First they ignore you.
Then, they ridicule you.
Then, they attack you and want to burn you.
And then, they will build monuments to you.
And that is what is going to happen.
यह पंक्तियां जो अक्सर महात्मा गांधी को एट्रीब्यूट की जाती हैं, दरअसल ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता निकोलस क्लीन के 1914 में कपड़ा मिल मज़दूरों की एक सभा में दिये भाषण का हिस्सा हैं। आप पूछना चाहेंगे कि उनका ज़िक्र आज और यहां क्यों?
ज़िक्र दिल्ली के शाहीन बाग में महिलाओं के आंदोलन के संदर्भ में है। 15 दिसंबर को सीएए-एनआरसी-एनपीआर के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान दिल्ली पुलिस के जामिया मिलिया इस्लामिया में घुसकर छात्रों पर बर्बरता के बाद यह आंदोलन शुरू हुआ। महिलाओं के इस शांतिपूर्ण आंदोलन जैसी आज़ाद हिंदुस्तान के इतिहास में दूसरी कोई मिसाल नहीं है। इस आंदोलन से प्रेरणा लेकर देश के कोने-कोने को अपने शाहीन बाग मिले। आंदोलन को मिल रहे प्रतिसाद व लोकप्रियता को देखकर इसे खत्म करने के तमाम तरह के हथकंडे अपनाये गये। जिनमें आंदोलन को बदनाम करना (बिरयानी और 500 रुपये जैसे घटिया आरोप लगाना), आंदोलन में गड़बड़ व अव्यवस्था पैदा करने की कोशिश करना (रिवाल्वर लहराता रामभक्त गोपाल), ट्रैफिक जाम की समस्या का रोना रोना (रास्ते बंद खुद पुलिस ने किये), आंदोलन को सांप्रदायिक, राजनीतिक रंग देना, दिल्ली चुनाव प्रचार के बहाने धमकाना (करंट) और अंत में दिल्ली हिंसा का ठीकरा फोड़ना शामिल हैं। इस सबके बावजूद यह आंदोलन टिका है तो यह उन बहादुर महिलाओं की नैतिक ताकत का नतीजा भी है और देश भर से धर्मनिरपेक्ष, अमनपसंद लोगों के मिल रहे प्रत्यक्ष परोक्ष समर्थन का भी।
क्योंकि असल में सीएए-एनआरसी-एनपीआर सिर्फ मुस्लिमों का मसला है भी नहीं, यह देश के करोड़ों दलितों, आदिवासियों, मेहनतकशों, गरीबों का मसला है।
देशवासियों को धीरे-धीरे यह बात समझ में भी आने लगी है इसलिये सीएए-एनआरसी-एनपीआर पर कभी एक इंच पीछे न हटने की बात करने वाली सरकार अब एनपीआर में दस्तावेज न मांगने और किसीको डाऊटफुल नागरिक न चिन्हित करने की बात करने लगी है। हालांकि, बार-बार झूठ पकड़े जाने के कारण (हाल में एनआरसी को लेकर एक झूठ पकड़ा गया) यह भरोसा खो चुकी है और सजग नागरिकों ने सरकार से उक्त आश्वासन लिखित में मांगा पर शाहीन बाग आंदोलन की बात करें तो उसकी आंशिक जीत तो हो ही चुकी है। इधर, दुनिया भर में फैली महामारी कोरोना वायरस के मद्देनज़र आंदोलन को स्थगित करने की अपील की जाने लगी है। पत्रकार अयूब राणा और गौहर रज़ा जैसी कई शख्सियतों ने कहा है कि आंदोलन स्थगित किया जाना चाहिये क्योंकि कोरोना वायरस के मद्देनज़र इन बहादुर महिलाओं की जान जोखिम में नहीं डाली जा सकती। व्यक्तिगत रूप से मैं भी इस राय से इत्तेफाक रखता हूं हालांकि अंतिम फैसला उन्हींका होना चाहिये जिन्होंने इस आंदोलन की शुरुआत की, दो महीने से भी ज़्यादा समय कंपकंपाती ठंड का सामना करते हुए आंदोलन को खड़ा किया, इसे जिया।
महेश राजपूत, वरिष्ठ पत्रकार