दलितों के पढ़े लिखे हिस्से में पुरोहितवाद ही नहीं सीधे-सीधे सवर्णों के प्रति नफरत कूट-कुटकर भरी हुई है। और क्यों न हो हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। आज भी कमरा किराए पर देते समय जाति पूछी जाती है और डंके की चोट पर मकान मालिक कहता है कि हम किसी दलित को कमरा नहीं देंगे, बेशक खाली पड़ा रह जाए। दलितों को ले-देकर अंबेडकर के रूप में एक नायक मिला है तो उसे लेकर उनके बीच गर्वबोध क्यों न हो? एक मार्क्सवादी के तौर पर देखें तो हम पाएंगे कि पूरे वाम आंदोलन में किसानों और दलित प्रश्न पर भयंकर ऊहापोह कायम है। देशव्यापी कोई वाम आंदोलन खड़ा हो, जिसके केंद्र में मज़दूर हों तभी जाकर दलित-स्त्री-मुस्लिम प्रश्न को कारगर ढंग से संबोधित किया जा सकता है। अपनी अंधी नफरत के वशीभुत होकर सवर्ण-दलित होनों ही कम्युनिस्टों से भयंकर रूप से चिढ़ते हैं। दलितों को लगता है कि वाम-दलों में नेतृत्व सवर्णों के पास है। कॅरियरवादी सोच से ऊपर उठना ही नहीं चाहते!
भारतीय संविधान को जितना दलितोद्धार करना था वह कर चुका है, दलित उत्पीड़न की आए दिन सुनी जाने वाली घटनाएं इसकी गवाही देती हैं। दरिद्र सवर्ण के पास भी सामाजिक हैसियत होती है, जिसे कई बार भुनाने में वह सफल हो जाता है पर दलितों को यह सुविधा हासिल नहीं है। जाति को ध्यान में लाए बिना जो लोग मज़दूरों में काम कर रहे हैं जनता उनकी जरूरतें भी पूरी कर रही है। बहुत थोड़े से सवर्ण धन-धान्य से परिपूर्ण हैं और अधिकांशतः दिहाड़ी के सहारे जिंदा हैं उनको का अरब सागर में फेंक देंगे। यह सही है कि रूलिंग एलीट सवर्ण ही अक्सर पाए जाते हैं पर सवर्णों की पूरी आबादी में उनका प्रतिशत कितना है। पंड्डी जी पालागी सुनकर तो उनका पेट भरेगा नहीं । मूल में क्लास नहीं कास्ट रहेगी तो पूँजीवादी ढाँचे पर मच्छर काटने जितना भी फर्क नहीं पड़ेगा। ———–क्लास, क्लास और क्लास। प्रमुख अंतरविरोध पूँजी बनाम श्रम। मध्यवर्ती जातियों का पहचान वाला संकट खत्म हो चला है। दलितों का बहुत ही छोटा तबका आर्थिक परेशानियों से उबर पाया है और यही तबका आम गरीब दलित आबादी के बीच भ्रम फैलाने का काम कर रहा है कि अंबेडकर के पास उनके सभी सवालों के जवाब हैं, जबकि इतिहास कुछ और ही कहता है। आज हमें चुनना है कि पूँजीवाद कि वैज्ञानिक समाजवाद। दुनिया को बदलने का रास्ता लेनिन दिखाते हैं, माओ दिखाते हैं कोई और नहीं।
कामता प्रसाद