डॉ. सीमा विजयवर्गीय
दुनिया में इसकी गूँज हो, आकाश में परचम रहे
मेरे वतन में गंगा-यमुना का वही संगम रहे
जाने कहाँ पर खो गई ख़ुशबू हमारे शहर की
है आरज़ू पहले-सा वो महका हुआ मौसम रहे
सब नीम-पीपल कट गए हैं गुलमुहर के शहर में
आबो-हवा बदली हुई, बरगद न अब शीशम रहे
दादी सुनाती थी कभी मिसरी सरीखी लोरियाँ
वो प्यार का लहजा बड़ों का हममें भी क़ायम रहे
आँगन में खिलती धूप में जुड़ते सभी थे प्यार से
खाटों पे वो पसरी हुई दोपहर भी हरदम रहे
इतने दिमाग़ी हो गए हम भूल बैठे प्यार को
चाहत यही बस प्यार से लबरेज़ ये आदम रहे
हम तो सभी हैं इक समंदर की ही लहरें अनगिनत
बहते रहें हम साथ ही जब तक कि दम में दम रहे
मलहार हो, त्योहार हो, ख़ुशियों भरा संसार हो
हम हो न हों, महका हुआ पर ये सदा आलम रहे