भाग 7ः अलगाव इंसान को महज साधन में तब्दील कर देता है

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लेखकः एरिक फ्रॉम

अनुवादः प्रणव एन

अपने चारों ओर की दुनिया को खुद अपनी शक्तियों के जरिए समझने और अंगीकार करने वाले उत्पादक, सक्रिय मनुष्य की अवधारणा को उत्पादकता के निषेध यानी अलगाव की अवधारणा के बगैर पूरी तरह नहीं समझा जा सकता। मार्क्स के मुताबिक मनुष्यता का इतिहास मनुष्य के अधिकाधिक विकास का इतिहास है और इसके साथ ही अधिकाधिक अलगाव का इतिहास है। अलगाव से मुक्ति, मनुष्य की अपने स्व में वापसी, उसका आत्म साक्षात्कार ही समाजवाद की उनकी अवधारणा का मूल है।

मार्क्स के मुताबिक अलगाव का मतलब यह है कि मनुष्य अपनी पकड़ में आई दुनिया में खुद को कार्यकारी कारक के रूप में महसूस नहीं करता, बल्कि दुनिया (प्रकृति, दूसरे और वह खुद) उसके लिए अजनबी बनी रहती है। ये चीजें मानो उसकी पहुंच से ऊपर और उसके खिलाफ बनी रहती हैं भले ही वे खुद उसकी अपनी बनाई हुई हों। अलगाव मूलतः दुनिया को और खुद को निष्क्रिय रूप से, ग्रहणशील अंदाज में महसूस करना है, मानो अभिकर्ता (सब्जेक्ट) विषय (ऑब्जेक्ट) से अलग हो।

अलगाव की संपूर्ण अवधारणा ने पश्चिमी विचारों में अपनी पहली अभिव्यक्ति ओल्ड टेस्टामेंट की मूर्ति पूजा (बुतपरस्ती) की अवधारणा में पाई। जिसे पैगंबरों ने बुतपरस्ती कहा उसका सार यह नहीं था कि इंसान एक के बदले बहुत सारे ईश्वर की पूजा करने लगता है। इसका मतलब यह था कि मूर्तियां मनुष्य के अपने हाथों की कृति हैं। वे वस्तु हैं और मनुष्य वस्तु के सामने झुकने लगता है, उनकी पूजा करने लगता है। वह उन्हें पूजता है जिन्हें उसने खुद बनाया है। इस क्रम में वह खुद को वस्तु में रूपांतरित कर लेता है। वह खुद अपने जीवन की विशेषताओं को अपनी बनाई हुई चीज में स्थानांतरित करता है और खुद को रचनाशील व्यक्ति के रूप में महसूस करने के बजाय वह इस मूर्ति की पूजा के जरिए ही अपने संपर्क में आता है। वह अपनी ही जीवन शक्तियों से अनजान हो जाता है। अपनी ही संभावनाओं की दौलत उसके लिए अज्ञात हो जाती है। अपने संपर्क में आने का एक ही रास्ता उसके पास बचता है मूर्तियों में कैद भावनाहीन जिंदगी के प्रति समर्पण का परोक्ष रास्ता। मूर्ति का ठंडापन और खालीपन ओल्ड टेस्टामेंट में इस तरह व्यक्त हुआ हैः ‘उनके पास आंखें हैं और वे देख नहीं पातीं, उनके पास कान हैं और वे सुन नहीं पाते’ आदि। मनुष्य अपनी जितनी ताकतें मूर्ति में स्थानांतरित करता जाता है वह खुद उतना ही कंगाल, मूर्तियों पर उतना ही निर्भर होता जाता है। नतीजतन, उसकी (मूर्ति की) इजाजत से वह अपने ही मूल रूप का एक छोटा सा हिस्सा भर बन कर बचा रहता है। मूर्ति किसी देवता की आकृति हो सकती है, राज्य हो सकता है, चर्च हो सकता है या फिर कोई व्यक्ति या सामान भी हो सकता है। किसी भी स्थिति में मूर्ति पूजा उन्हीं रूपों तक सीमित नहीं है जिनमें मूर्तियों का कथित धार्मिक महत्व माना जाता है। मूर्ति पूजा ऐसी किसी भी चीज की पूजा है जिसमें मनुष्य ने खुद अपनी रचनात्मक शक्तियां लगाई हों और खुद को रचनाकार के रूप में महसूस करने के बजाय उसके आगे खुद को समर्पित करता हो।

