दाढ़ी-टोपी, कुर्ते-पजामे वाले किसी जगह फंसे हों तो उन्हें वहां छिपा हुआ बताया जाता है!!!

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अब चूंकि सेकुलरिज्म और मुस्लिम द्वेष के नाम पर निजामुद्दीन के बहाने तब्लीगी जमात वालों को जी भर के निशाना बनाया जा चुका है तो आइये कुछ चीजें समझ लेते हैं। क्योंकि इन मामलों को ले कर गैर-मुस्लिम भ्रमित होता है तो समझ में आता है कि उसे पता नहीं होगा लेकिन जब मुस्लिम भी उसी ट्रैक पे चल पड़ते हैं तब लगता है कि यह बातें सभी को जाननी चाहिये।

मैं अपने मन की कहूँ तो मैं खुद तब्लीग वालों से सहमत नहीं… मैंने बचपन में वह भारत देखा है जहां मुस्लिम ‘भारतीय’ ज्यादा थे और अरबी कम लेकिन तबलीग वालों के शुद्धता वादी रवैये की वजह से और इनके द्वारा की गयी मेहनत से मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग भारतीय से ज्यादा अरबी होता गया और कहीं न कहीं वही शुद्ध पहचान और आचरण वाला बदलाव ही इस बात का जिम्मेदार था कि आज मुस्लिम द्वेष के नाम पर देश में इतनी बड़ी प्रतिक्रियात्मक फौज खड़ी हो गयी।

अब आइये निजामुद्दीन वाले मुद्दे पर.. यह सिलसिला पिछले तीस से ज्यादा सालों से बड़े पैमाने पर चल रहा है और इस सिलसिले में नेशनल और इंटरनेशनल तौर पर जो जमातें बनती हैं, उनका दिल्ली पहुंच कर निजामुद्दीन में हाजिरी लगाना लगभग जरूरी होता है, जहाँ से उन्हें अगले मकामों की जानकारी दी जाती है कि उन्हें कहां और किस इलाके में जाना चाहिये और फिर वे वहां से आगे बढ़ जाते हैं। यानि निजामुद्दीन इस ब्रिगेड (तबलीगी जमात) के लिये एक मरकज (सेंटर) है या यूं समझिये कि जंक्शन है जहां से वहां पर इकट्ठा हुई जमातें आगे पूरे भारत के अलग-अलग इलाकों में जाती हैं।

अब यह जमात क्या होती है वह भी समझिये… यानि कोई एक शहर ले लीजिये, यहाँ मस्जिदों में और कई जगह जलसों और इज्तेमा में भी बयानों और तकरीरों में यह समझाया जाता है कि हमें न सिर्फ अपना जीवन दीनी एतबार से खरा (यानि मजहबी पैमाने पर सही और गलत के हिसाब से) गुजारना चाहिये बल्कि जो हमारे दूसरे मुस्लिम भाई हैं, उन्हें भी इस बारे में जागरूक करना चाहिये। इसके काफी सवाब (पुण्य) हैं.. तो ऐसे में इस मकसद से मिनिमम तीन दिन और मैक्सिमम चालीस दिन (चिल्ला) के लिये सामान्य रूप से उन लोगों के छोटे बड़े ग्रुप बनते हैं जो अपनी जिंदगी का कुछ हिस्सा दीन के काम में लगाना चाहते हैं। कुछ लोग इससे भी लंबे टाईम के लिये निकलते हैं जिनमें ज्यादातर विदेशी या विदेश जाने वाले होते हैं।

अब यह ग्रुप्स (देशी-विदेशी दोनों) निजामुद्दीन पहुंचते हैं जहाँ से इन्हें बताया जाता है कि किसको कहाँ जाना चाहिये। अगर यह इंतजाम न हो तो भारत के कुछ इलाकों में तो यह सिरे से पहुंच ही न पायें और कुछ जगहों पे एक साथ एक टाईम आठ-दस जमातें पहुंची हुई नजर आयें। इसलिये यह इंतजाम होता है कि सभी लोग अलग-अलग हर जगह को बराबरी से कवर करें। अब वहां से आगे वे उस लक्षित शहर में पहुंचते हैं और अपनी जमात के पीरियड को उस शहर या जिले की अलग-अलग मस्जिदों में पूरा करते हैं। उनका काम अपने मजहब के प्रचार-प्रसार का होता है, मजहबी एतबार से दूसरे मुसलमानों को ‘डू एंड डोंट’ समझाने का होता है.. इससे ज्यादा कुछ नहीं।

