दूसरी किश्त
लेखकः एरिक फ्रॉम
अनुवादः प्रणव एन
मार्क्स के दर्शन की सही समझ विकसित करने के रास्ते में पहली बड़ी बाधा है भौतिकवाद या ऐतिहासिक भौतिकवाद की उनकी अवधारणा को लेकर बनी गलतफहमी। जो इस दर्शन का मतलब यह बताते हैं कि मनुष्य की भौतिक कामना यानी अधिक से अधिक वस्तुएं और सुविधाएं हासिल करते जाने की उसकी इच्छा ही उसका मुख्य प्रेरक तत्व होती है, वे यह मूल बात भूल जाते हैं कि मार्क्स और अन्य तमाम दार्शनिकों ने जिन अर्थों में ‘आदर्शवाद’ या ‘भौतिकवाद’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया है, उनका उच्च आध्यात्मिक स्तर की ओर ले जाने वाली मनोवैज्ञानिक प्रेरणाओं या निचले स्तर की भौतिक प्रेरणाओं से कोई लेना-देना नहीं है। दार्शनिक शब्दावली में भौतिकवाद का मतलब उस दार्शनिक दृष्टिकोण से होता है जिसके मुताबिक पदार्थों की गतिशीलता ही ब्रह्मांड का मूल तत्व है। इस लिहाज से यूनान के सुकरात से पहले के दार्शनिक जरूर भौतिकवादी थे, हालांकि ऊपर बताए गए अर्थों में वे कतई भौतिकवादी नहीं थे। इसके विपरीत ‘आदर्शवाद’ का मतलब उस दार्शनिक विचार पद्धति से है जिसमें ज्ञानेंद्रियों के संज्ञान में आने वाली निरंतर बदलती यह दुनिया यथार्थ नहीं है, यथार्थ है आत्मा या चेतना। प्लेटो का सिस्टम पहला ऐसा दार्शनिक सिस्टम है जिसे आदर्शवाद का नाम दिया गया।
बहरहाल, सचाई यह है कि कई तरह की भौतिकवादी और आदर्शवादी दार्शनिक धाराएं प्रचलित रही हैं और मार्क्स के भौतिकवाद को समझने के लिए जरूरी है कि इन दार्शनिक धाराओं की उस सामान्य परिभाषा से थोड़ा आगे बढ़ा जाए जो ऊपर दी गई है। वास्तव में मार्क्स ने उस दार्शनिक भौतिकवाद के खिलाफ कड़ा स्टैंड लिया जिसका रुझान उनके समय के बहुत से प्रगतिशील चिंतकों (खासकर निसर्गवादियों) में मौजूद था। इस भौतिकवाद का दावा था कि तमाम मानसिक और आध्यात्मिक प्रवृत्तियों का आधार पदार्थों और भौतिक प्रक्रियाओं में ही मिलता है। अपने सबसे फूहड़ और सतही रूप में यह भौतिकवाद बताता है कि भावनाओं और विचारों को ठीक ही शारीरिक रासायनिक प्रक्रियाओं का परिणाम कहा गया है और यह कि ‘मस्तिष्क के लिए विचार वैसा ही है जैसा किडनी के लिए पेशाब।’
मार्क्स ने इतिहास और उसकी प्रक्रियाओं का निषेध करने वाले प्रकृति विज्ञान के इस अमूर्त भौतिकवाद, यांत्रिक और बुर्जुआजी भौतिकवाद के खिलाफ संघर्ष किया। इसके स्थान पर उन्होंने इकोनॉमिक एंड फिलॉसफिकल मैन्युस्क्रिप्ट में प्रकृतिवाद या मानववाद का प्रतिपादन किया जो आदर्शवाद और भौतिकवाद दोनों से अलग है। हालांकि दोनों के एकीकृत सत्य इसमें समाहित हैं। वास्तव में मार्क्स ने कभी ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ या ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ शब्दों का प्रयोग ही नहीं किया। उन्होंने हीगल की पद्धति से अलग अपनी ‘द्वंद्वात्मक पद्धति’ और इसके भौतिकवादी आधार की चर्चा जरूर की है जिससे उनका मतलब मनुष्य के अस्तित्व के बुनियादी हालात से है।
