सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग का खात्मा मोदी सरकार के बुनियादी नीतियों में से एक है। CIL के संदर्भ में यानी कोयला उद्योग में इस नीति को लागू करने के लिए एक जटिल बहु आयामी रणनीति पर अमल करना इस सरकार की प्राथमिकता भी है और बाध्यता भी। इसी रणनीति का एक पहलू है कोयला उद्योग का कमर्शियल आईजेशन के लिए कोल ब्लॉकों की नीलामी हड़ताल का मुख्य मुद्दा भी यही है। सीआईएल को कमजोर व खंडित करने के लिए CMPDI को सीआईएल से अलग करना भी इसी रणनीति का दूसरा पहलू है। और इसके खिलाफ भी हड़ताल है। इस रणनीति का विनाशकारी चरित्र को कोयला मजदूर तो भली-भांति पहचाना ही, यहां तक कि आम आदिवासी जनता उनके संगठन आदि भी समझ लिया है। यही व्यापक ट्रेड यूनियन गत व सामाजिक राजनीतिक गोलबंदी के पीछे का रहस्य जिसने मोदी सरकार और भाजपा का पूरी तरह अलगाव में पड़ जाने का और हड़ताल का एक राजनीतिक हड़ताल में तब्दील हो जाने का मुख्य कारण है। इस यथार्थ को पहचानना, इसके अंतर्निहित संभावना को समझना एक रूटीन ट्रेड यूनियन पहल कदमी से इसका अंतर को समझना होगा, मोदी जी समझे तभी कोल ब्लॉकों की नीलामी के लिए खुद सामने आए। वे लोग भी समझ गए जो कोयला उद्योग में 100% एफडीआई के खिलाफ 2019 में हुए हड़ताल के दरम्यान ‘एकला चलो’ की नीति पर चलने की घोषणा किए थे और इस तरह भारतीय उद्योग जगत में एक अत्यंत महत्वपूर्ण युद्ध रेखा ब्लू लाइन खींच गया। इस युद्ध को जीतना ही होगा।
स्वतंत्र भारत के औद्योगिक निर्माण के इतिहास में खुद भारतीय संसद द्वारा कोयला उद्योगों का राष्ट्रीयकरण का विधेयक को पारित करना एक अत्यंत विशिष्ट घटना थी। ऐसा इसलिए हुआ कि औद्योगीकरण के लिए ऊर्जा का मुख्य स्रोत के बतौर कोयला उद्योग का महत्त्व निजी मालिकों का नकारात्मक भूमिका और साथ ही रोजगार सृजन से लेकर पर्यावरण की रक्षा के सवाल पर सार्वजनिक क्षेत्र का महती भूमिका के बारे इस देश के कर्णधार सही मूल्यांकन पर थे। पर पूंजीवादी प्रणाली से लगातार फलने फूलने के कारण ही शुरू में कैपटिव माइंस की छूट बाद, सीमेंट एवं बिजली संयंत्र लगाने के लिए विशेष छूट, फिर सो प्रतिशत एफडीआई , विनिवेश आदि के रूप में निजी करण का हमला लगातार चलता रहा। वाणिज्य करण यानी कमर्शियलाईजेशन को इसी का अगली कड़ी के रूप में समझना और इसका प्रतिरोध करना आज राष्ट्रहित का रक्षा का सवाल बन गया है। कोयला मजदूर देश को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं इसलिए मजदूर वर्ग के अन्य हिस्सों का यहां तक कि झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, महाराष्ट्र के ग्रामीण भी उनके समर्थन में आवाज बुलंद कर रहे हैं।
हड़ताल के अन्य मांगे।।।
कमर्शियलाईजेशन का विरोध, सीआईएल एवं SCCL को कमजोर करने, CMPDI को CIL से अलग करने का विरोध के अलावा भी कई मांग हड़तालियों ने उठाया है जैसे 1) सीआईएल एवं SCCL में ठेका मजदूरों के लिए हाई पावर कमेटी की अनुशंसा को हूबहू लागू करना
2) पहले से चली आ रही आश्रितों को नौकरी संबंधी करारो फिर से चालू करना
3) प्रवासी मजदूरों को वैकल्पिक रोजगार मुहैया कराने हेतु सब्सिडियरीज द्वारा कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के तहत कराने की मांग।
संपूर्ण ट्रेड यूनियनगत एकता की बड़ी भूमिका एवं जोखिम
संपूर्ण ट्रेड यूनियन एकता का निर्माण इस हड़ताल के दरम्यान देखने को मिला का लाभ इस हड़ताल का सफल आयोजन के पीछे महत्वपूर्ण योगदान है इसे इनकार नहीं किया जा सकता इसके जोखिम का पहलू है इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता पर 3 जुलाई को केंद्रीय ट्रेड यूनियनों का अखिल भारतीय मोर्चा राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम के जरिए अपनी उपस्थिति दर्ज की उसे देखते हुए अधिकतम लाभ एवं न्यनूतम जोखिम के बीच यह तीन दिवसीय हड़ताल कामयाब. होगा ऐसा उम्मीद किया जाना चाहिए
संपूर्ण मजदूर वर्ग को मिला आत्मविश्वास
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कोयला हड़ताल से कोयला मजदूरों के साथ मजदूर वर्ग अन्य सभी हिस्से को जबरदस्त आत्मविश्वास प्राप्त हुआ। इसका लाभ भविष्य की मजदूर आंदोलन में जरूर देखने को मिलेगा
झारखंड और हड़ताल
यह हड़ताल झारखंड को, जो एक नंबर कोयला उत्पादक राज्य है में परिवर्तन की लड़ाई को गति देगी। बशर्ते कि ट्रेड यूनियनगत संकीर्णता, मजदूर आंदोलन में आर्थवाद का असर से आने वाले दिन में छुटकारा मिले। ऐतिहासिक सांगठनिक कमजोरियां दूर हो, एवं सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ मजदूर चेतना मैं निखार आये।
शुभेंदु सेन, झारखंड महासचिव एक्टू, द्वारा दिए गए प्रेस विज्ञप्ति से