चुगली एक रोग है, मनोवैज्ञानिक ग्रंथि है। इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति को तोड़ने में सुख का अनुभव होता है। उसे दो व्यक्तियों का आपसी प्रेम और सद्भाव आंख की किरकिरी मालूम होती है।चुगली मिथ्या के घोड़े पर चढ़कर कलाबाजी करती है।
मनुष्य इस कदर आत्म-प्रशंसा-प्रिय होता है कि तनिक सा कटाक्ष का स्वर, आलोचना की धीमी सी फुहार भी आहत कर देती है। यदि कोई लेख के है तो अपने लेख की प्रशंसा सुनना चाहेगा। यदि कवि है तो उनके कान कविता का गुणगान सुनने में ही लगे रहेंगे। यदि वक्ता है तो सदा यही चाहेगा कि लोग उसके भाषण की प्रशंसा करें। व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में कार्यरत हो, वह अपने कार्य की, कार्य करने के तरीके की प्रशंसा सुनना चाहेगा।
आम व्यक्ति की बात तो जाने दीजिए, शिक्षित वर्ग भी इससे पीड़ित नजर आता है। कभी-कभी तो विद्वान जिन्हें हम आदर व सम्मान की दृष्टि से देखते हैं, वे भी इस बीमारी से ग्रस्त दिखाई देते हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार चुगली करना अपने दिल की भड़ास निकालने का एक अच्छा माध्यम है। यह स्वयं को ऊंचा और दूसरे को नीचा दिखाने का भी एक ढंग है। यानी चुगली करने वाले का अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रहता और वह हीनता की भावना से ग्रस्त होता है। इसीलिए वह अपने अवगुणों को देखने के बदले अन्यों पर दोषारोपण करता है और उनमें मीन-मेख निकालता है।
यह कोई अस्वाभाविक वृत्ति नहीं है। मनुष्य का मन ही ऐसा बना है कि वह आत्मप्रशंसा सुनना चाहता है। चुगली की प्रक्रिया मनुष्य-मन के इसी स्वभाव को लेकर खेलती है और अपना प्रभाव विस्तार करती है। मनुष्य अपनी कमियों की सही आलोचना भी सुनना नहीं चाहता, उसका यह स्वभाव चुगली के पौधे में पानी सींचने का काम करता है, और यही चुगलखोर की सबसे बडी सम्पत्ति है। इस सम्पत्ति के जोर पर चुगलखोर हमारे मन को मानो अपने वश में कर लेता है और जैसा वह चाहता है वैसा देखने को हमें विवश करता है। फलस्वरूप हम उसकी बातों में आ जाते हैं और सत्य की पूरी तरह उपेक्षा करते हुए अपने निर्दोष मित्र से कटकर अलग हो जाते हैं……
रश्मि सुमन