‘भौतिकवाद’ का यह पहलू (यानी मार्क्स की ‘भौतिकवादी पद्धति’) जो मार्क्स के विचारों को हीगल के विचारों से अलग करता है, मनुष्य के वास्तविक आर्थिक और सामाजिक जीवन का और उसके वास्तविक जीवन व्यवहारों के उसके विचारों तथा भावनाओं पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करता है। मार्क्स ने लिखा है, ‘स्वर्ग से जमीन पर उतरने वाले जर्मन दर्शन के ठीक उलट इसमें हम जमीन से स्वर्ग की ओर उठते जाते हैं। कहने का मतलब यह कि हाड़-मांस के मनुष्य तक पहुंचने के लिए हमारा प्रस्थान बिंदु यह नहीं होता कि लोग क्या कल्पना करते हैं, क्या सोचते हैं, न ही यह कि उनके बारे में क्या कहा, सोचा जाता है, क्या कल्पना की जाती है या कैसी अवधारणा बनाई जाती है। हमारा प्रस्थान बिंदु होता है वास्तविक, सक्रिय मनुष्य। उनकी वास्तविक जीवन प्रक्रियाओं के आधार पर हम इस जीवन प्रक्रिया के विचारधारात्मक प्रतिरूपों और प्रतिध्वनियों के विकास को दर्शाते हैं।’ या फिर जैसा कि उन्होंने थोड़े अलग शब्दों में कहा है, ‘हीगल का इतिहास का दर्शन और कुछ नहीं बल्कि चेतना और पदार्थ, ईश्वर और संसार के बीच के अंतर्विरोध को लेकर ईसाई-जर्मन धारणा की दार्शनिक अभिव्यक्ति है… हीगल का इतिहास का दर्शन एक ऐसी अमूर्त या संपूर्ण चेतना की कल्पना कर लेता है जो इस तरह से विकसित होती है कि मानव समाज जाने-अनजाने उसका वहन करने वाली एक भीड़ मात्र बन कर रह जाता है। हीगल मान लेता है कि एक पूर्व कल्पित इतिहास होता है जो वास्तविक इतिहास से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। इस तरह मनुष्यता का इतिहास मनुष्यता की उस अमूर्त चेतना के इतिहास में परिणत हो जाता है जो वास्तविक मनुष्य पर हावी हो जाती है।‘
मार्क्स ने खुद अपनी ऐतिहासिक पद्धति को बड़े संक्षेप में वर्णित किया है, ‘मनुष्य किस तरह से अपनी आजीविका के साधन पैदा करते हैं यह सबसे ज्यादा उन वास्तविक साधनों की प्रकृति पर निर्भर करता है जो उन्हें अस्तित्व में मिलते हैं और जिनका उन्हें पुनरुत्पादन करना होता है। इस उत्पादन पद्धति को सीधे-सीधे व्यक्तियों के भौतिक अस्तित्व के पुनरुत्पादन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। वास्तव में यह इन व्यक्तियों की गतिविधियों का एक सुनिश्चित स्वरूप है, उनकी जिंदगी को व्यक्त करने का एक निश्चित स्वरूप, उनके हिस्से के जीवन की एक निश्चित पद्धति। व्यक्ति चूंकि अपने जीवन को व्यक्त करते हैं, इसलिए वे होते हैं। इसलिए जो वे होते हैं वह काफी कुछ उनके उत्पादन से जुड़ा होता है, दोनों लिहाज से, यानी एक तो इससे कि वे क्या उत्पादित कर रहे हैं और दूसरे इससे भी कि यह उत्पादन वे कैसे कर रहे हैं। इस तरह, व्यक्तियों की प्रकृति उनका उत्पादन तय करने वाली भौतिक परिस्थितियों पर निर्भर करती है।‘
मार्क्स ने ऐतिहासिक भौतिकवाद और समकालीन भौतिकवाद के बीच का अंतर फायरबाख पर अपनी थीसिस में बड़े स्पष्ट शब्दों में बताया हैः
