सत्येन्द्र पीएस जी द्वारा अनुदित मण्डल कमीशन (राष्ट्र निर्माण की सबसे बड़ी पहल) किताब के भूमिका की शुरुआत बाबासाहेब बी आर अम्बेडकर की पंक्ति-
“हिन्दू धर्म में पुजारियों की व्यवस्था खत्म हो जाए। अगर यह मुमकिन नहीं है तो इसे वंशानुगत न रहने दिया जाए। यानी यह न हो कि पुजारी का बेटा पुजारी बने। जो भी हिन्दू धर्म मे विश्वास रखता हो, उसे पुजारी बनने का अधिकार हो। ऐसा कानून बने कि सरकार द्वारा निर्धारित परीक्षा पास किए बगैर कोई भी हिन्दू पुजारी न बने और सरकारी सनद होने पर ही कोई आदमी पुजारी का काम कर पाए।”(पृ सं. 09)
– से होते देख बहुत प्रसन्नता होती है।
सत्येन्द्र पीएस जी ने सत्तर पृष्ठ की विस्तृत भूमिका में ज्योतिबा फुले से लेकर 2017 तक के सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन व उठापटक को संक्षेप में समेटने की कोशिश किया है। उन्होंने बताने की चेष्टा किया है कि एक तरफ फुले दम्पत्ति द्वारा 1857 ई में लड़कियों के लिए देश में पहली बार स्कूल खोला गया, 1885 ई में रमाबाई द्वारा लड़कियों के लिए देश का पहला हाई स्कूल खोला गया एवं दोन्धो केशव कार्वे द्वारा 1915-16 ई में लड़कियों का पहला विश्विद्यालय खोला गया तब बाल गंगाधर तिलक जैसे तमाम लोग इसका विरोध कर रहे थे। तिलक 20 फरवरी 1916 को अपने मराठा अखबार में इंडियन वूमेन यूनिवर्सिटी शीर्षक से लेख लिखते हैं कि
“हमें प्रकृति और सामाजिक रीतियों के मुताबिक चलना चाहिए। पीढ़ियों से घर की चहारदीवारी महिलाओं के काम का मुख्य केंद्र रहा है। उनके लिए अपना बेहतर प्रदर्शन करने हेतु यह दायरा प्रयाप्त है। एक हिन्दू लड़की को निश्चित रूप से एक बेहतरीन बहू के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। हिन्दू औरत की सामाजिक उपयोगिता उसकी सिम्पैथी और परम्परागत साहित्य को ग्रहण करने को लेकर है। लड़कियों को हाइजीन, डोमेस्टिक इकोनॉमी, चाइल्ड नर्सिंग, कुकिंग, बुनाई आदि को बेहतरीन जानकारी उपलब्ध कराई जानी चाहिए।” (पृ सं. 14)
ऐसा भी नहीं है कि तिलक सरीखे लोग सिर्फ स्त्री शिक्षा का ही विरोध करते थे बल्कि मनुवादी मानसिकता से लबरेज़ तिलक दलित-पिछड़ा पुरूषों की शिक्षा के भी खिलाफ थे। 15 मई 1881 ई को मराठा अखबार में ‘अवर सिस्टम ऑफ एजुकेशन : ए डिफेक्ट एंड क्योर’ शीर्षक से लिखते हैं कि,
“आप किसान के लड़के को हल जोतने, लोहार के बेटे को धौंकनी से, मोची के बेटे को सूआ के काम से पकड़कर आधुनिक शिक्षा देने के लिए ले जाएंगे।…..और लड़का अपने पिता के पेशे की आलोचना करना सीखकर आएगा। उसे अपनी खानदानी और पुराने पेशे में बेटे का सहयोग नहीं मिलेगा। ऐसा करने पर वह लड़का रोजगार के लिए सरकार की तरफ देखेगा। आप उसे उस माहौल से अलग कर देंगे जिससे वह जुड़ा हुआ है, खुश है और उनके लिए उपयोगी है, जो उन पर निर्भर हैं। उनकी बहुत सी चीजों से आप उन्हें दूर कर देंगे।……….कुनबी बच्चों को शिक्षा देना धन की बर्बादी है। वह धन बर्बाद किया जा रहा है जो करदाताओं से लिया जाता है। इस शिक्षा का समाज के एक खास तबके पर बुरा असर पड़ रहा है।” (पृ सं. 13)