विभिन्न तरह के जो अलगाव होते हैं उनमें सबसे आम है भाषा में होने वाला अलगाव। जैसे मैं अपनी कोई भावना शब्दों में व्यक्त करता हूं, मान लीजिए मैंने कहा ‘मैं आपसे प्यार करता हूं’ तो ये शब्द मेरे अंदर मौजूद एक वास्तविकता की ओर संकेत करने का एक साधन मात्र हैं। वह वास्तविकता है प्यार करने की मेरी शक्ति। शब्द ‘प्यार’ बस एक जरिया है तथ्य प्यार को बताने का। मगर जैसे ही यह शब्द बोला जाता है इसका अपना एक जीवन हो जाता है, यह एक वास्तविकता बन जाता है। मैं इस भ्रम में होता हूं कि शब्द का बोला जाना इसके अनुभव करने के बराबर ही है, लेकिन जल्दी ही यह नौबत आ जाती है कि मैं शब्द तो बोलता हूं, लेकिन कुछ महसूस नहीं करता। भाषा का यह अलगाव, अलगाव की पूरी जटिलता को दर्शाता है। भाषा मनुष्यता की एक अनमोल उपलब्धि है। इसलिए अलगाव से बचने के लिए बोलना बंद कर देना तो मूर्खता होगी, लेकिन हमें हमेशा बोले गए शब्दों के खतरे से होशियार जरूर रहना चाहिए। खतरा यह रहता है कि बोले जाने वाले शब्द कहीं जीवंत अनुभव की जगह न ले लें। मनुष्य की अन्य तमाम उपलब्धियों के साथ भी यह बात लागू होती है। चाहे वे विचार हों या कला या फिर मानव निर्मित वस्तुएं। वे मनुष्य की कृतियां हैं, वे जीवन के लिए बहुमूल्य हैं, मगर इसके साथ ही वे सब की सब एक-एक जाल भी हैं। जिंदगी का वस्तुओं के साथ, अनुभव का कला-कृतियों के साथ और भावनाओं का समर्पण के साथ घालमेल करने का एक लालच भी हैं ये सब।

18वी और 19वीं सदी के विचारकों ने अपने युग की आलोचना बढ़ती कट्टरता, शून्यता और निस्पंदता के लिए की थी। उत्पादकता की वही अवधारणा गोथे के विचारों की आधारशिला थी जो स्पिनोजा, हीगल और मार्क्स के भी विचारों के केंद्र में रही। उन्होंने कहा कि ‘दिव्यता वहीं प्रभावी होती है जहां जीवन होता है। निर्जीवों में इसका कोई प्रभाव नहीं होता। इसका प्रभाव उसमें होता है जो अभी बन रहा है, विकसित हो रहा है, उसमें नहीं जो पूरा हो चुका है और अब स्थिर है। यही कारण है कि तर्क दिव्यता की ओर झुकाव के चलते उन्हीं चीजों से उलझता है जो अभी बन रही हैं, जीवित हैं। इसके विपरीत बुद्धि उन चीजों पर ध्यान देती है जो पूर्ण हो चुकी हैं और स्थिर हैं।‘

ऐसी ही आलोचना हम शिलर, फिश, हीगल और मार्क्स में भी पाते हैं जिनकी शिकायत यह है कि उनके दौर में ‘सत्य जुनून से वंचित है और जुनून सत्य से रहित।’

