आखिरी दो चरण में होने शेष थे. कई शिक्षक कहने लगे कि यह फैसला केंद्र सरकार के दबाव में दिया गया है इसलिए वोट देते समय याद किया जायेगा. परन्तु वोट देते समय बिहार में शिक्षा, स्वास्थ्य एवं रोजगार को कौन याद करता है, यहाँ तो दिमाग से नहीं बल्कि दिल से भावना में बहकर वोट देने वालों की भीड़ भर गयी है. खैर…
5 सितम्बर 2019 को सरकार के तमाम हिदायत के बावजूद नियोजित शिक्षकों ने ‘शिक्षक दिवस’ का पुरजोर विरोध करते हुए ‘समान काम समान वेतन’ की मांग करते पटना पहुँच गए. अब बिहार विधानसभा चुनाव-2020 को सामने देखते हुए शिक्षक संगठनों ने 17 फरवरी से हड़ताल पर चले गए, सरकार ने हड़तालियों का वेतन रोक दी. इत्तेफाक से इसी बीच वैश्विक महामारी कोरोना के रोकथाम के लिए लॉकडाउन घोषित कर दिया गया. नियोजित शिक्षकों को इतना ज्यादा वेतन तो मिलता नहीं है कि वे जमा-पूंजी रखे हों. कई भूखमरी के कगार पर आ गए हैं. इस वक्त पूरे देश में जरूरत मंदों को राहत पहुंचाई जा रही है परन्तु सरकार इनके प्रति अड़ियल रवैया अपनाये हुई है. सरकार ने ईमेल के जरिये योगदान का विकल्प दी भी तो सर्विस ब्रेक वाली स्थिति उत्पन्न हो रही है. मुझे तो लगता है कि शिक्षा के महत्व को ध्यान में रखते हुए उदारता के साथ शिक्षकों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए. हड़ताल पर यदि उचित वार्ता या समझौता नहीं हो पाता है तो भी जीविका के लिए कुछ आर्थिक मदद जरुर करना चाहिए. लगभग चार लाख नियोजित शिक्षकों में से ढाई लाख के आसपास हड़ताली शिक्षक होंगे.
सधन्यवाद!!
डॉ. दिनेश पाल
असिस्टेंट प्रोफेसर

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