तो ऐसे में जो भी जमातें दौरान देश के दूसरे हिस्सों में पहुंची होंगी, जाहिर है कि चार घंटे के शार्ट टाईम में वापस अपने ठिकाने नहीं पहुंच सकते थे तो ट्रांसपोर्ट बंद होने की वजह से जो जहाँ था वहीं फंसा रह गया। इस विषय में उन मस्जिदों की इंतजामिया कमेटी को उनके बारे में प्रशासन को सूचना देनी चाहिये थी, जो अगर कहीं नहीं दी गयी तो यह सरासर लापरवाही है।

अब आइये निजामुद्दीन वाले मुद्दे पर.. तो यह गलत और भरमाने वाला दावा था कि वहां किसी धार्मिक आयोजन के लिये इतने लोग जमा हुए थे। चूंकि वह जमातियों का सेंटर है तो चार-पांच सौ से ले कर हजार तक लोग तो वहां किसी भी समय मिलेंगे ही मिलेंगे। इसमें न कोई अनोखी बात है और न ही इसके लिये किसी आयोजन की जरूरत। इस बारे में राज्य सरकार और दिल्ली सरकार दोनों को ही पूरी जानकारी रहती है।

तो जब लाॅक डाऊन की घोषणा हुई और चार घंटे बाद ही देश ठप हो गया तो यह तय था कि वहां इतने लोग फंसे होंगे। यह राज्य-केंद्र दोनों प्रशासन को मालूम रहा होगा तो उन्होंने अपनी तरफ से क्या इंतजाम किये उनके लिये? यहाँ एक अजीब किस्म का विरोधाभास देखने को मिलता है कि वैष्णो देवी में श्रद्धालू इसी हाल में फंसे हों, स्वर्ण मंदिर में फंसे हों तो उन्हें मजबूरी में फंसा बताया जायेगा और यही दाढ़ी-टोपी, कुर्ते-पजामे वाले इसी किसी जगह फंसे हों तो उन्हें वहां छिपा हुआ बताया जाता है। दोनों तरह के लोग अपनी धार्मिक श्रद्धा के चलते ही इस मुसीबत में फंसे थे तो दोनों को देखने का चश्मा अलग क्यों?

अब रही बात कि उस भीड़ में कोई कोरोना से संक्रमित था या नहीं तो बिलकुल हो सकता है… चूंकि वहां देश के दूसरे हिस्सों से भी लोग पहुंचते हैं और विदेश से भी… तो भला यह गारंटी कौन दे सकता था। शासन-प्रशासन को वहां की स्थिति पता ही थी तो उसे खुद से उनके लिये कोई प्रीकाॅशन लेना था, जबकि इंतजामिया की तरफ से बाकायदा इसके लिये कहा भी गया था। अब अगर प्रशासन इतना ही सावधान और जागरूक है तो दुनिया भर में संक्रमण फैलने के बाद यह लाखों लोगों को विदेश से आने क्यों दिया जा रहा था? क्यों नहीं उन सभी आने वालों को सख्ती दिखा कर तभी आईसोलेट कर दिया गया?

तब्लीग वालों के तरीकों से असहमति होना अलग चीज है, वह कोई भी हो सकता है लेकिन निजामुद्दीन के नाम पर जो अकेले उन पर सारा ठीकरा फोड़ा जा रहा है, वह सरासर गलत है। अगर यह उनकी चूक है तो उनसे कहीं ज्यादा दिल्ली प्रशासन और केन्द्र की चूक है।
अशफ़ाक़ अहमद

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