‘आज तक के सारे भौतिकवादों (फायरबाख के भौतिकवाद सहित) की मुख्य गड़बड़ी यह है कि वस्तु, यथार्थ, जो भी हम अपनी इन्द्रियों के जरिए समझते हैं, वे विचार या वस्तु के ही रूप में समझी जाती हैं, इन्द्रियों के प्रति संवेदनशील मानवीय गतिविधियों के रूप में नहीं। इसलिए भौतिकवाद के विरोध में आदर्शवाद ने सक्रिय पक्ष को अमूर्त रूप से पाला-पोसा जिसे पता ही नहीं कि वास्तव में इन्द्रियों के प्रति संवेदनशील गतिविधि होती क्या है। फायरबाख चाहता है इन्द्रियों के प्रति संवेदनशील गतिविधियों को विचार के विषयों से एकदम अलग, विशिष्ट रूप में लिया जाए, लेकिन वह मानवीय गतिविधियों को ही वस्तुनिष्ठ गतिविधि के रूप में नहीं देखता।‘ हीगल की तरह मार्क्स वस्तु को उसकी गति में देखता है, उसके बनने में, न कि एक ठोस वस्तु के रूप में, जिसकी व्याख्या इसके भौतिक कारण को उद्घाटित करते हुए की जा सकती है। हीगल के विपरीत, मार्क्स इंसान और इतिहास का अध्ययन वास्तविक मनुष्य और उसकी उन सामाजिक, आर्थिक स्थितियों से शुरू करता है जिनमें वह रह रहा होता है, न कि उसके विचारों से। मार्क्स बुर्जुआजी भौतिकवाद से उतना ही दूर था जितना हीगल के आदर्शवाद से था – इसलिए उसने ठीक ही कहा कि उसका दर्शन न तो आदर्शवाद है और न भौतिकवाद बल्कि संश्लेषण (सिंथेसिस) हैः मानववाद और निसर्गवाद।
अब तक यह स्पष्ट हो गया होगा कि ऐतिहासिक भौतिकवाद की प्रकृति के बारे में प्रचलित मान्यता क्यों त्रुटिपूर्ण है। प्रचलित मान्यता यह मान लेती है कि मार्क्स के मतानुसार मनुष्य के अंदर सबसे मजबूत मनोवैज्ञानिक कारक पैसा पाने या भौतिक सुख-सुविधाएं हासिल करने की इच्छा ही होता है। ऐतिहासिक भौतिकवाद की यह व्याख्या आगे कहती है कि अगर यह मनुष्य के अंदर की सबसे बड़ी शक्ति है तो इतिहास को समझने का मुख्य जरिया लोगों की भौतिक इच्छा ही हो सकती है। यानी इतिहास की व्याख्या की कुंजी है मनुष्य का पेट और भौतिक सुख-सुविधाओं के प्रति उसका लोभ। इस व्याख्या की मूलभूत गड़बड़ी है यह मान्यता कि ऐतिहासिक भौतिकवाद ऐसा मनोवैज्ञानिक सिद्धांत है जो मनुष्य की प्रवृत्तियों और आवेगों से वास्ता रखता है। लेकिन वास्तव में, ऐतिहासिक भौतिकवाद मनोवैज्ञानिक सिद्धांत कतई नहीं है। इसका दावा है कि मनुष्य की उत्पादन पद्धति से उसका चिंतन और उसकी इच्छाएं निर्धारित होती हैं, यह नहीं कि उसकी मुख्य इच्छाएं अधिकतम भौतिक लाभ से प्रेरित होती हैं। इस संदर्भ में अर्थव्यवस्था का तात्पर्य एक मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं बल्कि उत्पादन पद्धति होता है; मनोगत, मनोवैज्ञानिक नहीं बल्कि एक वस्तुगत आर्थिक-समाजशास्त्रीय कारक। इस सिद्धांत में एकमात्र आधार-वाक्य जिसे कुछ हद तक मनोवैज्ञानिक कहा जा सकता है, इस मान्यता में निहित है कि मनुष्य को भोजन, आवास आदि की जरूरत होती है; इसलिए उसे उत्पादन करना होता है; इसलिए उत्पादन पद्धति सर्वोपरि होती है जो कि बहुत सारे वस्तुगत कारकों पर निर्भर करती है और फिर जैसी वह होती है उसके मुताबिक मनुष्य की अन्य क्षेत्रों की गतिविधियों को निर्धारित करती है। वे वस्तुगत स्थितियां जो उत्पादन पद्धति तय करतीं और सामाजिक संगठनों को आकार देती हैं, वही मनुष्य, उसके विचार और हित भी निर्धारित करती हैं। दरअसल, यह विचार कि ‘संस्थाएं मनुष्य का निर्माण करती हैं’ (मॉन्टेस्क्यू) काफी पुराना