आज आजादी को हुए 50 साल से अधिक वर्ष बीत चुके हैं लेकिन सही मायने में हर एक स्तर पर आजादी हम लोगों को नहीं मिल पाई है। आजादी की आवश्यकता कई रूपों में है जैसे स्वतंत्र रोजी रोजगार की आजादी। स्वतंत्र विचारधारा और उपासना या धर्म के पालन करने की आजादी। जाति और धर्म से ऊपर उठकर अपने जीविकोपार्जन के लिए जो भी साधन अथवा संसाधन उपलब्ध हैं उनके प्रति उदारता की भावना की आजादी। लेकिन संभव हो पा रहा है।
26 जनवरी 1950 को जब हमारा संविधान बनाया गया था तब उसमें साफ निर्देश था कि लोगों को अवसर की समानता मिलनी चाहिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए धर्म की उपासना की स्वतंत्रता होनी चाहिए। लेकिन आज यह दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हमारे देश में समानता और स्वतंत्रता के नाम पर कुछ भी नहीं है ना तो शिक्षा की व्यवस्था में समानता और ना अभिव्यक्ति की आजादी की स्वतंत्रता ? आखिर वे कौन से कारण हैं जिसकी वजह से हमारा देश दो खेमों में बंटा हुआ दिखलाई पड़ रहा है। एक खेमा धनिक वर्ग का खेमा है तो दूसरी ओर निर्धन और दलित का खेमा। एक और सवाल हमारे मन में उठ रहा है कि आखिर हम कहां जा रहे हैं, हमारा चिंतन और विचार किस दिशा में जा रहा है, हमारी शिक्षा- दीक्षा और हमारे जीने के उद्देश्य के मायने क्या रह गए हैं, और सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे धर्म ग्रंथ जो हमें दया, क्षमा, परोपकार और सदाचार का पाठ पढ़ाते हैं, आज उनका अनुपालन आखिर क्यों नहीं हो रहा है? हमारा जीना अब केवल स्वार्थ के लिए आखिर क्यों रह गया है,? हमारे धर्म ग्रंथ में स्वार्थ और परमार्थ की चर्चा की गई है!
हम सभी मानव जाति (प्राणी) सभ्य और सुशिक्षित प्राणी हैं तब ऐसी स्थिति में हमारे कार्य व्यापार इतने घृणित और पाप पूर्ण क्यों हो जा रहे हैं कि हमारे भीतर की मानवता आज मर चुकी है। हम अपने आप को मनुष्यता से पशुता की ओर आगे बढ़ रहे हैं। विज्ञान के माध्यम से हमने ऊंची से ऊंची चोटियां प्राप्त किए हैं। आज हम मंगल ग्रह की सैर कर रहे हैं। चांद पर जाना बहुत पहले संभव हो चुका था। प्रगति के अनेकानेक रास्ते हमने ही बनाए हैं और वे ऐसे रास्ते हैं जिन्हें देख कर आज ही हम भारतवासियों को गौरव होता है।
हमारा देश संतों, भक्तों, दार्शनिकों, विचार को और तत्वदर्शी अन्वेषकों, कवियों, फकीरों और महात्माओं का देश रहा है। हमारे देश में विदेशी लोग देश रहा है । यहां दूर-दूर से लोग आकर शिक्षा ग्रहण करते थे और पूरी दुनिया में भारत का बहुत नाम हुआ करता था। लेकिन आज हम पाश्चात्य संस्कृति के झकोरों से इस तरह प्रभावित हो चुके हैं कि विदेशी संस्कृति अपनी संस्कृति लग रही है। विदेशी बोलचाल, पोशाक और रहन-सहन और उनके जीने के तरीके हम सब गौरव के साथ अपनाने लगे हैं ऐसी स्थिति में अपनी पहचान खोते जा रहे हैं? आज हमें अपने भारत को समझना है, अपने भारत की संस्कृति को समझना है, अपनी भारतीयता को चारों ओर फैलाना है, भारत के मूल संदेशों को जनमानस में प्रसृत करना है। आज हमारे लिए अनेकानेक ऐसे कार्य हैं जिनके बारे में सोचना और विचार करना है। जिनसे हमारी पहचान बना करती थी। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने इसीलिए तो कहा था कि हमारी पहचान दिन पर दिन होती जा रही है। विदेशी संस्कृति और उनकी देखा देखी अपने रहन-सहन और जीवन जीने के तरीकों में इस रूप में लगा बैठे हैं कि आज हमारे मन में चिंता पैदा हो रही है। इसीलिए गुप्त जी को भारत भारती में स्पष्ट लिखना पड़ गया — हम कौन थे क्या हो गए और क्या होंगे अभी ।