इतना पर भी नहीं रुकते तिलक साहब। ब्रिटिश सरकार की भी आलोचना कर बैठते हैं,
“अछूत बच्चों की शिक्षा को दिया जाने वाला सरकारी समर्थन ब्रिटिश महारानी की उस घोषणा के विरुद्ध है जिसमें उन्होंने गारंटी दी है धार्मिक मान्यताओं में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा।” (पृ सं.14)
अब आसानी से समझा जा सकता है कि ये बहुजन समाज के प्रति कितना घिनौनी सोच रखते थे और यह अकेले नहीं बल्कि देश में तमाम ऐसे मनुवादी सोच के लोग रहे हैं जिसके कारण एक बड़ा तबका शिक्षा में पीछे छूट गया था।
हद तो तब हो गई जब 1882 ई में हण्टर कमीशन आया जो कि सबके लिए निशुल्क प्राथमिक शिक्षा की बात करता है। बिहार के कुछ जमींदारों ने सड़क पर उतर कर इसका विरोध करने का काम किया। उनका साफ कहना था कि यदि सब लोग पढ़ लिख लेंगे तो फिर हमारे खेत में काम कौन करेगा? हमारे पशुओं को कौन चरायेगा? अफसोस अपने बिहार में यह मानसिकता 20वीं सदी के अंत तक देखने-सुनने को मिलती रही है।
ज्योतिबा फुले और अम्बेडकर के सामाजिक आंदोलन से लेकर आज तक के राजनीतिक आंदोलन में दलित, आदिवासी एवं पिछड़ा समाज ने कुछ हद तक अपने अधिकार को प्राप्त कर लिया है, किन्तु कुछ अब भी बाकी है।
अनुसूचित जाति एवं जनजाति को तो आरक्षण सम्भवतः संविधान लागू होने के साथ ही मिल गया था परन्तु पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधित्व को लेकर स्वतन्त्रता बाद भी संघर्ष जारी रहा।
संविधान के अनुच्छेद 15(4) व अनुच्छेद 16(4) को ध्यान में रखते हुए अनुच्छेद 340 के तहत 29 जनवरी 1953 को राष्ट्रपति द्वारा ‘पिछड़ा वर्ग आयोग’ का गठन किया गया, जिसके अध्यक्ष काका कालेलकर बने। आयोग ने अपनी रिपोर्ट 30 मार्च 1955 को सौंपी।
“इसने देश भर में 2399 पिछड़ी जातियों या समुदायों की सूची भी तैयार की और इसमें से 837 को ‘अत्यंत पिछड़ा’ के रूप में वर्गीकृत किया।” (पृ सं 95)
अफ़सोस कि यह “आयोग एकमत होकर रिपोर्ट पेश नहीं कर सका। दरअसल आयोग के 5 सदस्यों ने असहमति नोट लगाया। डॉ अनूप सिंह, श्री अरुणांगशु डे और श्री पी जी शाह ने पिछड़ेपन को जाति से जोड़ने का विरोध किया। उन्होंने जाति के आधार पर पदों पर आरक्षण का भी विरोध किया था। वहीं श्री डी एस चौरसिया ने अपने 67 पेज के असहमति नोट में जाति को पिछड़े वर्ग का मानदण्ड बनाये जाने का पुरजोर समर्थन किया था।वहीं टी मरिअप्पा का असहमति नोट सिर्फ दो जातियों को अन्य पिछड़े वर्ग में शामिल किए जाने को लेकर था। आयोग के चेयरमैन श्री काका कालेलकर ने इस ममले पर गोलमोल रुख अपनाया।” (पृ सं 96)
अंततः यह रिपोर्ट ठंडे बस्ते में डाल दी गई और राज्यों को अपने हिसाब से पिछड़ों के आरक्षण पर विचार करने की छूट दे दी गई। कई राज्य अपने स्तर से आयोग बनाये और रिपोर्ट लागू किए, खैर..