है। मार्क्स ने इसमें जो नई बात जोड़ी वह है इस बात का विस्तृत विश्लेषण कि कैसे संस्थाओं की जड़ें उत्पादन पद्धति में जमी होती हैं और कैसे उत्पादक शक्तियां इनमें अंतर्निहित होती हैं। कुछ निश्चित आर्थिक स्थितियां जैसे पूंजीवाद की स्थितियां संपत्ति और पैसों की इच्छा को मुख्य प्रेरक शक्ति के रूप में पेश करती हैं; अन्य आर्थिक स्थितियां एकदम विपरीत इच्छाओं जैसे सादगी, संयम और संपत्ति के प्रति विराग को मुख्य प्रेरक शक्ति के रूप में पेश कर सकती हैं। जैसा कि हम पूर्व की संस्कृतियों में और पूंजीवाद की आरंभिक अवस्थाओं में देखते हैं। मार्क्स के मुताबिक पैसों और संपत्ति के प्रति जुनून ठीक वैसे ही आर्थिक स्थितियों की उपज है जैसे कि इसके विपरीत इच्छाएं।
मार्क्स की इतिहास की ‘भौतिकवादी’ या ‘आर्थिक’ व्याख्या का मनुष्य के अंदर कथित तौर पर सबसे प्रमुख प्रवृत्ति के रूप में मौजूद ‘भौतिकवादी’ या ‘आर्थिक’ उद्यम से कोई लेना-देना नहीं है। इसका यह जरूर कहना है कि इतिहास का विषय और इसके कानूनों की समझ का केंद्र मनुष्य, वास्तविक और समग्र मनुष्य होता है, ‘वास्तविक जीवित व्यक्ति’ – न कि इन व्यक्तियों द्वारा प्रस्तुत विचार।
अगर ‘भौतिकवाद’ और ‘आर्थिक’ जैसे शब्दों की अस्पष्टता से बचना हो तो मार्क्स की इतिहास की व्याख्या को इतिहास की मानववैज्ञानिक व्य़ाख्या कहा जा सकता है। यह इतिहास की ऐसी समझ है जो इस तथ्य पर आधारित है कि इंसान ‘अपने इतिहास के लेखक और उसके सक्रिय कार्यकर्ता’ होते हैं।
दरअसल, मार्क्स और 18 वीं तथा 19वीं सदी के अन्य लेखकों के बीच एक बड़ा अंतर ही यह है कि वह पूंजीवाद को मानवीय प्रकृति का परिणाम नहीं मानते और न ही पूंजीवाद के तहत मनुष्य की प्रेरक शक्ति को मनुष्य की सार्वकालिक प्रेरक शक्ति मानते हैं। मार्क्स मनुष्य की सबसे प्रबल प्रेरक शक्ति अधिकतम लाभ को मानते थे, इस मान्यता का बेतुकापन तब और भी स्पष्ट हो जाता है जब हम यह देखते हैं कि मार्क्स ने मनुष्य की प्रेरणाओं के बारे में कई सीधे वक्तव्य दिए हैं। उन्होंने ‘निश्चित’ और ‘सापेक्षिक’ प्रवृत्तियों में फर्क किया है। उनके मुताबिक निश्चित प्रेरणाएं वे होती हैं जो हर परिस्थिति में मौजूद रहती हैं और विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों में उनमें जो थोड़े-बहुत बदलाव आते भी हैं वे उनके स्वरूप और दिशा तक सीमित रहते हैं। सापेक्षिक प्रवृत्ति वे होती हैं जो खास तरह के सामाजिक संगठन की ही उपज होती हैं। मार्क्स सेक्स और भूख को निश्चित प्रवृत्ति की श्रेणी में रखते हैं लेकिन उन्हें कभी यह बात नहीं सूझी कि अधिकतम आर्थिक लाभ को भी उसी श्रेणी में रख दें।
मगर, मार्क्स के भौतिकवाद के संबंध में प्रचलित मान्यता को गलत साबित करने के लिए उनके मनोवैज्ञानिक विचारों से ऐसे सबूत ढूंढने की कोई जरूरत नहीं है। पूंजीवाद की उनकी पूरी आलोचना ही यही है कि इसने पैसों और भौतिक लाभों की इच्छा को मनुष्य की मुख्य प्रवृत्ति बना दिया है और समाजवाद की उनकी अवधारणा ही एक ऐसे समाज की है जिसमें यह भौतिक इच्छा मनुष्य की प्रमुख प्रेरक शक्ति नहीं रह जाएगी। यह बात आगे और स्प्ष्ट होगी जब हम मनुष्य की मुक्ति और आजादी संबंधी मार्क्स की अवधारणाओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
