अंबेडकरी चेतना के दायरे में बँधी जय भीम फिल्म को लेकर अकारण नहीं है सुधारवादियों-संशोधनवादियों का लहालोट होना

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कुलविंदर, मुक्तिसंग्राम से साभार

फ़िल्म का नाम दलित राजनीति के नारे ‘जय भीम’ पर रखा गया होने के कारण दलित हिस्सों में इसे मान्यता मिली है। दूसरी ओर फ़िल्म में दिखाए गए संघर्ष में लाल झंडों का इस्तेमाल और दलित तथा मार्क्सवादी विचारकों के चित्रों/बुतों के इस्तेमाल के कारण चुनावी-संसदमार्गी संशोधनवादी-सुधारवादी हलकों ने भी इसकी तारीफ़ की है।

इन सभी तथ्यों के बावजूद भी ‘जय भीम’ को लेकर यदि संपूर्णता में बात करें तो यह मौजूदा व्यवस्था में ही हल तलाशने की हद में बँधी हुई फ़िल्म है। यह दर्शक को यह झूठी उम्मीद देती है कि हालांकि इस व्यवस्था में लड़ना मुश्किल है, लेकिन यह असंभव नहीं है। बस आपके पास लड़ने की इच्छा-शक्ति, मिथरा जैसे ग़ैर-सरकारी संस्था की कार्यकर्ता और चंदरू जैसा क़ाबिल-समर्पित वकील होना चाहिए।

‘जय भीम’ यह साबित करने की कोशिश करती है कि रस्मी पढ़ाई ही हाशियाग्रस्त लोगों की सारी समस्याओं को हल कर देगी। फ़िल्म में पहली बार इथरू क़बीले के लोगों को पढ़ा रही ग़ैर-सरकारी संस्था कार्यकर्ता मिथरा समझाती है। यही बात फ़िल्म के अंतिम दृश्य में दोहराई गई है जब छोटी लड़की अल्ली अख़बार पढ़ने लगती है तो चंदरू इशारों से उसका हौसला बढ़ाता है।

‘जय भीम’ में सारे ज़ुल्म छोटे अफ़सरों द्वारा ही किए गए दिखाए जाते हैं। यह दिखाया गया है कि तरक़्क़ी हासिल करने के लिए वे ऐसे अमानवीय काम करते हैं। सीनियर अफ़सर अच्छे दिखाए गए हैं, जिनका काम या तो र्इमानदारी से काम करना होता है और या फिर पुलिस की अच्छी साख क़ायम रखने के लिए निम्न मुलाज़िमों द्वारा किए गए ग़लत कामों को ढँकना होता है।

फ़िल्म में बिना शक सिंगानी का संघर्ष वामपंथियों के नेतृत्व में लोगों द्वारा किए गए संघर्ष को पेश किया गया है, लेकिन ‘जय भीम’ में यह संघर्ष कहीं भी एक हद से आगे नहीं बढ़ता। इसके मुक़ाबले अदालती लड़ाई के पक्ष को ही तरजीह दी गई है। अदालती व्यवस्था को पाक़-साफ़ दिखाया गया है जहाँ सत्ता-पक्ष के वकीलों की तिकड़मों के बावजूद अदालत ‘हेबियस कॉर्पस’ की पि‍टीशन को तरजीह के आधार पर ही नहीं सुनती बल्कि उसे बाक़ायदा मुक़द्दमे में तब्दील करके पड़ताल कराकर सरकारी मुजरिमों को सज़ा भी देती है।

उल्लेखनीय है कि फ़िल्म यह संदेश उन वक़्तों में देती है जब फासीवादी सत्ता के दबाव तले अन्य संस्थाओं की तरह न्याय-व्यवस्था भी सभी पर्दे उतारकर एक के बाद एक सरकारपरस्ती और जनविरोधी फ़ैसले दे रही है। जम्मू कश्मीर में धारा 370 ख़त्म करने के बाद अदालतों में दाख़िल की गई ‘हेबियस कॉर्पस’ की याचिकाएँ तो अदालतों में महीनों ही धूल चाटती रहीं।

इस तरह ‘जय भीम’ मौजूदा व्यवस्था में आम लोगों को न्याय की झूठी उम्मीद एक ऐसे समय में दे रही है, जब भारतीय न्याय व्यवस्था हर रोज़ पतन की गहराइयों को छू रही है और आम लोगों का भरोसा इस न्याय-व्यवस्था से उठ रहा है।

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