भारत सैकड़ों ही राष्ट्रीयताओं का घर है, जिनमें से हर किसी की निराली भाषा है। भारत में बहुत-सी भाषाएँ बोली जाती हैं और हर भाषा की अपनी काबिलीयत होती है। किसी भी जटिल विषय की अभिव्यक्ति किसी भी भाषा में की जा सकती। परंतु आज के साम्राज्यवादी दौर में बाकी चीज़ों की तरह भाषाओं का विकास भी असमान होता है। ऊपर से लुटेरे अत्याचारी शासक वर्गों द्वारा अपने ख़ास हितों की पूर्ति के लिए जान-बूझकर किसी ख़ास भाषा का प्रचार किया जाता है, जबकि बाकी भाषाओं की अनदेखी की जाती है।
भारत के शासक भी सन् सैंतालीस के बाद से ही बहु-राष्ट्रीय भारत को जबरन एकल-राष्ट्रीय देश बनाकर इसकी बहु-राष्ट्रीय पहचान, इसकी विविधता को मिटाना चाहते हैं। इस मकसद के लिए पूरे देश को हिंदी के ही रस्से में बाँधना चाहते हैं। सैंतालीस के पहले तथा बाद में भाषा के मसले पर हुईं संविधान-असेंबली की बहसों और संविधान को पढ़ने से साफ़ ज़ाहिर होता है कि किस तरह भारत की अलग-अलग भाषाओं को अनदेखा करने की बुनियाद आज़ाद भारत के जन्म के समय से ही डल गई थी। यह भेदभाव पंजाबी और अन्य भाषाओं से भी हुआ और हो रहा है, परंतु तथाकथित हिंदी-पट्टी की राष्ट्रीयताओं से तो यह भेदभाव ख़ास धौंस से किया गया है, जहाँ इनकी भाषाओं को मान्यता ही नहीं दी गई और बिना किसी जाँच-पड़ताल के इन सबको हिंदी की उप-भाषाएँ घोषित कर दिया गया। यह प्रक्रिया हम झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य -प्रदेश और अन्य बहुत-से राज्यों में देख सकते हैं।
इस अनदेखी का सीधा प्रभाव इन लोगों की आने वालों नस्लों पर पड़ता है, जब इनके बच्चे अनजानी भाषा के चलते पढ़ाई बीच में छोड़ जाते हैं। परंतु समय बीतने के साथ इन राष्ट्रीयताओं की पहचान भारतीय शासकों से मिटाई नहीं जा सकी, बल्कि अब इन लोगों के अंदर एक नई जागृति आ रही है। इसीलिए हम देखते हैं कि एक तरफ़ बिहार में अंगिका भाषा बोलने वाले लोग रेलवे विभाग से माँग करते हैं कि उनके अंगिका क्षेत्र में सूचना पट्ट अंग्रेज़ी, हिंदी के अलावा अंगिका में भी लगाए जाएँ, दूसरी तरफ़ राजस्थान में भी राजस्थानी में बाकायदा पढ़ाई और नौकरियों की माँग की जा रही है। ये राष्ट्रीयताएँ अपनी भाषाओं को संविधान की आठवीं सूची में शामिल करने की माँग भी लगातार कर रही हैं।
इसी तरह झारखंड में भी बीते कुछ सालों में अलग-अलग जनजातीय भाषाओं को स्कूली स्तर पर मान्यता देने की जागृति आ रही है। इसीलिए तक़रीबन तीन सालों से झारखंड सरकार को भी हिंदी के अजनबीपन को देखते हुए प्राथमिक कक्षाओं की पढ़ाई अलग-अलग जनजातीय भाषाओं में शुरू करवानी पड़ी है। वैसे सरकारी तौर पर तो इन सभी भाषाओं को मान्यता हासिल है, परंतु फिर भी निचले स्तर पर लागू कराने की कोशिशें अभी उतनी तेज नहीं। भारत के शासकों ने तथाकथित हिंदी पट्टी की भाषाओं को हिंदी की उप-भाषाएँ घोषित करके इस क्षेत्र की दर्जनों राष्ट्रीयताओं की भाषाओं को मौत की सज़ा सुना रखी है। हैरानी की बात यह है कि कुछ मार्क्सवादी भी भाषाओं के इस कत्ल में भारत के शासकों का साथ दे रहे हैं। झारखंड सरकार ने बच्चों को प्राथमिक शिक्षा जनजातीय भाषाओं मं देने का फ़ैसला किया है। झारखंड सरकार अपने इस फ़ैसले के प्रति कितनी ईमानदार है, यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा, परंतु यह ख़बर भाषाओं के कत्ल का जश्न मनाने वाले मार्क्सवादियों के लिए ज़रूर बुरी ख़बर है।
जन-समूहों में आ रही यह नयी चेतना अभी अपनी प्रारंभिक अवस्था में ही है, परंतु यह एक नया, शुभ कदम है। परंतु लगता है कि इस नयी चेतना से शासकपरस्त वर्ग को खासी तकलीफ़ हो रही है। इसीलिए साल 2016 में जब एक केंद्रीय मंत्री की तरफ से राजस्थानी को आठवीं सूची में शामिल करने की बात कही गई और भोजपुरी को भी अलग भाषा का दर्जा देने की बातें हुई तो हिंदी के 113 प्रोफ़ेसरों, लेखकों की तरफ से सरकार को चिट्ठी लिखकर इस कदम का कड़ा विरोध किया गया और कहा गया कि यदि “हिंदी की इन उप-बोलियों” को मान्यता दी गई तो हिंदी “अपने” करोड़ों बोलने वालों से वंचित हो जाएगी। शासक वर्ग की ऐसी पीड़ा तो समझ में आती है, परंतु इसी मार्ग के यात्री प्रगतिवादियों के लिए भी लोगों की यह नयी चेतना आने वाले किसी बुरे शगुन की तरह है।
मुक्ति मार्ग से साभार