मूलतः कीर्केगार्ड से लेकर समूचा अस्तित्ववादी दर्शन, जैसा कि पॉल टिलिच ने कहा है, ‘औद्योगिक समाज में मनुष्य के अमानवीकरण के खिलाफ सौ साल से भी ज्यादा लंबा विद्रोही आंदोलन है।’ वास्तव में अलगाव की अवधारणा नास्तिक भाषा में वही है जिसे आस्तिक शब्दावली में ‘पाप’ कहते हैः मनुष्य द्वारा खुद का परित्याग, अपने अंदर के भगवान का परित्याग। अलगाव की अवधारणा देने वाले विचारक हीगल थे। उनके मुताबिक मनुष्य का इतिहास समानांतर रूप से मनुष्य के अलगाव का इतिहास है। उन्होंने ‘इतिहास का दर्शन’ में लिखा है, मस्तिष्क दरअसल चाहता यह है कि उसके विचार सच साबित हो जाएं, मगर इस प्रक्रिया में अपने इस उद्देश्य को वह अपनी ही दृष्टि से छिपा लेता है और अपने ही सत्व से हुए इस अलगाव में संतुष्ट और गौरवान्वित रहता है। हीगल की ही तरह मार्क्स के भी मुताबिक अलगाव की अवधारणा अस्तित्व और सत्व में विभेद पर आधारित है। इस तथ्य पर आधारित है कि मनुष्य का अस्तित्व उसके सत्व से अलग हो जाता है यानी वह वैसा नहीं रह जाता जैसा कि वह सचमुच होता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो वह वैसा नहीं रहता जैसा कि उसे रहना चाहिए और उसे वैसा ही होना चाहिए जैसा कि वह हो सकता था।

मार्क्स के मुताबिक अलगाव की प्रक्रिया कार्य में और श्रम विभाजन में व्यक्त होती है। उनके लिए कार्य का मतलब मनुष्य का प्रकृति से सक्रिय जुड़ाव है, नई दुनिया का सृजन है, खद मनुष्य का भी सृजन है। (बौद्धिक कार्य भी, मार्क्स के मुताबिक कार्य था, वैसे ही जैसे शारीरिक या कलात्मक गतिविधियां)। लेकिन जैसे-जैसे निजी संपत्ति और श्रम विभाजन का जोर बढ़ता है श्रम मनुष्य की ताकत की अभिव्यक्ति होने की अपनी विशेषता खोता जाता है। श्रम और उसका उत्पाद मनुष्य, उसकी इच्छा तथा योजना से इतर, अपना अलग अस्तित्व हासिल कर लेते हैं। ‘श्रम द्वारा उत्पादित वस्तु जो इसका उत्पाद होती है, अब एक अपरिचित अस्तित्व के रूप में उसके खिलाफ खड़ी हो जाती है, अपने उत्पादक से स्वतंत्र एक शक्ति के रूप में। श्रम का उत्पाद ऐसा श्रम है जो एक वस्तु के रूप में साकार होता है और एक भौतिक चीज में तब्दील हो जाता है। यह उत्पाद श्रम का पदार्थीकरण है।‘ श्रम अलगावग्रस्त इसलिए होता है क्योंकि कार्य श्रमिक की प्रकृति का हिस्सा नहीं रह जाता और ‘परिणामस्वरूप वह अपने कार्य से खुद को पूर्ण नहीं करता बल्कि खुद को नकारता है। कार्य के जरिए अपनी मानसिक और शारीरिक ऊर्जा को स्वतंत्र रूप से विकसित नहीं करता बल्कि उससे शारीरिक थकावट और मानसिक गिरावट महसूस करता है। इसलिए श्रमिक खाली समय में ही सुकून महसूस करता है, काम के दौरान वह तनाव में रहता है।‘ इस प्रकार उत्पादन कार्यों में श्रमिक का अपनी ही गतिविधियों से संबंध ऐसे महसूस किया जाता है जैसे वह अपनी नहीं बल्कि कोई अनजानी चीज हो। इस प्रक्रिया में गतिविधि तकलीफ के रूप में, ताकत शक्तिहीनता के रूप में और रचनात्मकता नपुंसकता के रूप में महसूस होने लगती है। इस प्रकार जहां मनुष्य अपने आप से अलगावग्रस्त हो जाता है वहीं श्रम का उत्पाद ‘एक ऐसा अजनबी पदार्थ बन जाता है जो उस पर हावी हो जाता है।

मार्क्स दो बातों पर जोर देते हैः एक, कार्यों के दौरान, खासकर पूंजीवादी हालात में कार्यों के दौरान मनुष्य अपनी ही रचनात्मक ताकतों से अलग कर दिया जाता है और दो, अपने ही कार्यों का उद्देश्य उसके लिए अजनबी चीज बन जाता है और उस पर शासन करने लगता है। ‘श्रमिक उत्पादन की प्रक्रिया के लिए होता है, उत्पादन की प्रक्रिया श्रमिक के लिए नहीं होती।‘

