प्रत्येक जाति अपने से भिन्न जाति के प्रति अविश्वास और नफरत पालती है!!!

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धारणाओं के सुकाल मे जनसमर्थन के हाथी जातियों के ठेले पर खड़ी की गयी प्रतिरोधी चट्टानों से नही रुकने वाले हैं। चट्टानें अपने आप मे मजबूत हो सकती हैं लेकिन अस्थिर आधार उनको रोकने का हास्यापद प्रयास भर ही कर सकती है। अगर इन प्रतिरोधी चट्टानों की बुनावट देखेगें तो इसमें आदिम स्मृतियों मे बसी जातीय वैमनस्यता के तत्व ही मिलेगें। इनके द्वारा कोशिश की जाती है कि जातीय वैमनस्यता को मात्र चर्तुवर्ण की वैमनस्यता का आकार दे सकें और उसके बल पर एक बड़ी गोलबन्दी कर सकें लेकिन यह परिकल्पना जमीन पर उतरते-उतरते वास्तविक रंग मे आ ही जाती है। बौद्धिक लोगों को जातियों की दुकानों से राशनपानी मिल जाता है इसलिए जातीय वैमनस्यता पर वर्ण की वैमनस्यता का कलेवर चढ़ाकर भ्रमित करने के लिए कागज काला करते रहते है। ज्यादा नही जानता हूं लेकिन उत्तर भारत की सच्चाई यही है कि प्रत्येक जाति अपने से भिन्न जाति के प्रति अविश्वास और नफरत पालती है और यही अविश्वास और नफरत उनकी अन्दरुनी जातीय एका का रसायन पैदा करता है। इसीलिए किसी बड़े शत्रु के विरुद्ध यदि जाति आधारित कोई एका बनता भी है तो उसके परिदृश्य से हटते ही यह एका जातिगत स्वार्थ के उतने ही तीखे संघर्ष मे बदल जाता है। जो लोग पारम्परिक जातीय नफरत की गंध को नकार कर मात्र चर्तुवर्ण की नफरत को सूंघते हैं उन के आचरण का दोहरापन अधिक पारदर्शी होकर दिख रहा है। यह दुहराने की आवश्यकता नही है कि भारतीय समाज कभी भी यूरोपियन अर्थो मे धर्म निरपेक्ष समाज नही रहा है क्योंकि यहां के बहुसंख्यक सामी तौर तरीके के धार्मिक नही थे। यह विभिन्न आर्थिक संस्तरों और हुनर जीवियों का बहुकोशीय प्रकृति पूजक समाज रहा है जो साम्राज्यवाद से मुक्ति के बाद एक आधुनिक जीवन पद्धति के आर्दश की आकांक्षा पाले अभिजातवर्गीय नेतृत्व में अपने संख्याबल को हथियार बनाकर अपने सामुदायिक हितों का सौदा करता रहा है और आवश्यकतानुसार अपनी रुढ़ियों से मुक्त होने की कोशिश भी करता रहा है। इधर बीच तेजी से इस बहुसंख्यक समाज ने एक धार्मिक पहचान से खुद को जोड़ना शुरु किया है और दुर्योग यह है कि इस पहचान की प्रेरणा उसको अपने सहजीवी अल्पसंख्यक धर्म से मिल रही है अन्यथा इस समाज ने अपने अल्पसंख्यकों को भी एक प्रकार की भिन्न जाति मानकर अपने बहुकोशीय ढाचें मे समाहित कर लिया था जिसके साथ अन्य जातियों की तरह ही नफरत और मुहब्बत का रिश्ता बना हुआ था। सूचना के युग ने हमारी बहुत सारी पहचानों की प्रच्छन्नता को बेनकाब कर दिया है और इक्कीसवीं सदी में हम ज्यादा नंगे होने के लिए अभिशप्त हैं।
संतोष कुमार

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