जैसा कि मैंने पहले भी कहा है, मार्क्स आरंभ ही करते हैं मनुष्य से जो खुद अपना इतिहास बनाता हैः “सभी मानवीय इतिहासों का मूल आधार बेशक जीवित व्यक्तियों का अस्तित्व है। इसलिए पहला तथ्य जो स्थापित किए जाने की जरूरत है वह है इन व्यक्तियों का भौतिक संगठन और बाकी पूरी प्रकृति से रिश्ता। बेशक यहां हम न तो मनुष्य की वास्तविक भौतिक प्रकृति का विवेचन कर सकते हैं न ही उन प्राकृतिक स्थितियों – भू तत्वीय, जलतत्वीय, जलवायु संबंधी आदि – का विश्लेषण कर सकते हैं जिनमें मनुष्य खुद को पाता है। इतिहास लेखन की यात्रा हमेशा इन प्राकृतिक आधारों और इतिहास के क्रम में मनुष्य के कार्यों से इनमें होने वाले परिवर्तनों को दर्ज करते हुए बढ़नी चाहिए। मनुष्य जानवरों से चेतना के आधार पर, धर्म के आधार पर या ऐसे ही अन्य आधारों पर अलग किए जा सकते हैं। वे खुद अपनी आजीविका के साधन उत्पादित करना शुरू कर देते हैं। यह एक ऐसा कदम है जो उनके भौतिक संगठन द्वारा तैयार किया जाता है। अपनी आजीविका के साधन उत्पादित करते हुए मनुष्य प्रकारांतर से अपनी वास्तविक भौतिक जिंदगी का उत्पादन कर रहा होता है।”
मार्क्स के मूलभूत विचारों को समझना महत्वपूर्ण हैः मनुष्य खुद अपना इतिहास बनाता है; वह खुद अपना निर्माता है। जैसा कि कई साल बाद उन्होंने ‘पूंजी’ में लिखाः “और ऐसे इतिहास को संकलित करना आसान भी होगा, क्योंकि जैसा कि विको कहते हैं, मानवीय इतिहास नैसर्गिक इतिहास से इस अर्थ में अलग है कि हमने इसे बनाया है, उसे नहीं।“ मनुष्य इतिहास की प्रक्रिया में खुद को जन्म देता है। मनुष्य जाति के आत्मनिर्माण की इस प्रक्रिया में मूल कारक होता है प्रकृति से उसका रिश्ता। अपने इतिहास की शुरुआत में मनुष्य प्रकृति से पूरी तरह जकड़ा होता है। विकास की प्रक्रिया में वह प्रकृति के साथ अपने रिश्ते को रूपांतरित करता है और खुद को भी।
पूंजी में मार्क्स प्रकृति के ऊपर इस निर्भरता के बारे में और भी बहुत कुछ कहते हैः “उत्पादन के ये पुराने सामाजिक ढांचे, बुर्जुआजी समाज के मुकाबले बेहद साधारण और पारदर्शी हैं। मगर वे या तो ऐसे व्यक्तियों के अपरिपक्व विकास पर आधारित हैं जो आदिमकालीन आदिवासी समुदायों में व्यक्तियों को एक-दूसरे से जोड़ने वाले नाभिनाल जुड़ावों को भी काट नहीं पाए थे या फिर प्रत्यक्ष अधीनस्थता वाले संबंधों पर। वे तभी अस्तित्व बना और कायम रख सकते हैं जब उत्पादक श्रम शक्ति का विकास एक खास सीमा से आगे न बढ़ा हो और इसीलिए भौतिक जीवन की परिधि में सामाजिक जीवन – मनुष्य और मनुष्य के बीच तथा मनुष्य और प्रकृति के बीच – उसी अनुपात में संकीर्ण हो। यह संकीर्णता पुराने समय में होने वाली प्रकृति की पूजा तथा प्रचलित धर्म के अन्य तत्वों में झलकती है। वास्तविक दुनिया की धार्मिक परछाईं किसी भी सूरत में, अंतिम तौर पर तभी लुप्त हो सकती है जब रोजमर्रा की जिंदगी के व्यावहारिक रिश्ते मनुष्य को प्रकृति और अन्य मनुष्यों