देर तक झनझनाता है कनपटी के नीचे पड़े झापड़ की तरह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

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देर तक झनझनाता है
कनपटी के नीचे पड़े
झापड़ की तरह
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
बनियाइन के साथ साथ पसीने से लथपथ
मंगरू उतार देता है
तमीज भी
सभ्यता पसीना नहीं सुखाती
हमारे ही सीने पर चढकर बनाये गये
नियम कानून रीति रिवाज धार्मिक प्रथायें
हमारी ही छाती पर मूंग दलते हैं
हम से ही कतरा कर निकलते हैं
तुम्हारे सारे जुलूस
तुम्हारे नारों के लिये लिये कच्चा माल हैं साहिब
दुधमुंही पगडंडियों के किनारों पर उगी
नर्म दूब का डूबता है दिल
शाम अक्सर हलक के निवाले का सवाल लाती है
चार कोस तक यहां बुखार की दवा नहीं मिलती
चार दिन की दवाई में जेब बकरी की तरह मिमियाने लगती है
खाली खलत्ती को आप फैशन कहते हैं
या हो सकता है
कि आपकी निगाह वहां न हो
आपकी निगाह बूचड़खानों पर है
आपकी निगाह में हैं हमारे प्रेम गीत
आप चाहते हैं पढाई से वंचित
गोबर पाथती लड़कियों के सीने पर हमेशा रहे दुपट्टा
सारी एनिमिया ग्रस्त औरतें खींच लें घूंघट
सारे सवाल आत्म हत्या कर लें
आपके जवाब की तारीफ में हम
शोक में झुके झंडे की तरह झुक जायें .
प्रज्ञा सिंह

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