अबकी गाँव जाने पर
बम्बई कमाने गया सराजू मिस्त्री के लड़के से भेंट हो गई
ख़ूब बम्बइया हो गया है लेकिन
गाँव का खाना मिलता है तो ऐसे खाता है
जैसे खाने को ही न मिला हो।
मयनू मिंया का लड़का बनारस में है
उम्र थोड़ी कम ज़रूर है
लेकिन जानकर कहते हैं कि इस उम्र के कारीगरों की मांग
बाज़ार में बढ़ गई है
नरम हाथ की लोच-लरज से
कढ़ाई का एक-एक टोप बड़ा नाज़ुक उतरता है
कितनी ही मशीनें आ जाएं
हाथ के काम की अपनी ही ख़ूबसूरती है।
वैसे अब गाँव भी शहर से कम नहीं हैं
ज़मीन हो तो आदमी मजूर लगाए
बढ़िया से खेत बंटाई पर दे के छुट्टी पाए
और शुद्ध भोजन शुद्ध हवा-पानी ले
बाक़ी ज़मीन जिसके नाम
सरकारी सस्ता बीज
किसान विकास योजना
फसल बीमा योजना सब उसके नाम है ही
कुछ खाए कुछ बेसी रुपया बनाए
और बाल-बच्चों को बाहर भेजकर पढ़ा ले।
ख़ैर! बाज़ार कहाँ-कहाँ नहीं पहुंचा है
फ़ार्मिंग मशीनरी योजना के तहत तो खेतिहर
सीधे प्रधानमंत्री की मशीनरी से जुड़ गया है
रामजस कहते हैं कि-
पुराने जमाने की खेती तो अब रही नहीं
काम भर की ज़मीन है
भाई-दयाद में बंटते-बंटते और बिखर गई
उसके लिए भी ट्रैक्टर-हार्वेस्टर सब चाहिए
बैंक का मुँह महाजन का मुँह है
अपने खाने से जादे उनके पचाने के लिए पैसा जोड़ना पड़ता है
शहर में कुछ काम-धंधा किए बिना अब कहाँ गुजारा है
अपनी जोत भी अपनी नहीं रही
बाहर लोग ग्रीन-टी पीकर मोटापा घटाते हैं
सो हम लोग अधिकतर ज़मीन में लेमन-ग्रास और एलोवेरा लगाते हैं।
झाड़-पतवार के बीच गांजा-अफ़ीम भी उगा लेते हैं चोरी-छिप्पे
मजदूर और मवेशी दोनों के बाजार मौजूद हैं यहाँ
सोनपुर में एक बड़ा मेला लगता था
पुट्ठे ठोंककर जहाँ चुने जाते थे बैल
जवान और मेहनती पुट्ठों वाले बैलों की बड़ी क़ीमत लगती
इधर शहर में तो एक पूरा चौक ही है
सुबह से ही छोटी-छोटी ट्रकों में भर-भरकर
मजदूर इकट्ठा होते हैं
देह-धज देखकर उनका मूल्य तय किया जाता
यूँ तो उनकी मेहनत की उजरत का एक सरकारी रेट भी है
जो कभी मिलता कभी नहीं मिलता
लोग कहते कि अब ठीक रेट पर मजदूर मिलते ही कहाँ हैं
अच्छा ही है कि चौक पर जाइये
जैसा चाहिए वैसे लेबर वहाँ मिल जाते हैं
इसमें उनका भी भला है
काम के लिए दर-बदरी कम हो जाती है।
हमारी गलियां उनकी भट्टी की धौंकनी से गरम
वहाँ लोहा सूरज का लाल गोला हो जाता है
लोहार जानता है लोहे की ताप का ठीक ठीक चरम
इसीलिए हथौड़ा चला देने का
ठीक-ठीक वक्फ़ा भी वही जानता है
ताला बनाने का ठोस ठंडा लोहा
कुफ़्लसाज़ों की हथेली पर चाँद की तरह रखा हुआ है।
पता नहीं सर्वहारा किस खोह में रहता है
कि हम कहते रहे-
अब हमें सर्वहारा के बीच जाना पड़ेगा!
वंदना चौबे