अंशु मालवीय के कविता संग्रह ‘मुल्क की रूह’ पर एक नज़र

0
152

अंशु की कवितायें ‘मुल्क की रूह’ का पता देती हैं…..
अंशु मालवीय का ताज़ा कविता संग्रह ‘ये दुःख नहीं है तथागत!’ हाथ में आते ही मुझे मशहूर डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर ‘एस सुखदेव’ [S. Sukhdev] की एक फिल्म का संवाद याद आ गया- ‘बुद्ध तुमने महज कुछ लोगों की पीड़ा व मृत्यु देखी और तुमने घर छोड़ दिया. आज अगर तुम इतनी पीढ़ा और इतनी मृत्यु देखते तो क्या करते?’
लगभग तीन पीढ़ियों बाद फिर एक कवि बुद्ध से यह सवाल कर रहा है-
‘ये दुःख नहीं है तथागत!
हमारे जीवन के लिए नया शब्द खोजो बुद्ध !
हमारे मुल्क की रूह हिजरत कर गयी है……’
यह सुखद आश्चर्य का विषय है कि जब भी लेखक-कलाकार-कवि अपने चारो तरह के भयावह यथार्थ से टकराता है तो उसे शिद्दत से बुद्ध याद आते हैं. अंशु के बड़े भाई और सशक्त गीतकार ‘यश मालवीय’ को भी उस समय बुद्ध ही याद आये थे [‘जब बुद्ध मुस्कुराए’], जब सरकार ने परमाणु बम की जंघा पर देश को बैठाने का निर्णय लिया था.
जिस भयावह यथार्थ के कारण कवि को यह कहना पड़ रहा है कि ‘हमारे मुल्क की रूह हिजरत कर गयी है……’ वह, यथार्थ की निरंतरता का महज अगला चरण नहीं है, बल्कि एक ऐसी ‘व्यूहरचना’ है, जिसमें हम सब फंसे हुए हैं और निकलने का रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है. ऐसे में अपने चारों तरह की दीवारों पर निरंतर हमला करते रहने के अलावा और कोई चारा नहीं है. अंशु की कवितायें यही करती हैं और पूरी ताकत के साथ करती हैं.
‘छुट्टी के लिए अर्ज़ी’, ‘युद्ध के लिए अर्ज़ी’, ‘धर्म परिवर्तन के लिए अर्ज़ी’, ‘घर वापसी के लिए अर्ज़ी’, ‘मॉब लिंचिंग के लिए अर्ज़ी’, अलग अलग कवितायें जरूर है, लेकिन ये सभी कवितायेँ मिलकर इस फासीवादी निज़ाम के बाह्य सौन्दर्य के नीचे बजबजाती गन्दगी को हमारे सामने लाती है.
यहीं पर मुझे ‘वाल्टर बेंजामिन’ की एक मशहूर उक्ति याद आ रही है- ‘राजनीति का सौंदर्यीकरण’ ही फासीवाद है. और अंशु की ये कविताएं ठीक इसी फासीवादी सौन्दर्य की चिंदिया उधेड़ देती हैं. कुछ बानगी देखिये-‘…केंचुओं की तरह आत्मसंभोग करें’, ‘…मुझे इस द्विज राष्ट्र का नंगा नाच मार देगा’, ‘….मरी गाय की खाल उतारूंगा या गाय के लिए ज़िन्दा इंसानों की खाल उतारूंगा’,’…..हे रक्त पिपासु राष्ट्रवादी’,’…हे वीर्य राष्ट्रवादी’
एक बेहद संवेदनशील कविता की अंतिम पंक्ति में अंशु कहते है-
‘तुम्हारा देश
अब एक लिंच मॉब है जुनैद’
लेकिन ठीक इसी कविता के बाद कविता का दूसरा रंग शुरू होता है. ‘शाहीन बाग़’, ‘नाफ़रमानी’, ‘बार्डर’, ‘ट्रैक्टरों का गीत’, ‘किलेबंदी का गीत’, और ‘मिट्टी का गीत’. इन कविताओं को पढ़ते हुए अहसास होता है कि पृथ्वी अपनी धुरी पर तेज़ घूमने लगी है. ये कवितायें हमें उस दौर की याद दिलाती हैं जब ‘ आसमानों पर मिट्टी का कब्ज़ा था’. यही कारण है कि इन कविताओं से कभी ‘फैज़’, कभी ‘शील’ और कभी ‘हबीब जालिब’ जैसे कवि झांकने लगते हैं.
इसी अर्थ में ये कवितायें हमें ‘मुल्क की रूह’ का पता देती हैं और हिजरत कर गयी रूह को वापस लाने का ‘मैप’ भी सामने लाती हैं.
