खौफ़नाक क्या है? – यह सवाल आज खुद में ही विवादास्पद हो चुका है। इतनी बड़ी प्रवासी आबादी का एक ऐतिहासिक विस्थापन खौफ़नाक है या एक अदद अति सूक्ष्म, खुद में भ्रामक और अपरिभाषित विषाणु? या फिर खौफ़नाक कुछ और ही है?
गौरतलब बात ये है कि करोड़ों लोगों के इस दर्दनाक विस्थापन के पीछे किसी विषाणु का खौफ़ नहीं है; बल्कि भूख की बेबसी है। यह बेबसी ही कभी अतीत में उन्हें खींचकर नगरों की ओर लाई थी। उन्होंने तो अपने खून पसीने से नगरों को महानगर फिर मेट्रोपॉलिस फिर मेगापॉलिस में तब्दील कर कर दिया! लेकिन बदले में नगरों ने उन्हें ज़िंदा रहने की मोहलत भर खुराक के अलावा और क्या दिया? और आज एक ही झटके में जब ये खुराक की पतली डोर सी आस भी टूट गई तो लौटने अलावा और चारा भी क्या था।
यकीन मानिए सरकारों ने बेशक गरीबी रेखाएं खींची हों, गरीबों के आँकलन के लिए सैकड़ों विशेषज्ञ कमेटियां बनाई हों, और हर साल ताज़ा आंकड़े बाकायदा जारी होते रहे हों, लेकिन इस समूचे तंत्र या हम लोगों को भी महानगरीय संकुलों में बसी इतनी बड़ी आबादी की इस क़दर दयनीय और जर्जर हालत की भनक तक नहीं थी।
इससे बड़ी दयनीयता और क्या हो सकती है कि महज़ इक्कीस दिन की पहली तालाबंदी में ही लाखों लोग वापसी के लिए निकल पड़े हों! इसके सीधे से – सरल से अर्थ को समझना कतई मुश्किल नहीं है कि बरसों बरस महानगर में खून पसीना बहाने वाला एक आम आदमी वहां महज़ तीन हफ्तों के लिए भी बिना काम के खाना जुटाने की हैसियत नहीं बना पाया; सर छुपाने के लिए छत की बात सोचना तो ऐसे में हास्यास्पद ही है!
समूची दुनिया में मीडिया, सरकारें, हम मध्यवर्गीय लोग, खुलेपन की – पारदर्शिता की दुहाई देते नहीं थकते! लेकिन इस औचक विस्थापन के लिए ज़िम्मेदार विडम्बनाओं पर व्यवस्था और लोगों के अवाक् चेहरों की उड़ी हुई रंगत बता रही है कि दरअसल यह बिल्कुल झूठ बात है कि इस पारदर्शी वैश्विक दुनिया में कोई चीज छुपी नहीं रह सकती! इसने बड़ी खूबसूरती से विकास की सूत्रधार मगर विकास की होड़ से बल पूर्वक विस्थापित कर दी गई एक आबादी और उसके वीभत्स सच पर पर्दा डाल रक्खा था!
जनसंचार माध्यमों की और सरकारों की प्राथमिकताओं की पोल तो ऐसी आपदाएं जब तब खोल ही देती हैं; रही बात हमारी तो हम 25 × 40 के अपने वातानुकूलित दड़वों में टीवी और मोबाइल स्क्रीन रूपी खिड़की के द्वारा दिखाई जाती स्वप्निल-तिलस्मी दुनिया के सम्मोहन में इतने लिप्त हैं कि हमें कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमें हमारे चारों ओर हो क्या रहा है। हमारे लिए नित नई सुविधाओं के सृजन का दावा करने वाला बाजार बदले में हमसे हमारी ऑक्सीजन, हमारा पानी, हमारा पर्यावरण तो छीन ही रहा है, एक बड़ी और ज़रूरमन्द आबादी से उसकी सेहत, उसके सपने, यहाँ तक कि उसका इंसानी दर्जा भी छीनता जा रहा है! सुबह शाम की चंद रोटियों के लिए उसका पूरा वजूद ही निचोड़ ले रहा है!
रोज़मर्रा की चीज़ों की पूर्ति करने वाले इस बाज़ार पर बलि बलि जाने वाले हम लोगों ने शायद ही कभी सोचा हो कि इसके पीछे की दुनिया इतनी बड़ी और इतनी मज़बूर है कि उसे उबारना किसी भी तंत्र के बूते के बाहर है! (हालांकि वह इनके प्रति खोखली संवेदनाओं – योजनाओं के प्रदर्शन का कोई मौका भी नहीं चूकता)
तो सवाल फिर वही कि खौफनाक क्या है?
और जवाब यह है कि किसी भी समाज या मुल्क के लिए अपनी घोर अमानवीय परिस्थितियों से निर्लिप्त; मध्यवर्गीय भोगवादी कुंठाओं के साथ भक्ति-रस में डूबी और सकारात्मकता के छ्द्मावरण तले सत्ता – कीर्तन में मस्त एक विशाल संवेदनशून्य आबादी से खौफ़नाक और कुछ नहीं है!
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© राहुल मिश्रा