आपातकाल के पश्चात 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी जो कि प्रथम गैर कांग्रेसी सरकार थी। 20 दिसम्बर 1978 को तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देशाई ने बी पी मण्डल की अध्यक्षता में चार सदस्यों के साथ ‘पिछड़ा वर्ग आयोग’ गठन के फैसले की घोषणा संसद के सदन में की। सदस्य के रूप में श्री दीवान मोहन लाल, श्री आर आर भोले, श्री दिन बंधु साहू एवं श्री के सुब्रमण्यम शामिल किए गए परन्तु स्वास्थ्य कारणों से श्री दिन बन्धु साहू को 05 नवम्बर 1979 को स्तीफा देना पड़ा और उनकी जगह श्री एल आर नाइक को शामिल किया गया।
आयोग ने अपनी रिपोर्ट ( 3743 पिछड़ी जातियों) 31 दिसम्बर 1980 को राष्ट्रपति के समक्ष सौंपा। रिपोर्ट की पहली पंक्ति,
“सर्वशक्तिमान ईश्वर की अनुकम्पा से मुझे यह रिपोर्ट आपको सौंपने का सम्मान प्राप्त हुआ है।” (पृ सं 86)
पढ़कर मुझे अजीब सा लगा, आखिर बी पी मण्डल साहब अपने टीम के सारे काम को ईश्वर की अनुकम्पा पर …… खैर!
रिपोर्ट सौंपने तक जनता पार्टी की सरकार सत्ता से उतर चुकी थी और कांग्रेस सत्ता पर काबिज हो चुकी थी जिसमें प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं। 8 साल बाद पुनः कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई और भाजपा के समर्थन से जनता पार्टी सत्तासीन हुई। इस बार प्रधनमंत्री बने विश्वनाथ प्रताप सिंह। इस बार मुलायम सिंह यादव, बेनी प्रसाद वर्मा, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार एवं शरद यादव जैसे पिछड़ों के दिग्गज नेता सत्ता में थे। मण्डल आयोग की सिफारिश को प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने स्वीकार करते हुए, 7 अगस्त अगस्त 1990 को लागू करने की घोषणा कर दी। 13 अगस्त को मण्डल आयोग की सिफारिश लागू करने की अधिसूचना जारी कर दी गई। अगले दिन से ही आरक्षण विरोधी लोग बवाल करना शुरू कर दिए और उज्ज्वल सिंह ने तो सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दे डाली।
10 नवम्बर को भाजपा ने समर्थन वापस लिया और विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार गिर गई। फिर राजीव गाँधी ने चन्द्रशेखर सिंह से मुलाकात कर कांग्रेस का बाहरी समर्थन देकर उन्हें प्रधनमंत्री बनाया। 1991 के लोकसभा चुनाव के प्रथम चरण मतदान के दूसरे दिन 21 मई को लिट्ठे द्वारा चुनाव प्रचार के दौरान राजीव गांधी की हत्या कर दी गयी। चुनाव में कांग्रेस पुनः सत्ता में वापसी की और 21 जून को पी वी नरसिंह राव ने प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।
“8 अगस्त 1991को रामविलास पासवान ने केंद्र सरकार पर आयोग की सिफारिशों को पूर्ण रूप से लागू करने में विफलता का आरोप लगाते हुए जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया। पासवान गिरफ्तार कर लिए गए।” (पृ सं 19)
16 नवम्बर 1992 को सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसले में मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू करने को वैध ठहराया। साथ ही आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तय किया। न्यायालय के इस फैसले के बाद
” 8 सितम्बर 1993 को केंद्र सरकार ने नौकरियों में पिछड़े वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण देने की अधिसूचना जारी की। 20 फरवरी 1994 को मण्डल आयोग की सिफारिशों के तहत वी राजशेखर आरक्षण के माध्यम से नौकरी पाने वाले पहले अभ्यर्थी बने।” (पृ सं 20)
