समाज विकास की अंतिम मंजिल में लोग अपनी क्षमता भर श्रम करेंगे और आवश्यकता भर उपभोग करेंगे

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देर सबेर मनुष्यता वहीं पहुंचेगी जब लोग अपने क्षमता भर उत्पादन या श्रम करेगें और आवश्यकता भर उपभोग करेगें। जो कि कम्यूनिष्टों का दर्शन कहता है। इसको दिवास्वप्न और अव्यवहार्य मानते हुए इसके विरोध मे मनुष्य की सहज प्रवृत्तियों का हवाला देते हुए कहा जाता है कि लालच और भय मनुष्यता की प्रेरक शक्ति रही है इसलिए इससे मुक्त मानव समाज नही बन सकता है। इसी प्रकार का तर्क स्त्रियों को बुर्का पहनाने के लिए भी दिया जाता है कि सार्वजनिक स्थल पर नखशिख ढंकी स्त्री ही पुरुष की कामुकता से बच सकती है परन्तु यूरोप का पुरुष समाज तो इस कमजोरी से मुक्त हो सका है हालाकि अपवाद हर जगह होते हैं। इसी प्रकार सत्य बोलना विकसित देशों के नागरिकों का सामान्य लक्षण है और उनकी बहुत सी सार्वजनिक व्यवस्थाएं इस सहज विश्वास पर चलती है कि उनके नागरिक प्रायः सत्य बोलते हैं परन्तु हमारे समाज के सत्यवादी होना विशिष्ट लक्षण है और एक सत्यवादी को समाज का बौड़म स्वीकार कर लिया जाना सहज स्वीकार्य है। इसका अनुभव विकसित देशों से लौटे हमारे समाज के सदस्यों के उनकी व्यवस्थाओं को बेवकूफ बनाने और अपनी चतुराई का वर्णन करके गर्वित होते चेहरों का भाव देखकर लगता है। कहने का आशय यह है कि हम भले अभी यह विश्वास न कर सकें कि समाज का बहुलांश सत्यवादी बन सकता है परन्तु इसी पृथ्वी के हिस्से में ऐसे विकसित समाज हैं जिनमें सत्यवादिता सामान्य गुंण है। यानी जिस आर्दश की परिकल्पना कम्यूनिष्ट करते हैं वो न तो अव्यावहारिक है और न ही कपोल कल्पना कि भविष्य का मानव समाज ऐसा बनाना पड़ेगा जिसमें लोग अपनी क्षमता भर कार्य कर सके और अपनी आवश्यकता भर उपभोग कर सकें। यदि अभी भी अविश्वास है तो इस अविश्वास की तुलना मैं अस्सी के दशक में देहातियों के उस अविश्वास से करता हूं जब हम बूफे सिस्टम मे खाना खाने में भोजन की लूट हो जाने या अराजकता फैल जाने के कारण इसके अव्यावहारिक होने की बात किया करते थे। अन्त मे एक बात और समझ में आती है लालच अर्न्तभूत क्रिया है जिस पर नियंत्रण किया जा सकता है और भय बाहृय क्रिया की प्रतिक्रिया है जिससे मुक्त होना इस पर निर्भर करता है कि बाहृय परिस्थितियों पर हमारा कितना नियंत्रण है। निश्चय ही हम जंगली जानवरों के भय से मुक्त हो चुके हैं, कबीलाई मानसिकता से भी क्रमशः मुक्त होते जा रहे हैं, अधिकांश बीमारियों को ठीक कर लिए जाने का आश्वस्ति भाव समाज मे दिखता है, जीवन जीने की नैतिक और सांस्कृतिक एकरुपता की तरफ भी हमारी आश्वस्तिकारक स्वीकार्यता बढ़ रही हैं और सोशल मीडिया के विस्तार के फलस्वरुप लोभ पर आधारित उत्पादन प्रणाली द्वारा विभिन्न राष्टªों और मानव समुदाय के विरुद्ध उत्पन्न किए जा रहे संकट भी ज्यादे स्पष्टता से दिख रहे हैं। इसलिए लोभमुक्त उत्पादन और वितरण प्रणाली का सपना भी साकार होना चन्द पीढ़ियों की बात है, हां हम भय मुक्त नही हो सकते क्योंकि भय का श्रोत कहीं और है आने वाले दिनों मे हमारी प्रजाति हमारे ग्रह की पर्यावरणीय प्रणाली के संकट मे होने के कारण भय ग्रस्त होगी और यह भय हमें गम्भीरता चुनौतियों मे उलझाए रखेगा।
संतोष कुमार

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