आओ विचारों तो जरा ये समस्याएं सभी।।
कहना नहीं होगा कि कवि और विचारक का काम समाज का निर्माण करना है। व्यक्ति मात्र का निर्माण करना है। जीवन जीने के तौर तरीके सिखलाने हैं ।शिक्षा और चिकित्सा का संक्षेप प्रचार प्रसार करना है ताकि आम आदमी उससे लाभान्वित हो सके। आजादी के बाद हमने कई क्षेत्रों में प्रगति की है और यह हमारे लिए विशेष गौरव की बात है। यह है कि आज हम अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। अपनी संस्कृति , परंपरा और अपनी विचारधारा को भूलना सबसे बड़ा अभिशाप है। हमें उस गांधी और अंबेडकर कोयाद करना चाहिए जिनके विचारों ने केवल भारत को ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को बदल दिया। जिन्होंने अपना पूरा जीवन त्याग और तपस्या में लगा दिया, यह न केवल अपने लिए नहीं जिया बल्कि दूसरों के लिए जिया और प्राणी मात्र के लिए जिया। हमें आज गांधी दर्शन और अंबेडकर दर्शन को देखने की जरूरत है। उनके रास्ते पर चलने की जरूरत है। उनके महान आदर्शों को अपनाने की जरूरत है।
आज जब हम स्वतंत्र दिवस मना रहे हैं तब हमें अपने देश की चिंता हो रही है अपने समाज की चिंता हो रही है और सबसे बड़ी बात की मानव मात्र की चिंता हो रही है। इस चिंता का मूल कारण एक ओर कोरोनावायरस के संक्रमण का पूरी दुनिया में फैलना है तो दूसरी ओर देश के भीतर की जो समस्याएं हैं वे समय के साथ दिन पर दिन बढ़ती जा रही हैं और उसके उन्मूलन के प्रति हमारा ध्यान बिल्कुल ही नहीं है। इसके साथ-साथ यह भी देखना जरूरी है कि हम किस समाज में रह रहे हैं वह समाज भी आज असमानता का शिकार बन गया है। इसी कारण सामाजिक अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई है। रोजी रोजगार के लिए लोगों को पर्याप्त अवसर नहीं मिल रहे हैं। सच तो यह है कि इस ओर आजकल किसी का ध्यान नहीं है। समय-समय पर सामाजिक और आर्थिक विकास की समीक्षा की जाती है लेकिन सुधार के नाम पर विशेष कुछ नहीं किया जाता है। देश की आबादी अबाध गति से बढ़ती जा रही है और शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में लगातार हम पिछड़ते चले जा रहे हैं।
हमारा यह पिछड़ापन कई कारणों से आज इस रूप में देखने को मिल रहा है। विज्ञान के नित नूतन आविष्कार के साथ-सथ भारत सरकार की ओर से विशेष प्रकार के लाभकारी संसाधन ना तो मुहैया किया जा रहा है ना उसकी उपयोगिता पर ही आम लोगों का ध्यान आकृष्ट कराया जा रहा है। यही वजह है कि लोगों को इस क्षेत्र की जानकारी नहीं है और जानकारी देने का जो जिम्मा सामाजिक संगठनों को दिया गया है वे अपने लक्ष्य के प्रति पूरी तरह उदासीन दिखलाई पड़ रहे हैं। हमें अच्छी तरह जानते हैं कि आजादी के बाद से सामाजिक और राजनीतिक अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट आती गई है और उसका मूल कारण यही है हम प्रत्येक कार्य लाभ हानि और स्वार्थ की भावना अधिक रखते हैं देश के विकास के लक्ष्य में लगातार बाधक बनता गया है। हम सब को यह भी पता है कि सरकार बच्चों को आगे बढ़ने और ऊंची कक्षाओं में पढ़ने के लिए सरकार ने ऋण देने की भी घोषणा कर रखी है।