के संबंध में नितांत बोधगम्य और तार्किक रिश्तों की झलक दें। भौतिक उत्पादन की प्रक्रिया पर आधारित समाज की जीवन प्रक्रिया अपना रहस्यात्मक परदा तब तक नहीं हटाती जब तक कि इसका ख्याल रखने के लिए स्वतंत्र रूप से जुड़े मनुष्यों द्वारा संचालित उत्पादन प्रक्रिया अमल में नहीं आ जाती और वह तय योजना के मुताबिक उन लोगों द्वारा सतर्कतापूर्वक नियमित नहीं की जाने लगती। हालांकि इसके लिए समाज में एक निश्चित भौतिक आधार या रहन-सहन की एक खास परिस्थिति का होना जरूरी है जो, फिर विकास की लंबी और तकलीफदेह प्रक्रिया की स्वतःस्फूर्त उपज है।”
इस वक्तव्य में मार्क्स ने एक ऐसे तत्व का जिक्र किया है जिसकी उनके सिद्धांत में प्रमुख भूमिका है। वह है श्रम। श्रम वह कारक है जो मनुष्य और प्रकृति के बीच मध्यस्थता करता है। श्रम अपनी शक्ति को प्रकृति के साथ नियमित करने की मनुष्य की कोशिश है। श्रम मनुष्य की जिंदगी की अभिव्यक्ति है और श्रम के जरिए मनुष्य और प्रकृति के बीच के रिश्तों में बदलाव आता है। यानी श्रम के जरिए मनुष्य खुद को बदलता है। श्रम की उनकी अवधारणा पर आगे और चर्चा होगी।
इस खंड का समापन मैं 1859 में लिखे उस उद्धरण से करूंगा जो ऐतिहासिक भौतिकवाद पर मार्क्स की सबसे संपूर्ण व्याख्या हैः
“जिस सामान्य निष्कर्ष पर मैं पहुंचा, और एक बार मिलने के बाद जिस निष्कर्ष ने मेरे अध्ययन के लिए मार्गदर्शक सूत्र का काम किया, उसे संक्षेप में इस तरह व्यक्त किया जा सकता हैः अपने जीवन के सामाजिक उत्पादन के दौरान मनुष्य ऐसे निश्चित और अपरिहार्य रिश्तों में पड़ता है जो उसकी इच्छा से स्वतंत्र होते हैं। उत्पादन के ये रिश्ते अपनी भौतिक उत्पादक शक्तियों के विकास की निश्चित अवस्था के अनुरूप होते हैं। उत्पादन के इन तमाम रिश्तों का कुल जोड़ मिलकर समाज की आर्थिक संरचना का निर्माण करता है जो उसकी वास्तविक बुनियाद होती है और इसी के ऊपर खड़ा होता है वह राजनीतिक और वैधानिक सुपरस्ट्रक्चर जिसके अनुरूप विकसित होते हैं सामाजिक चेतना के निश्चित स्वरूप। भौतिक जीवन की उत्पादन पद्धति मोटे तौर पर सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक जीवन प्रक्रिया तय करती है। वह लोगों की चेतना नहीं है जो उनका सामाजिक अस्तित्व निर्धारित करती है बल्कि इसके उलट उनका सामाजिक अस्तित्व ही उनकी चेतना निर्धारित करता है। अपने विकास की एक निश्चित अवस्था में समाज की भौतिक उत्पादक शक्तियां पहले से मौजूद उत्पादन संबंधों से या उन संपत्ति संबंधों से जिनमें वे अब तक रह रही होती हैं, टकराने लगती हैं। उत्पादक शक्तियों के विकास के स्वरूप से बदलकर ये रिश्ते धीरे-धीरे उनके पांवों की बेड़ियां बन जाते हैं। इसके बाद सामाजिक क्रांति का युग शुरू होता है। आर्थिक बुनियाद में बदलाव के बाद विशाल सुपरस्ट्रक्चर का रूपांतरण अपेक्षाकृत जल्दी होता है। ऐसे रूपांतरणों पर विचार करते हुए उत्पादन की आर्थिक परिस्थितियों के भौतिक रूपांतरण में (जो नैसर्गिक विज्ञान की यथार्थता के जरिए निर्धारित किया जा सकता है) और वैधानिक, राजनीतिक, धार्मिक या दार्शनिक, एक शब्द में कहें तो