छिपकली
प्रकाश की लालच लिए
आते हैं कीड़े
समझ अपनी जिंदगी की सुबह
हो जाते हैं उतारु
मर – मिटने को
नहीं लेते सबक
देखकर अपने अतीत को
नहीं देख पाते सत्य
अपनी आंखों से
जैसे
चलती गाड़ी में
पेड़ दिखते हैं चलते
दिखता है
पृथ्वी के चारों ओर
घूमता सूर्य
देखकर इनकी झुंड
आ जाती हैं छिपकलियाँ
घुस जाती है इनकी भीड़ में छिपाकर अपनी धूर्तता
कर डालती है हजम
लीक के फकीरों को
दिखते ही सूरज की लालिमा
चालाक छिपकलियाँ
जाती है छिप
किसी महापुरुष की तस्वीर के पीछे
अगले रात के इंतजार में।।
श्याम सुन्दर
सचिव
प्रगतिशील लेखक संघ
9621914199
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”क्यों नहीं लौटते आम आदमी की तरह ? ”
आम आदमी के बीच से निकल कर आम आदमी जब पहुँच जाते हैं राजभवन
लौटतें है जब पाँच साल में तब
पीठ में लाद कर लाते हैं अकूत
संपत्ति
मस्तक में लगाकर कर अहं का मुकुट
लटका कर गले में लोक सेवा का प्रमाण पत्र
आंखों में लगाकर जातिवाद, संप्रदायवाद का चश्मा
लेकर एक हाथ में
तिलिस्म
दूसरे हाथ में ऊर्ध्वगति का खोखला माडल
कसकर कमर में भोगविलास
बांधकर पैरो में मुजरे की धुन
चिपका कर छाती में सत्ता शक्ति का कवचकुंडल
भरकर
बैग में साजिसों का रजिस्टर
लटकाकर अगल बगल लड़ाकू आदमी
बैठ कर आम आदमी के खून से चलने वाले रथ में
बन कर खास आदमी आते हैं आम आदमी के बीच
पूंछता हूँ आम आदमी से
कि जिन आम आदमिओं को भेजते हो लोक सेवा के लिए खाली हाथ
वे क्यों बन कर आ जाते
व्यापारी
बताओ क्यों नहीं लौटते आम आदमी की तरह?
*सुनील
प्रगतिशील लेखक संघ चित्रकूट*