शब्द के नमक … मनीषा झा की कविताएं

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शब्द के नमक
—————–
चुटकी भर शब्द के नमक
बचाए मैंने
यह सोचकर कि ताकत है नमक
सौंप दूंगी जिसे कुछ कमजोर क्षणों को
कि बनी रहे नमकीन
शब्द की ऊर्जा
मिठास काम आ गया समूह में
पहले ही ।
वही अपने एकांत की तलाश में
भटक रही हूँ नदी-दर-नदी
बैठे – बैठे
घर की बालकनी में
इस बीच सुपारी के पेड़ कुछ झूम गए हवा में
नारियल की गरिमा कुछ बढ़ी ही
कर्मकांडी समय में
जारी रहा शीशम का इतराना
कुछ पत्रहीन पेड़ हो जाते हैं गुलजार
चिड़ियों के आने-बैठने से
जरा -से जाने हैं वे
पर क्या तो नाम हैं उनके
बता नहीं सकती
इस वक्त ।
एक इज्जतदार एकांत की तलाश है मुझको
मगर वो मिलता नहीं
क्योंकि समाज पितृसत्तात्मक है।
हां, मुझे खुश रहना होगा
काम में उलझाना होगा खुद को
सलोने सोच के साथ
बचाना होगा कुछ और नमक
कमजोर क्षणों के लिए ।
@मनीषा झा

शब्द के नमक
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चुटकी भर शब्द के नमक
बचाए मैंने
यह सोचकर कि ताकत है नमक
सौंप दूंगी जिसे कुछ कमजोर क्षणों को
कि बनी रहे नमकीन
शब्द की ऊर्जा
मिठास काम आ गया समूह में
पहले ही ।
वही अपने एकांत की तलाश में
भटक रही हूँ नदी-दर-नदी
बैठे – बैठे
घर की बालकनी में
इस बीच सुपारी के पेड़ कुछ झूम गए हवा में
नारियल की गरिमा कुछ बढ़ी ही
कर्मकांडी समय में
जारी रहा शीशम का इतराना
कुछ पत्रहीन पेड़ हो जाते हैं गुलजार
चिड़ियों के आने-बैठने से
जरा -से जाने हैं वे
पर क्या तो नाम हैं उनके
बता नहीं सकती
इस वक्त ।
एक इज्जतदार एकांत की तलाश है मुझको
मगर वो मिलता नहीं
क्योंकि समाज पितृसत्तात्मक है।
हां, मुझे खुश रहना होगा
काम में उलझाना होगा खुद को
सलोने सोच के साथ
बचाना होगा कुछ और नमक
कमजोर क्षणों के लिए ।
@मनीषा झा
[10:53 AM, 4/15/2020] Manisha Jha: रह गईं
———
जहाँ लौट पाना अब संभव नहीं
वहाँ कुछ छूट गया है हमसे
हमारे रोपे आम का एक बूढ़ा पेड़
फल दे-देकर थक चुका परोपकारी लताम
लाही लगे गोभी के धूसर फूल
रह गए अपनी जगह।

हम साथ ले आये अपने कपड़े
अपने सजावट के सामान
कुछ मूर्तियाँ
और अलार्म वाली एक दीवालघड़ी।

वो मिट्टी के घरौंदे और
टेढ़ी-मेढ़ी जड़ लगी मटमैली मूलियां
माॅल में जाने से रह गईं।

हमें बुलाते हैं सब
आते हैं सपने में
हम सो जाते फिर एक सम्मोहन में
जागते फिर अपनी ही बनाई दुनिया में ।

हाँ, अब लौटना है असंभव
स्मृतियाँ हैं पुकारतीं
सम्मोहन में घेरतीं
पुकारती है राह
लौटना है कठिन पर
भूल चुके हम चलने का बैन।
© मनीषा झा

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