तनाव के कैक्टस से घिरा बचपन

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” बचपन हर गम से बेगाना होता है ” ….इस गाने को हम सभी ने कभी न कभी जरूर गुनगुनाया होगा। मगर आज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो बचपन न जाने कहाँ गुम हो गया।इसके पीछे कहीं न कहीं हम अभिभावक ,सोशल मीडिया, बदलता आधुनिक परिवेश,एकल परिवार आदि ही इसके कसूरवार हैं।

जब बच्चों के पॉकेट से कंचे, रंग-बिरंगे पत्थर, कांच की चूड़ियों के टुकड़े, माचिस की खाली डिब्बियों का निकलना बचपन की शान हुआ करती थी।
नन्हे मुन्ने के होंठों पर वो निश्छल हँसी, वो मुस्कुराहट, वो शरारत, वो रूठना मनाना, वो जिद पर अड़ जाना…. ये सब न जाने कहाँ खो गये।

आज के दौर का बचपन तो न जाने कितने तनाव के कैक्टस से घिरा हुआ है। अभिभावकों की ख्वाइशें,स्कूल के टीचर्स की उम्मीद,पड़ोसियों से आगे निकलने की होड़, अंधाधुंध गलाकाट प्रतियोगिताओं मे अववल आने का तनाव आदि न जाने कितने कैक्टस हैं इन बच्चों की ज़िंदगी में। दूसरी तरफ उसे अपने परिवार की थोपी गई अपेक्षाओं को भी जीवित रखना है।

ये बचपन अपने मन की भावुक इच्छाओं और उफनती उमंगों का दमन करते हुए,पारिवारिक महत्वाकांक्षाओं और जिम्मेदारियों का बोझ लादे कब बालक से किशोर और किशोर से युवा हो जाता है, समझ ही नहीं पाता। एक तरफ उच्च उपभोक्तावादी समाज का फैलाव और दूसरी तरफ अपने वजूद को खोजने की छटपटाहट, इन दोनों के बीच सिमटता-सिकुड़ता नन्हा बचपन।

अपनी छोटी सी उम्र में पापा और दादा के कंधों की सवारी करने वाले बच्चे आज कंधों पर भारी बस्ता टाँगे, बच्चों से खचाखच भरी स्कूल बस की सवारी करते हैं। बचपन की डोर को आधुनिकता और मीडिया ने लील लिया है। चारों तरफ अश्लीलता का वातावरण…..बचपन बचे तो कैसे! एक तरफ माता पिता ” आया या क्रेच ” के भरोसे बच्चों को छोड़ उन्हें स्मार्ट मॉडर्न बनाने में लगे हुए हैं तो दूसरी तरफ मोबाइल इंटरनेट और एकल परिवार के तरफ बढ़ता रुझान….ऐसे में बचपन की डोर में अनुशासन, संस्कार , बुजुर्गों के लाड़ प्यार तथा उनके अनुभवी निर्देशों की कसावट कहाँ से आये भला!

ऐसे बिगड़ते हालात के शिकार सिर्फ मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चों का बचपन ही नहीं बल्कि इसके शिकार संभ्रांत परिवारों में पलने वाले बचपन भी है जो मुँह में चांदी के चम्मच लेकर पैदा हुए हैं। असल में इन पर भावनात्मक दबाव इतना ज्यादा होता है कि कई बार ये अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं।
क्योंकि मामला चाहे परीक्षाफल का हो या पहनावे का, उनका बच्चा उनके लिए स्टेटस सिम्बल होता है। अपने बच्चे को भरपूर सुविधा और प्रचुर साधन जुटाने में वे भूल जाते हैं कि वे बच्चे हैं कोई मशीन नहीं ।

आजकल होने वाले टीवी रियलिटी शो भी बच्चों के कोमल मन में प्रतिस्पर्धा की भावना को बढ़ा रहे हैं। नन्हे बच्चे जिन पर पहले से ही पढाई का तनाव रहता है। उसके बाद कॉम्पीटिशन में जीत का दबाव इन बच्चों को कम उम्र में ही उन्हें बड़ा व गंभीर बना देता है। वे अपने बचपन के साथी को ही अपना प्रतिद्वंदी मानने लगते हैं और उनका अहित करने में जरा भी संकोच नही करते। क्या किसीं ने कभी सोचा है कि इन रियलिटी शो में एनिमिनेशन के द्वारा बच्चों को प्रतियोगिता से अचानक उठाकर बाहर कर देना उनके कोमल मन पर कैसा प्रभाव डालता होगा।

चूँकि आजकल माता पिता ‍नौकरीपेशा होते हैं इसीलिये वे अपने बच्चों को दिनभर व्यस्त रखने के लिये ,उन्हें उनके बचपन को छीनकर स्कूल, ट्यूशन, डांस क्लासेस, वीडियोगेम आदि में व्यस्त रखते हैं, जिससे की बच्चा घर के अंदर दुबककर अपना बचपन ही भूल जाए। इंडोर गेम की जगह आउटडोर गेम को जैसे: कबड्डी,खो खो,पार्क में झूला आदि से बच्चे हार को स्वीकारना भी खेल खेल में ही सीखते हैं, साथ ही साथ ये आउटडोर गेम्स बच्चों मे सहयोग,टीम स्पिरिट,सहनशीलता आदि का विकास भी होता ।