यह ध्यान दिलाना उचित समझता हूँ कि आयोग के सदस्य श्री एल आर नाईक ने इस रिपोर्ट पर असहमति जताते हुए नोट लिखा था जिसे कि सत्येन्द्र पीएस साहब ने बड़े ही चालाकी से उसका अनुवाद छोड़ दिया है, अर्थात इस किताब में नहीं छापे हैं। नाईक साहब का मत था कि पिछड़ा वर्ग और अत्यंत पिछड़ा वर्ग नामक दो समूह में वर्गीकृत किया जाए जैसा कि कई राज्यों में है भी। बिहार में पिछड़ा वर्ग को 12 प्रतिशत, अत्यंत पिछड़ा वर्ग को 18 प्रतिशत एवं पिछड़ा वर्ग महिला के लिए 3 प्रतिशत का प्रावधान है। बहरहाल नाईक साहब के मत को आयोग ने नहीं माना।
21 अगस्त 2007 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने उच्च शिक्षण संस्थानों में अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण से सम्बंधित विधेयक को मंजूरी दे दी। इसे भी कोर्ट में चुनौती दिया गया लेकिन 10 अप्रैल 2008 को दिए गए फैसले में उच्चतम न्यायालय ने उच्च शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण को वैध ठहराया। मतलब ओबीसी को नौकरी में 1993 में तथा उच्च शिक्षण संस्थानों में 2008 में आरक्षण मिला। वो भी काशी हिन्दू विश्विद्यालय, वाराणसी में 2008 में 5 प्रतिशत, 2009 में 10 प्रतिशत (5+10=15) एवं 2010 में 12 प्रतिशत (5+10+12=27) करके लागू हुआ था, जिसका मैं साक्षी रहा हूँ क्योंकि 2008 में ही मैं भी प्रवेश लिया था। शेष विश्विद्यालयों में भी सम्भवतः ऐसे ही लागू हुआ होगा।
अब सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे सामने जातिगत आँकड़े प्रामाणिक तौर पर 1931 के जनगणना के ही हैं क्योंकि उसके बाद से जातिगत जनगणना सामने नहीं आये हैं, जबकि लालू प्रसाद यादव आज भी जातिगत आँकड़े की बात करते हुए कहते हैं कि यहां पशुओं की जातिवार जनगणना हो सकती है तो आदमियों का क्यों नहीं? परन्तु जातिगत जनगणना से कांग्रेस-भाजपा दोनों पार्टियां पता नहीं क्यों कन्नी काटती हैं, मनमोहन सरकार के समय के कुछ आँकड़े हैं भी तो जारी नहीं किये गए।…. बहरहाल 1931 की जनगणना को देखते हैं-
“(अ) अनुसूचित जाति- 15.05%, अनुसूचित जनजाति- 7.51%, कुल=22.56%
(आ) मुस्लिम (एस टी के अलावा)- 11.19% (0.02), ईसाई (एसटी के अलावा)- 2.16%(0.44), सिख (एससी और एसटी के अलावा)- 1.67%(0.22), बौद्ध (एसटी के अलावा) 0.67% (0.03), जैन – 0.47% कुल =16.16%
(इ) ब्राह्मण(भूमिहार सहित)- 5.52%, राजपूत-3.90%, मराठा-2.21, जाट- 1.00, वैश्य बनिया- 1.88%, कायस्थ-1.07%, अन्य अगड़ी हिन्दू जातियाँ-2.00% कुल=17.58%
(22.56+16.16+17.58=56.30%) शेष 43.70% अन्य पिछड़ा वर्ग..” (पृ सं 218-219)
मतलब SC-ST की जनसंख्या 22.56% थी इसलिए 22.50 (15+7.5 =22.5) आरक्षण दिया गया। 50% की सीमा को देखते हुए 27.50% शेष था, तो उसमें से 43.70% अन्य पिछड़े वर्ग के क्रीमीलेयर रहित 27% को आरक्षण दिया गया।
2011 के अनुसार SC की 16.2 तथा ST की 8.2 (16.2+8.2 =24.4) जनसंख्या है और OBC का अनुमान 54-55% होने का है, शेष की जनसंख्या कितनी होगी, यह भी अनुमान किया जा सकता है। इस किताब की भूमिका में वर्तमान के कई आरक्षण आंदोलन पर भी वविस्तार से प्रकाश डाला गया है। गुजरात के पाटीदार, महाराष्ट्र के मराठा, आंध्रप्रदेश के कापू, हरियाणा के जाट, राजस्थान के गुर्जर आंदोलन के आधार पर राज्य सरकारों द्वारा दिये गए हर प्रकार के आरक्षण कोर्ट ने रद्द कर दिए लेकिन 2019 में लोकसभा चुनाव के मद्देनजर, बिना किसी सर्वे रिपोर्ट के 10% आरक्षण आर्थिक आधार पर सवर्ण जातियों की दी गई एवं कोर्ट का इसपर क्या रुख है वह बताने की जरूरत नहीं है। अब सेवानिवृत्त प्रधान न्यायाधीश ही जब नेताओं के सामने घुटने टेकने लगे हैं तो फिर क्या कहना।
काश! अपने नेता जाग्रत अवस्था में आते और जातिगत जनगणना करवाकर उचित प्रतिनिधित्व दिलाते। अब तो 50% की सीमा भी टूट ही गयी है।
© डॉ दिनेश पाल
असिस्टेंट प्रोफेसर(हिन्दी)