वैचारिक स्वरूपों वाले रूपांतरण (जिनमें लोग इस संघर्ष को लेकर सचेत हो जाते हैं और इसे अंजाम देते हैं) में फर्क जरूर किया जाना चाहिए। जैसे कि किसी व्यक्ति के बारे में हमारी राय इस बात पर निर्भर नहीं करती कि वह अपने बारे में क्या सोचता है, वैसे ही हम रूपांतरण की ऐसी किसी अवधि के बारे में फैसला इसकी चेतना के आधार पर नहीं कर सकते। उल्टे, इस चेतना की व्याख्या भौतिक जीवन के अंतर्विरोधों के आधार पर, सामाजिक उत्पादक शक्तियों और उत्पादन संबंधों के बीच चल रहे टकराव के आधार पर की जानी चाहिए। कोई भी सामाजिक व्यवस्था तब तक नष्ट नहीं होती जब तक कि वे तमाम उत्पादक शक्तियां विकसित नहीं हो जातीं जिनके लिए इसमें गुंजाइश होती है; और नए उच्चतर उत्पादन संबंध तब तक सामने नहीं आते जब तक कि उनके अस्तित्व की भौतिक स्थितियां पुराने समाज के ही गर्भ में परिपक्व नहीं हो जातीं। इसलिए मनुष्यता अपने सामने हमेशा वही कार्यभार रखती है जो पूरे किए जा सकते हों। यानी अगर थोड़ा और बारीकी से देखा जाए तो यह हमेशा पाया जाएगा कि कार्य तभी सामने आता है जब उसे पूरा करने लायक भौतिक स्थितियां पहले ही तैयार हो चुकी होती हैं या कम से कम उनके तैयार होने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी होती है। एशियाई, प्राचीन, सामंती और आधुनिक बुर्जुआजी उत्पादन पद्धतियों को मोटे तौर पर समाज के आर्थिक निर्माण के क्रम में आए प्रगतिशील युगों के रूप में श्रेणीबद्ध किया जा सकता है। बुर्जुआजी उत्पादन संबंध उत्पादन की सामाजिक प्रक्रिया का आखिरी शत्रुतापूर्ण स्वरूप है – शत्रुतापूर्ण वैयक्तिक शत्रुता के अर्थ में नहीं, व्यक्ति के जीवन की सामाजिक परिस्थितियों से उत्पन्न शत्रुता के अर्थ में; इसी बीच बुर्जुआ समाज के गर्भ में विकसित हो रहीं उत्पादक शक्तियां इस शत्रुता को हल करने के लिए आवश्यक भौतिक स्थितियां तैयार कर देती हैं। इस प्रकार यह सामाजिक ढांचा मानव सभ्यता के इस पूर्व-इतिहास (प्री-हिस्ट्री) को समापन तक पहुंचा देता है।
यहां इस सिद्धांत की कुछ विशेष मान्यताओं को एक बार फिर से रेखांकित कर लेना उपयोगी होगा। सबसे पहले मार्क्स की ऐतिहासिक परिवर्तन की अवधारणा। परिवर्तन का कारण उत्पादक शक्तियों (तथा अन्य वस्तुगत परिस्थितियों) और तत्कालीन सामाजिक ढांचे के बीच का टकराव होता है। जब एक उत्पादन पद्धति या एक सामाजिक ढांचा उत्पादक शक्तियों को आगे बढ़ाने के बदले उन्हें बाधित करने लगता है, तो उन उत्पादक शक्तियों को या तत्कालीन समाज को नष्ट होने से बचने के लिए उत्पादन का ऐसा ढंग चुनना पड़ता है जो नई उत्पादन शक्तियों के अनुकूल हो और उन्हें बढ़ावा दे सके। समूचे इतिहास में मनुष्य का विकास प्रकृति के साथ उसके संघर्ष से ही निर्धारित होता आया है। इतिहास के एक खास बिंदु पर आकर (मार्क्स के मुताबिक, निकट भविष्य में) मनुष्य प्रकृति की उत्पादक शक्तियों का इस हद तक विकास कर लेगा कि मनुष्य और प्रकृति के बीच का विरोध अंततः हल हो जाएगा। इस बिंदु पर मनुष्य का पूर्व-इतिहास (प्री-हिस्ट्री) समाप्त होगा और वास्तविक मानवीय इतिहास का आरंभ होगा।