हर बच्चे का एक अलग स्टेमिना होता है। इसीलिये अभिभावकों को इनके साथ क्वालिटी टाइम बिताना चाहिये न कि क्वांटिटी टाइम । बच्चा यदि किसी एक क्षेत्र में अव्वल है तो उससे अपेक्षा की जाती है कि अन्य क्षेत्रों में भी वह अव्वल आये। संगीत, कला, साहित्य, खेल, रचनात्मकता आदि सभी में वो कुशाग्र हो साथ ही वह विनम्र और आज्ञाकारी भी बना रहे। चाहे भले ही आप अनुशासनहीन ही क्यों न हों, बात बात पर अपने परिवार के सदस्यों से असभ्य भाषा का प्रयोग क्यों न करते हों।

ऐसे में ये गुलाबी नवांकुर सामाजिकता और व्यावहारिकता की जड़ें पकड़ ही नहीं पाते है और ऐसा कुछ कर बैठते हैं,जो जीवन भर के लिए माता-पिता के लिये नासूर बन जाता है।

आखिर हम क्यों नहीं पढ़ पातेअपने ही बच्चों की आँखों में किसी अज्ञात भय की आशंका और तनाव की महीन रेखाओं को? क्यों ग्रहण कर रहा है आज का बचपन ऐसा नकारात्मक संदेश जो उसके अपने ही भीतर अनजाने में कहीं हमने पनपा दिया है और टीवी देखते ही उसे अवसर मिल गया बाहर आने का? अगर ऐसा है तो हमें एक ईमानदार को‍शिश करनी होगी अपनी ही संतानों के मन पढ़ने की। हमें ‘स्पेस’ देना होगा उनकी उड़ान को वरना जब वे हमारे बीच से ‘उड़’ जाएंगे किसी पंछी की तरह तब कुछ नहीं बचेगा, कुछ भी नहीं।

”पहले बड़े परिवार होते थे. वैल्यू एजुकेशन होती थी. फ़ैमिली सपोर्ट होता था। बच्चों को सिखाया-समझाया जाता था।पर अब सब ख़त्म हो गया है. लगातार तनाव से जूझते माता-पिता की टेंडेंसी भी अग्रेसिव हो गई है। आजकल सभी सेल्फ़ सेंटर्ड हैं, सिर्फ़ अपनी-अपनी सोच रहे हैं. बच्चे भी वही सीखते हैं।

एक और बात इसमें प्रमुख है कि आज जितने भी कंप्यूटर गेम्स हैं उन सबके प्रमुख चरित्रों को किसी न किसी से लड़ाई लड़नी होती है। चरित्र कंप्यूटर की स्क्रीन पर होता है लेकिन उसका कमांड बच्चे के हाथ में माउस या ज्वाय स्टिक के जरिये होता है। देखा जाये तो एक तरह से सारी लडाई वह बच्चा खुद ही तो लड़ता है। इस लडाई में दुश्मनों को मार कर जीत हासिल करनी होती है। दुश्मन को मारने के बाद बच्चों के चेहरे में उभरी चमक और क्रूर हंसी कब धीरे-धीरे उनके दिल-दिमाग में हिंसा और क्रूरता के बीज बोती जाती है, न उनको पता चलता है न उनके माता-पिता को। माता-पिता यह जानकर खुश रहते हैं कि चलो बच्चे कंप्यूटर सीख रहे हैं लेकिन वह तो कुछ और ही सीख रहे होते हैं जो उनके जीवन को एक ऐसी राह की ओर मोड़ रहा होता है जो किसी भी तरह से सुखद नहीं।

कहने को तो शिनचैन एक कार्टून कैरेक्टर है लेकिन उसकी भाषा बदतमीजी की सभी हदें पार कर जाती है। इसमें नर्सरी क्लास का छात्र जो लड़कियां पटाने, अपनी टीचर्स को आपस में झूठ बोलकर लड़वाने व शरारत करने में माहिर है। वह अपनी मां को गुस्से में ‘मोटी’, ‘काली’ ‘बच्चे चुराने वाली’ बोलता है। और तो और शिनचैन के पापा भी उससे कहते हैं- चलो बीच पर सुंदर लड़कियां देखने चलते हैं। अब आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं कि बाजार बच्चों को क्या परोस रहा है। अभिभावकों को अपने बच्चों को इनसे बचाना है तो उन्हें साथ बैठ कर वही कार्टून या फिल्में देखने को प्रेरित करना चाहिए जो सही और उनके चरित्र निर्माण के लिए सार्थक और सदुपयोगी हों।

बच्चो के बचपन को बरकरार रखने के लिए अभिभावक को फिर से सोचना होगा जिससे कि उनका बच्चा बचपन में बच्चा ही रहे ना कि व्यस्क बने।

रश्मि सुमन
मनोवैज्ञानिक सलाहकार
इन्फेंट जीसस स्कूल
पटना सिटी
पटना (बिहार)
800008

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