इस बिंदु पर मार्क्स के विचारों को लेकर व्यापक गलतफहमी समाजवादियों के बीच भी है। माना जाता है कि मार्क्स प्राथमिक तौर पर श्रमिकों के आर्थिक शोषण की ही बात कर रहे थे, इस तथ्य की ओर ध्यान खींच रहे थे कि उत्पाद में उनका (श्रमिकों का) हिस्सा उतना बड़ा नहीं होता जितना होना चाहिए या इस बात की ओर कि उत्पाद पर उनका अधिकार माना जाना चाहिए न कि पूंजीपति का। लेकिन, जैसा कि मैंने पहले दर्शाया है, पूंजीपति के रूप में सोवियत संघ जैसा राज्य मार्क्स की नजर में किसी निजी पूंजीपति से बेहतर नहीं होता। मार्क्स की मूल चिंता आमदनी की समानता नहीं है। उनकी मूल चिंता उस तरह के काम से मनुष्य की मुक्ति सुनिश्चित करना है जो उसकी वैयक्तिकता नष्ट करता है, जो उसे वस्तु में परिणत कर देता है और जो उसे वस्तुओं का गुलाम बना देता है। जैसे कि कीर्केगार्ड की चिंता मनुष्य की मुक्ति थी, वैसे ही मार्क्स और पूंजीवादी समाज की उनकी आलोचना दोनों के निशाने पर आमदनी वितरण की इसकी प्रणाली नहीं बल्कि इसकी उत्पादन पद्धति थी, इसके द्वारा होने वाला वैयक्तिकता का विनाश था। उनके निशाने पर मनुष्य का गुलामीकरण था, पूंजीपतियों द्वारा श्रमिकों का गुलामीकरण नहीं बल्कि मनुष्य – पूंजीपति और श्रमिक – का गुलामीकरण उनके ही द्वारा तैयार वस्तुओं और परिस्थितियों द्वारा।

मार्क्स इससे भी आगे बढ़ते हैं। अलगावरहित कार्य में मनुष्य न केवल एक व्यक्ति के रूप में बल्कि एक प्रजाति के रूप में भी आत्मसाक्षात्कार करता है। मार्क्स, हीगल और कई अन्य विचारकों के मुताबिक हर व्यक्ति पूरी प्रजाति की यानी संपूर्णता में इंसानियत की, मनुष्यता की व्यापकता की नुमाइंदगी करता है। मनुष्य का विकास उसे संपूर्ण मनुष्यता की ओर ले जाता है। कार्य की प्रक्रिया में वह खुद को ‘न केवल बौद्धिक रूप से बल्कि सक्रिय तौर पर सच्चे अर्थों में पुनरुत्पादित करता है और वह उस दुनिया में अपनी ही परछाईं देखता है जिसे उसने बनाया है। इसलिए ऐसा है कि अलगावयुक्त कार्य उत्पादन का सुख मनुष्य से छीन लेता है, यह उससे प्रजाति जीवन निकाल लेता है। एक प्रजाति के रूप में उसकी वास्तविक वस्तुनिष्ठता उससे ले ली जाती है और जानवरों से उसकी श्रेष्ठता उस हद तक हीनता में बदल जाती है जिस सीमा तक उसका अकार्बनिक शरीर (इनॉर्गनिक बॉडी), प्रकृति उससे अलग कर दी जाती है। जिस प्रकार अलगावयुक्त श्रम स्वतंत्र और स्वनिर्दिष्ट गतिविधि को एक साधन में परिणत कर देता है, उसी तरह मनुष्य के प्रजातीय जीवन को दैहिक अस्तित्व बनाए रखने के साधन में तब्दील कर देता है। अपनी प्रजातियों से जो चेतना मनुष्य ग्रहण करता है, वह अलगाव के जरिए बदल दी जाती है जिससे प्रजातीय जीवन उसके लिए महज एक साधन बन कर रह जाता है।’

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