इसी परंपरा की एक कविता ‘वरवर राव’ पर है. कविता अपने अंत में थोड़ा ‘लाउड’ होने के बावजूद ‘वरवर राव होने’ के महत्व को बखूबी स्थापित करती है-
‘जितना लोहा
तुम्हारी बंदूकों में है
उतना लोहा
रोज़ अपनी कविताओं में ढाल लेता है
वरवर राव…’
इस खतरनाक दौर में ‘वरवर राव’ होना तो साहस का काम है ही, उन्हें कविता में जीना भी साहस की मांग करता है. इसके साथ ही एक सुंदर कविता ‘सुधा भारद्वाज’ पर भी है.
कश्मीर पर हिंदी में बहुत कम कवितायें लिखी गयी है. कश्मीर पर लिखी अंशु की कविताएं सिर्फ कश्मीरियों की वेदना को ही नहीं पकड़ती बल्कि यहाँ भी वे उस राष्ट्र की नकेल पकड़ लेती हैं जो कश्मीर को ‘ज़िन्दा कब्र’ बनाने पर उतारू है. एक बानगी देखिये-
‘क़त्बे पर लिखा है
राष्ट्र एक कब्र है…उनकी
जिनके ज़ेहन मर चुके हैं’
संग्रह में एक बहुत ही सुंदर, संवेदनशील कविता ‘सफूरा जरगर की अजन्मी बिटिया की ओर से’ है. यह कविता अंशु की ही एक पुरानी कविता ‘कौसर बानो की अजन्मी बिटिया की ओर से’ की बरबस याद दिला देती है, जिसकी अंतिम पंक्ति थी-
‘मैं अमर हो गई अम्मा!
लेकिन यहाँ रंगीन पानी नहीं
चुभती हुई आग है!
मुझे कब तक जलना होगा… अम्मा।’
21 साल बाद वह फिर सवाल कर रही है-
‘तुम कब जन्मोगी अम्मा
मैं कब आज़ाद होऊँगी!’
इस सवाल का जवाब उस ‘व्यूहरचना’ को तोड़ने की कुंजी भी है, जिसमे आज हम सब फंसे हुए हैं.
पिता पर [‘अतीतजीवी मक्खियाँ’] अंशु की लिखी कविता चमत्कृत करती है. कथ्य और भाषा दोनों ही स्तर पर. एक अजीब तटस्थता से लिखी यह कविता मानो समय को एकाएक रोक देती है. एक बार मशहूर फिल्म मेकर तारकोवस्की [Andrei Tarkovsky] ने अपने ‘शाट्स’ के बारे में कहा था कि मैं बहते समय को अपने कैमरे में रोक लेता हूँ. अंशु ने भी मानो उसी तकनीक का इस्तेमाल करते हुए उस त्रासद समय को अपनी कविता में रोक लिया है. ये पंक्ति देखिये-
‘अपराधबोध से ग्रस्त एक आग
लकड़ियों पर उकडूँ बैठी विलाप कर रही थी’
अपने भाई ‘वसु’ पर लिखी कविता तो मेरी भी कविता है-
‘और…
अब तो याद भी नहीं है
बस अपनी देह में पसीजती
गंध है तुम्हारी’
कवि एक तरह से भविष्यवक्ता भी होता है. सच तो यह है कि पुराने समय में उसका सम्मान कविता से ज्यादा उसकी भविष्यवाणी के लिए होता था. कवि की भविष्यवाणी सितारों की गतियों या हाथ की रेखाओं पर आधारित नहीं होती बल्कि उसके ‘काव्यबोध’ और ‘इतिहासबोध’ से पैदा होती है.
इसी काव्यबोध और इतिहासबोध पर खड़े होकर कवि एलान करता है-
‘हमारे बंस का पेड़ ताज़ा फलों से लकदक है
आप निरबंसिया मरेंगे महाप्रभु!’
यह भविष्यवाणी आत्मविश्वास की उसी जमीन से की गयी है, जिस पर खड़े होकर कभी कबीर ने कहा था-
‘हम न मरीहौ, मरीहै संसारा…….
यह महत्वपूर्ण कविता संग्रह ‘न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन’ से प्रकाशित है और इसका मूल्य महज 200 रूपये है.
May be an image of text that says "कविता सग्रह w ये दख नहीं है तथागत! अंशु मालवीय"
मनीष आजाद

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here