नोयडा की झुग्गी बस्ती में काम करने वाले मज़दूर आंदोलन से जुड़े कुछ सामाजिक कार्यकर्ता मिल बैठकर आपस में कुछ बतिया रहे थे। पर्यवेक्षक के रूप में वहाँ मौजूद एक कार्यकर्ता ने पूछाः साथी यह तो बताओ कि बिहार से भारी संख्या में जो लोग दिल्ली आकर काम कर रहे हैं उनमें से क्या झा टाइटिल वाले लोग भी मिलते हैं कि नहीं। पूछने का आशय यह था कि पूँजी की संगठित मार का असर टिपिकल सवर्णों पर भी हुआ है या नहीं। अगर मार पड़ी है तो कितनी? हर किसी के अपने सुल्तानपुर होते हैं और अगर तथ्य-आँकड़े अलग से न उपलब्ध हों तो अनुभवजन्य ज्ञान की अपनी सीमा स्पष्ट होती है। ——– क्या कोई साथी यह स्पष्ट करेगा कि इस महादेश में खुद को द्विज कहने वाली जातियों में सर्वहाराकरण की रफ्तार कितनी है, माने कितने प्रतिशत द्विज सर्वहारों की पाँतों में आकर हाजिरी लगा रहे हैं। गई हालत में उनके पास गाँव में घर और धनिया उगाने लायक जमीन तो होगी ही जो दलितों के पास प्रायः नहीं होती है। उन्हें शहरों में मकान मिलने में आसानी होती है, जिसके लिए दलितों को संघर्ष करना पड़ता है। सबसे खराब दशाओं में भी द्विजों को कुछ विशेषाधिकार हासिल होते हैं। यह सब बातें मानने लायक हैं। ———-कुल सवर्ण जातियों में से शुद्ध मज़दूरों का प्रतिशत कितना है? यानि वे लोग जिनके पास बीघा भर से कम जमीन हो।————मूल निवासी ब्रिगेड के झंडाबरदार जो बंद समाज की पहचान को आधार बनाकर जातीय वैमनस्यता के आधार पर राजनीति करना चाहते हैं, यह सवाल उनके लिए भी है। मज़दूर के रूप में वर्गीय एकता को तोड़ने का काम करने वाली जितनी भी शक्तियाँ हैं, उनमें अंबेडकराइट सर्वाधिक मुखर हैं। लुधियान में मैंने एक कॉमरेड को मज़दूरों के साथ मीटिंग करते हुए देखा थाः वह क्षेत्र, जाति, लिंग आदि के आधार पर मज़दूरों को अलग किए जाने के खिलाफ उन्हें गोलबंद करने की कोशिशों में लगा हुआ था।एक सवाल औरः शहरी सर्वहारा के रूप में उनकी हैसियत-स्थिति किस तरह से, किस पैमाने पर दलितों जैसी है? बात सिर्फ कारखाना मज़दूरों की हो रही है। मेरे ख्याल में झा साहब और यादव जी दोनों एक ही पाले में बैठते हैं और दोनों ही दलितों से दूरी बनाकर चलते हैं। ————-अपने वर्ग को तलाशो, वह चाहे जहाँ भी हो, चाहे जिस जाति का हो, और अधिरचना के छोटे-बड़े सवालों को हल करके वर्गीय एकता को फौलादी बनें। जय मूलनिवासी का नारा भी मानवद्वेषी ही कहा जाएगा।
कामता प्रसाद