नदियों से बातचीत (लंबी कविता)

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तुम नदी हो
 तुम्हें देखकर मन खुश हो जाता है हर रोज
तुम्हारे भीतर जीवन है
तुम जीवनदायिनी हो
तुम्हें देखकर अच्छी लगती है दुनिया
क्योंकि तुम सदैव प्रसन्न दिखती हो
तुम्हारे भीतर रहने वाले
सभी जीव- जंतु तृप्त रहते हैं
तुम्हारे भीतर कितना आनंद है ?
कल-कल  निनादित करती,
जगत को प्रसन्न करती रहती हो हर वक्त;
तुम एक जीवन हो
और अनंत जीवन का सृजन करती हो तुम
तुम पयस्विनी हो धरा की
मैं तुमसे रोज बातें करता हूं
मैं तुम्हें रोज प्रणाम करता हूं
रोज राह में आते- जाते तुम्हें देखता हूं देर तक
लेकिन तुम मौन रहती हो
तुम्हारी भाषा नहीं समझ पाता मैं
मुझे भी देखती हो गौर से
देर तक
मेरी आंखों को
शायद मेरे भीतर के भावों को पढ़ती हो
हम से डरती  भी हो तुम
तुम अबला हो
तुम असहाय हो
तुम सदियों से सताई गई हो
तुम दबाई गई हो
क्योंकि सारी उच्छृंखलता  को
तुम ही वरण करती हो
इसीलिए तुम श्रेष्ठ हो !
हरेक संस्कार तुम्हारे सहयोग के बगैर
संपन्न नहीं होते
जन्म से लेकर अंतिम संस्कार में
तुम बार-बार पूजित होती हो
तुम मेरे कुटुंबी जन की तरह हो
तेरे चरणों में हम आकर कृतार्थ होते हैं
तुम्हारे आशीष के बगैर
नहीं संपन्न होता विवाह और अन्य मांगलिक कार्य
और हत्याएं – आत्म हत्याएं– तक
 तुम्हारी गोद में ही तो होती हैं हर रोज…
अखबारों में खबरें आती रहती हैं
कि किसी युवती ने कूदकर आत्महत्या की है
तब तुम क्यों नहीं उठ खड़ी होती हो ?
धरा के इस दैहिक कष्ट से मुक्ति दिलाने के लिए —
शायद कभी मरने से रोक सको तुम।
कहीं न कहीं से हत्या कर तुम्हारी गोद में
फेंक देने की खबरें आती रहती हैं  तब
क्यों न उसके अपराध का गवाह बन कर
 उठ खड़ी होती हो  तुम ?
तुम मां हो !
न जाने कब से तुम मेरे घर के सामने
बहती रही हो —
मेरे पुरखों ने तुम्हें शीश नवाए हैं
मेरे लिए, मेरे परिजनों के लिए
तुम ही तो जीवन बनी हो
तुम रहोगी– तभी हम रहेंगे
और रहेंगी हमारी आनेवाली पीढ़ियां…
 पंडित विनय कुमार
हिन्दी शिक्षक
शीतला नगर रोड नंबर 3
पोस्ट गुलजार बाग
अगमकुआँ
पटना
बिहार

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