कई राज्यों में इन कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से सुधार कार्य शुरू किए जाने थे लेकिन आपसी विवाद और मामला न्यायालय में जाने की वजह से प्रगति का काम बीच में ही रुक गया और समाज की पूर्ववत् यथास्थिति ज्यों की त्यों बनी रह गई। यह आजाद भारत के लिए बेहद चिंता की बात है कि हरेक क्षेत्र में दिन पर दिन प्रगति कर रहे हैं और सामाजिक और पारिवारिक स्थितियां ज्यों के त्यों बनी हुई हैं। प्रगति और विकास के नाम पर आया हुआ पैसा या तो वापस लौट जाता है या उस राशि का बंदरबांट कर दिया जाता है। दुखद बात यह है कि इस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है और यदि किसी का ध्यान जाता है तो किसी के द्वारा कोई प्रभावकारी कदम नहीं उठाया जाता है ।सच तो यह है कि देश के अंदर कई प्रकार की समस्याएं हैं जो हमारे चिंतन और विचार को प्रभावित करती रहती हैं। सबसे बड़ी समस्या हमारा देश में पिछड़ेपन की समस्या है जो आजादी के बाद भी सुधर नहीं सकी है। इसका कारण यह है कि कांग्रेश के बाद जनता पार्टी और भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने भी पिछड़ेपन की समस्याओं को गंभीरता से नहीं लिया था।
1974 के आंदोलन में जयप्रकाश नारायण ने जो गांधी मैदान, पटना में जो सारगर्भित भाषण दिया था उसका मूल बिंदु यह था कि आजादी के बाद कांग्रेस के शासन ने भी देश को विकास की मुख्यधारा में लाने का कोई काम नहीं किया था बल्कि विकास के नाम पर भ्रष्टाचार को भी बढ़ाया था। क्योंकि आजादी के बाद सबको ऐसा लगने लगा था कि देश को विकास के नाम पर विशेष कल्याणकारी कार्य किया सकता है। लेकिन कार्य के नाम पर तो कुछ हुआ नहीं, लेकिन इसके विपरीत विभिन्न जातियों के लोगों के लिए जो भी कार्य किए गए उससे समाज में विषमता ही पैदा होती रही। दलित और पिछड़ी जातियां आगे नहीं बढ़ सकी और गांव हो या शहर दोनों ही जगहों पर वे उपेक्षा के शिकार देखते रहे थे।
यद्यपि कृषि और रोजगार के क्षेत्र में नए नए तकनीक का सृजन तो हुआ ही लेकिन इसके साथ साथ उनका जीवन में शिक्षा की किरण नहीं जगाए जाने के कारण वे लगातार पिछड़ेपन के शिकार होते रहे। सरकारी और सामाजिक संस्थाएं भी कारगर ढंग से कार्य करने में अपने आपमें लगातार असमर्थ साबित हुईं ।
यह विशेष चिंता की बात है कि कोरोनावायरस से कृषि और व्यवसाय आज पूरी तरह प्रभावित हैं और जो लोग कृषि से जुड़े हुए हैं अथवा जो इससे संबंधित व्यवसाय कर रहे हैं उनके समक्ष आर्थिक समस्या विकराल रूप में फैलती नजर आ रही है। यह समस्या यद्यपि आजादी के बाद से ही विभिन्न रूपों में देखी जा रही थी किंतु इसको रोना पाए में जबकि दिहाड़ी मजदूर और दूर-दूर से कामगार अपने शहर और गांव की ओर लौट चलें हैं तब ऐसे मुश्किल समय में उनके पास काम का कोई साधन नहीं दिखलाई पड़ रहा है और इधर उधर छोटे-मोटे कामों में लगकर जीविकोपार्जन का एक असफल तरीका खोजने के लिए विवश और बाध्य हैं। मजे की बात यह है कि गांव में जो दूरदराज से लोग आए हैं उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है वह भेदभाव कोरोना की वजह से तो है ही, इसलिए भी वह भेदभाव अधिक है कि अधिकांश लोग यह सोचते हैं कि दूरदराज से आने वाले लोग यदि यहां रहकर खेती-बाड़ी करना शुरू कर देंगे तब पहले से जो आदमी रह रहे हैं उनकी रोजी-रोटी छिन जाएगी और उनके समक्ष भी आर्थिक समस्या पैदा हो जाएगी। क्योंकि ऐसे समय में सरकार की ओर से ना तो किसी प्रकार का आर्थिक सुरक्षा की गारंटी दी जा सकी है और न उनके भविष्य के प्रति अनिश्चितता का भाव घर किए हुए हैं उसके लिए सरकारी अथवा गैर सरकारी स्तर पर किसी तरह की कोई योजनाएं नहीं चलाई जा रही हैं और ना अपने अपने क्षेत्र के विधायकों ने इस मुद्दे पर विचार विमर्श करना आवश्यक समझा है।
आज या सोचने की और विचार करने की ज्यादा जरूरत है कि हम ऐसे लोगों के लिए अपने अपने स्तर से क्या कर सकते हैं अथवा इसके लिए सरकार को क्या सुझाव दिए जा सकते हैं ताकि उनकी माली हालत में बदलाव लाया जा सके।
- पंडित विनय कुमार
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