Navmeet Nav
एक कहानी बताऊं?
शुक्राचार्य असुरों के गुरु माने जाते हैं। शुक्राचार्य की एक ही आंख थी। यानी वे एकाक्ष थे। कहा जाता है कि यह संज्ञा असल मे सिंबॉलिक है। एकाक्ष से मतलब है कि वह सबको एक दृष्टि से देखते थे। किसी में बड़े छोटे, अमीर गरीब, स्त्री पुरुष का भेद नहीं करते थे। इसलिए उन्होंने असुरों का गुरु बनना स्वीकार किया, क्योंकि उन्हें लगता था कि असुर देवों के साथ लड़ाई में पिछड़ रहे थे। उन्हीं के नाम पर आकाशीय पिंडों में से एक शुक्र ग्रह का नाम रखा गया है। हो सकता है कि इस नाम का कोई विद्वान किसी समय रहा हो जिसने काफी काम किया हो। या ये भी हो सकता है कि इस आकाशीय पिंड के नाम पर शुक्राचार्य नामक मिथकीय चरित्र की रचना की गई हो।
बहरहाल काल्पनिक कहानी जो भी हो, वैज्ञानिक जगत में शुक्र ग्रह को पृथ्वी की बहन भी कहा जाता है। क्योंकि इस ग्रह का आकार बिल्कुल पृथ्वी के ही जैसा है। इन दोनों ग्रहों के व्यास में सिर्फ 638 किमी का ही अंतर है। इसका मास भी पृथ्वी के मास के 81.5 प्रतिशत के बराबर है। लेकिन बस इतनी ही समानता है। जहाँ पृथ्वी एक स्वर्ग की तरह है। यहां जल है। जीवन है। हरियाली है। जीव जंतु हैं। मनुष्य है। वहीं शुक्र ग्रह को एक नरक कह सकते हैं। जहाँ पृथ्वी का तापमान, जलवायु, वातावरण ऐसा है कि यहां जीवन की शुरुआत हुई। जीवन फला फूला और विकसित होते हुए यहां तक पहुंचा। शुक्र ग्रह पर ऐसा नहीं है। यहां का तापमान 475 डिग्री सेल्सियस है जोकि इतना अधिक है कि सीसे को पिघला देता है। वायुमंडल का दबाव पृथ्वी की अपेक्षा 93 गुना अधिक है। ऐसे वातावरण में जीवन की बात सोचना भी बहुत दूर की बात है। यह इतना गर्म इसलिए नहीं है कि ये सूरज के नजदीक है। इसकी सूरज से दूरी धरती की अपेक्षा 30 प्रतिशत ही कम है। इसके अलावा यह ग्रह पूरा बादलों से ढंका हुआ है। सल्फर डाइऑक्साइड और सल्फ्यूरिक एसिड के बादल। ये सूरज की 75 प्रतिशत किरणों को वापस मोड़ देते हैं। इसके अलावा ये इतने घने हैं कि बची खुची किरणें भी सतह तक नहीं पहुंच पाती हैं। ऐसे में इसका तापमान इतना कम होना चाहिए था कि यहां सब कुछ जम चुका होता। लेकिन है इसका उल्टा। क्यों? क्योंकि इसका वायुमंडल लगभग पूरी तरह से कार्बन डाइऑक्साइड गैस से बना हुआ है। यह गैस ग्रीनहाउस गैस है। मतलब यह सूरज की गर्मी को अंदर तो आने देती है, लेकिन उसे वायुमंडल से बाहर नहीं जाने देती। जो थोड़ी बहुत सूरज की गर्मी शुक्र ग्रह की सतह तक आ भी जाती है वह यहीं फंसकर रह जाती है। ऐसा अरबों साल से हो रहा है। और इस वजह से यहां का तापमान आज ऐसा है कि यहां सीसा भी पिघल जाता है। पानी 100 डिग्री पर भांप बनता है, तो 475 डिग्री पर क्या होता होगा, आप समझ सकते हैं।
इस कहानी का मोरल क्या है?
हमारी धरती के वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा मात्र 0.03 प्रतिशत है। पिछली कुछ सदियों से यह गैस वातावरण में बढ़ती जा रही है और कुछ दशकों से तो यह बहुत ज्यादा तेजी से बढ़ रही है। क्यों? क्योंकि पूंजीवाद के चलते उद्योगों को मुनाफे के लिए लगाया जाता है, बिना किसी नियोजन के। इसकी वजह से कार्बन डाइऑक्साइड गैस के उत्सर्जन पर कोई नियंत्रण नहीं है। दूसरा मुनाफे के चलते ही कार्बन डाइऑक्साइड को ऑक्सीजन में बदलने वाली चीज यानि पेड़ पौधों को लगातार साफ किया जा रहा है। इसलिए यह गैस अनियंत्रित तरीके से वातावरण में बढ़ रही है। नतीजन पूरी दुनिया का तापमान लगातार बढ़ रहा है। जिसकी वजह से वातावरण का सन्तुलन बिगड़ता जा रहा है। इस पर रोक अगर नहीं लगी, तो भविष्य अंधकारमय है और साथ में बहुत गर्म भी। इस पर नियंत्रण नहीं किया गया तो हो सकता है कि यहां जीवन के लायक परिस्थितियां ही खत्म हो जाएं।
ऐसा सिर्फ तब हो सकता है जब मुनाफे पर आधारित यह पूंजीवादी व्यवस्था खत्म हो। और समाजवाद की स्थापना हो। और वह भी जल्द। क्योंकि पूंजीवाद बहुत समय इस धरती को देने वाला नहीं हैं।