एक जाति पर आधारित अस्मितावादी राजनीति है दूसरी क्रांतिकारी राजनीति। अब प्रश्न ये है कि दलित समाज की बुनियादी समस्या किस प्रकार की राजनीति से हल हो सकती है? अस्मितावादी राजनीति दलितों के सामने भावी राज्य का नक्शा पेश नहीं करती बल्कि इसी व्यवस्था में रहकर सरकार में जाने की बात करती है जिसका अर्थ होता है वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था को अक्षुण्ण रखते हुए उसकी मैनेजिंग कमेटी बन कर पूंजीवादी व्यवस्था की गुलामी करना और दलित सर्वहारा वर्ग को भ्रमित करते हुए चूहे की तरह इसके पिंजड़े में कैद करके रखना। जिस तरह चूहा रोटी के टुकड़े के लालच में आकर पिंजड़े में बंद हो जाता है और उस जाल को समझ नहीं पाता ठीक उसी तरह दलित समाज का सर्वहारा वर्ग अपने नेताओं की जातिवादी अस्मिता की राजनीति को समझ नहीं पाता है और ये नेता अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए उसे सत्ता का लालच देकर खुद तो उस पूंजी के गुलाम हो जाते हैं परंतु इसका नुकसान सर्वहारा वर्ग को यह संतोष करके उठाना पड़ता है कि चलो हमारा कोई भाई या बहिन मुख्य मंत्री के पद पर बैठे हैं। इस पूंजीवादी व्यवस्था को परिवर्तित किये बिना यदि कोई दलित नेता प्रधान मंत्री भी बन जाता है तो दलित सर्वहारा की जिंदगी में कोई भी परिवर्तन नहीं आयेगा। यह परिवर्तन सिर्फ उसी तरह का होगा जैसे एक ट्रेन का ड्राइवर बदल कर उसके स्थान पर दूसरा ड्राइवर आ जाय तो कल्पना कीजिये कि क्या वह दूसरा ड्राइवर चाहे वह किसी भी जाति का हो उस ट्रेन में कोई परिवर्तन ला सकेगा? ट्रेन जिस कार्य के लिए बनी है वही करेगी उसका ड्राइवर चाहे अर्जुन सिंह हो या राम पाल, इससे उसके कार्य में गुणात्मक परिवर्तन नहीं आयेगा।
इसलिए यदि हम वास्तव में इस शोषण मूलक व्यवस्था को बदलना चाहते हैं तो हमें क्रांतिकारी सिद्धांत अपना कर सर्वहारा वर्ग की एक क्रांतिकारी पार्टी ही बनानी होगी जो इस पूंजीवादी व्यवस्था को बदल कर इसके स्थान पर सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में समाजवादी व्यवस्था लानी होगी। जिसमें उत्पादन के साधनों से निजी स्वामित्व को खत्म कर सामूहिक स्वामित्व स्थापित किया जाता है। इससे मनुष्य द्वारा मनुष्य के हर प्रकार के शोषण और अत्याचारों का अंत हो जाता है। यही एक मात्र रास्ता है जो दलित समाज को जाति विहीन और वर्ग विहीन समाज की ओर ले जायेगा। दूसरे सभी रास्ते और प्रलोभन गुमराह करने वाले हैं।
प्यारे लाल ‘शकुन’