मेहनतकशों का कर्ज

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जब मैं कुछ लिखती हूँ
वे कहते हैं
इतनी नकारात्मकता क्यों
कुछ खुशनुमा लिखो
जैसे कोई प्रेम कविता
या झील किनारे का सुंदर दृश्य
या यूं लिखो न
कि मन रंगों से भर जाए
सारी दिशाएं हंस कर खिलखिला जाए।
पर क्यों लिखूं मैं ये?
मेरी कलम को नही है मंजूर ये
वो लिखना चाहती है यथार्थ
बनना चाहती है भूखे के आंखों के गुस्से का रंग
उसे चीख भी बनना है
उन बेचैन रोते बच्चों की
जिनकी माँ के छाती का दूध सूख गया है।
निरपेक्ष कुछ नही होता दोस्त
मेरी कलम ने भी चुन लिया है
उनका पक्ष जिन्होंने उसे बनाया है
जो भटक रहे दर-बदर
भूख और बदहवासी में
मेरी कलम इनसे दगा नही कर सकती।
तुम लिखो न
हसीन पल, खूबसूरत वादियाँ
मेरी कलम तो दबी है अभी
मेहनतकशों के कर्ज तले
जिनकी आवाज़ बनना
लक्ष्य है उसका
एकमात्र!

-वंदना भगत

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