माननीया ममता पाठक शर्मा का प्रश्न एक विमर्श है कि “आत्मनिर्भर स्त्री फिर भी चल जायेगी, आत्मनिष्ठ चल जायेगी क्या?” जिसका विस्तार सुश्री स्मिता अखिलेश ने अपने शब्दों में इस प्रकार दिया है, “आत्मनिर्भर तो बिल्कुल चलती है, तभी तो आर्थिक शोषण कर पाएँगे। एटीएम मशीन समझ कर दुहेंगे कैसे फिर? हाँ, आत्मनिष्ठ स्त्रियाँ तो चरित्रहीन, सेक्सुअली फ्रस्ट्रेटेड, आत्ममुग्धा, तथाकथित और जाने क्या क्या होती हैं…ऐसे कैसे चलेंगी?” ममता पाठक की “आत्मनिर्भर स्त्री” का अर्थ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है अर्थात जो नौकरी व व्यवसाय करती हो और यही स्मिता जी का भी अर्थ है। यहाँ दोनों चिंतक इस मत पर एक राय है कि आत्मनिर्भर स्त्री को कोई भी पुरुष पसंद कर लेता है क्योंकि उससे उसे धन उगाही होती है।
माननीया ममता पाठक शर्मा की “आत्मनिष्ठ स्त्री” आत्मनिर्भर तो है ही, उसमें स्वतंत्र चेतना, निर्भीकता, आत्मसम्मान, आत्मगौरव, बोल्ड चरित्र, अत्याधुनिकता भी है लेकिन स्मिता जी ने जिस “आत्मनिष्ठ स्त्री” को चरित्रहीन, सेक्सुअली फ्रस्ट्रेटेड, आत्ममुग्ध तथा और भी न जाने क्या-क्या कहा है, से मैं इत्तिफ़ाक़ नहीं रख पा रहा हूँ क्योंकि चरित्रहीन का अर्थ कुलटा अथवा दुश्चरित्र माना जाता है। कोई भी आत्मनिष्ठ स्त्री कुलटा नहीं होती है। “सेक्सुअली फ्रस्ट्रेटेड स्त्री” हिस्टीरिया की मरीज होती है इसलिए “आत्मनिष्ठ स्त्री” सेक्सुअली फ्रस्ट्रेटेड भी नहीं हो सकती है। सेक्सुअली फ्रस्ट्रेटेड स्त्री एक तरह से विक्षिप्त होती है और वह किसी भी तरह किसी भी पुरुष क्या, किसी स्त्री को भी पसंद नहीं आ सकती है बल्कि परिवार के लिए भी एक मनोरोगी की तरह होती है जो परिवार पर एक बोझ बन कर रह जाती है। “आत्ममुग्धता” का चिंतन अपने सौंदर्य व गुण को लेकर हर व्यक्ति में कमसकम होता है। यह आत्मनिष्ठता की पहचान नहीं है बल्कि एक सामान्य परिघटना है। स्मिता जी के “और न जाने क्या-क्या” का अर्थ किसी सकारात्मक गुण की तरफ संकेत न करके स्त्री के नकारात्मक गुण की तरफ ही संकेत करते हैं इसलिए इस वैचारिक अवस्थिति पर मेरी सहमति नहीं बन पा रही है। सुश्री स्मिता अखिलेश द्वारा उल्लिखित आत्मनिष्ठता की विशेषता को किसी भी स्वतन्त्र खयालात और आत्मसम्मान के ख़यालों की स्त्री के गुण नहीं, अवगुण माने जाएँगे। स्वतन्त्र खयालात और आत्मसम्मान के ख़यालों की स्त्री कभी भी स्व में दुर्गुणी नहीं होती है।
वैसे, सुश्री स्मिता अखिलेश ने जो दुर्गुण एक आत्मनिष्ठ स्त्री के गिनाए हैं, दरअसल, वह आत्मनिष्ठ स्त्री को स्वयं वैसा नहीं कहना चाहती हैं बल्कि वे कहना चाहती हैं कि आत्मनिष्ठ स्त्री स्वक्छन्द स्तर की स्वतंत्र होती है, उसका स्वतंत्र आचार, विचार, व्यवहार पारम्परिक न होकर अत्याधुनिक होता है, उसका ड्रेस, उसकी बॉडी लैंग्वेज, उसकी उठने-बैठने की आदतें आम पारम्परिक स्त्रियों जैसे नहीं होती है, वे प्रेम और सेक्स की बातों पर लज्जाशील न होकर उन्मुक्त होती हैं, वे इतनी स्वतंत्र होती हैं कि विदेशी स्त्रियों की तरह कभी भी किसी भी साथी पुरुष को किस कर सकती हैं या अंग लग सकती हैं या साथ में लेट-बैठ सकती हैं, जो पुरुष प्रधान समाज को बिल्कुल हजम नहीं होता है क्योंकि ऐसी स्त्रियाँ पुरुष के नियंत्रण से बाहर की व्यक्तित्व हैं।
वे स्त्रियाँ आत्मनिष्ठ कहलाती हैं जो पुरुष की किसी भी अधीनता को स्वीकार नहीं करती हैं बल्कि हर स्तर पर वे पुरुष के समक्ष प्ले करना चाहती हैं लेकिन सुश्री स्मिता अखिलेश ने आत्मनिष्ठ स्त्री को जिस तरह पोर्ट्रेट किया है अथवा परिभाषित करने की कोशिश की है, वह हमारी आधुनिक हिम्मती और स्वतंत्र ख़याल की बोल्ड और प्रबुद्ध स्त्री के चरित्र को बदनाम करती है।
स्त्री की अपनी लड़ाई आत्मनिष्ठ स्त्री की है जिसे पुरुष वर्ग बिल्कुल हज़म नहीं कर पाता है। दरअसल, जब तक पूँजीवाद है, पुरुष प्रधानता खत्म नहीं किया जा सकता है और जब तक पुरुष प्रधानता है तब तक ऐसी स्त्रियाँ पुरुष की नज़रों में चरित्रहीन, सेक्सुअली फ्रस्ट्रेटेड, आत्ममुग्ध, छिनाल, बदमाश, रंडी, वेश्या, कॉलगर्ल ही रहेंगी।
यदि सुश्री स्मिता अखिलेश अपनी बातों को स्पष्ट करती हुई कहतीं कि “आत्मनिष्ठ स्त्रियों के बारे में पुरुष वर्ग की अवधारणा है कि हाँ, आत्मनिष्ठ स्त्रियाँ तो चरित्रहीन, सेक्सुअली फ्रस्ट्रेटेड, आत्ममुग्धा, तथाकथित और जाने क्या क्या होती हैं…ऐसे कैसे चलेंगी? तो उनकी उक्ति शुद्ध और स्त्री पक्ष में सम्मानित अर्थ सम्प्रेषण संभव था और इस तरह विमर्श में चार चाँद लग जाते। खैर, एक नुक्ते की वजह से ख़ुदा का जुदा हो जाता है।
(सुश्री स्मिता अखिलेश जी से विनम्र याचना के साथ)

आर डी आनंद