अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भारत द्वारा हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन नाम की दवा की सप्लाई न करने की सूरत में उसके ख़िलाफ़ प्रतिशोधात्मक कार्रवाई करने की धमकी दी. इस अमेरिकी घुड़की के सामने भारतीय राजनीतिक नेतृत्व की घुटनाटेकू मुद्रा का प्रदर्शन अभूतपूर्व है. भारत के प्रधानमंत्री ने मिमियाहटभरी प्रतिक्रिया देते हुए दवा के निर्यात पर लगे प्रतिबंध को आनन-फानन में उठा लिया.
इस घटना को कई राजनीतिक विश्लेषक साम्राज्यवादी लूट की वर्तमान वैश्विक व्यवस्था में भारत के पूँजिपति वर्ग की दलाल भूमिका के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करेंगे. इस विश्लेषणात्मक चौकठे की समस्या यह है कि इसके ज़रिए उन तथ्यों ओर घटनाओं का विश्लेषण एक हद तक तो संभव है जहाँ भारतीय राजनीतिक नेतृत्व साम्राज्यवाद के सामने झुका हो लेकिन आर्थिक ओर राजनीतिक जीवन के ऐसे तथ्य जहाँ भारत ने झुकने से इनकार कर दिया हो, या कड़ा मोल-भाव किया हो, उन्हें इस प्रस्थापना की मदद से समझना नामुमकिन हो जाता है. इस तरह यह प्रस्थापना हमें एक अंधेरी गली में ले जाकर छोड़ देती है. मसलन, इस घटना को हम कैसे समझें कि वर्ष 2018 ओर 2019 के बीच भारत और अमेरिका के व्यापार रिश्ते बेहद तनावपूर्ण रहे. दोनों देशो ने एक दूसरे के व्यापारिक मालों पर या तो चुंगी लगाई या लगाने की धमकी दी. ऐसा कैसे हुआ कि 1974 और 1998 में परमाणु विस्फोट के बाद लगे अन्तरराष्ट्रीय प्रतिबंधो के सामने भारत ने झुकने से इनकार कर दिया था या जैसा कि 1947 में आज़ादी के तुरंत बाद हुआ भारत ने अमेरिकी खेमे में शामिल होने के अमेरिकी प्रस्ताव को ठुकरा दिया था? कुछ इसी तरह भारत ने सोवियत यूनियन द्वारा प्रस्तावित एशियन सिक्यूरिटी पैक्ट में शामिल से इनकार किया और 2004 में ईराक में भारतीय सेना को भेजे जाने संबंधी अमेरिकी अनुरोध को ठुकरा दिया. ऐसे कई महत्वपूर्ण मसले हैं जिनकी व्याख्या भारतीय शासक वर्ग को साम्राज्यवादी पूंजी का दलाल मानकर करना असंभव हो जाता है.
बहरहाल इस ताजा मामले में ट्रम्प की भाषाई असभ्यता और अहमन्यता के पीछे का मकसद अमेरिका के किसी साम्राज्यवादी हित की रक्षा करना नहीं बल्कि अमेरिकी जनता के सामने अमेरिकी राज्य की नाकामी ओर उरियाँ होते उसके जनविरोधी चेहरे, जिसे कोरोना महामारी ने उभारकर सामने ला दिया है, पर फटी टाट डालना है. ट्रम्प इतना भाग्यशाली नहीं है कि वह अपनी जनता को थाली ओर दीवा-बाती से बहला सके. महामारी से निपटने में अमेरिका पूरी तरह विफल रहा है. मार्च महीने की 12 तारीख को अमेरिका के एलर्जी ओर संक्रामक रोगों के राष्ट्रीय संस्थान के डायरेक्टर और स्वास्थ्य के मसलों पर ट्रम्प के सलाहकार डॉ. एंथनी फ़ाउची ने कहा कि “हमें स्वीकार कर लेना चाहिए कि हमारी व्यवस्था हमारी तात्कालिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ठीक से तैयार नहीं है”. हालात इतने खराब हैं कि अमेरिका में कोरोना पीड़ितों के इलाज़ के लिए टेस्टिंग किट, डॉक्टर्स, हॉस्पिटल बेड, वेंटीलेटर, प्रोटेक्टिव गियर्स की भारी कमी है. अमेरिका में 1000 की आबादी पर मात्र 2.9 हॉस्पिटल बेड और 2.6 डॉक्टर हैं. (तुलना के लिए यह जानना अच्छा होगा कि विकासशील कहे जाने वाले कुछ देशों की स्वास्थ्य सुविधाओं का ढांचा अमेरिका से कहीं बेहतर है. मसलन, 1000 की आबादी के पीछे, तुर्कमेनिस्तान में 7.4, मंगोलिया में 7.0, अर्जेंटीना में 5.0, लीबिया में 3.7 हॉस्पिटल बेड हैं.) 30 मार्च के दिन व्हाइट हाउस द्वारा एक भयावह लेकिन आधिकारिक बयान जारी किया गया. ट्रम्प ने अमेरिकी जनता से कहा कि कोरोना के कारण 1,00,000 से 2,40,000 अमेरिकी मर सकते हैं. उन्होंने आगे कहा कि अगर हम इस संख्या को 100000 पर रोकने में कामयाब हो जाते हैं तो इसे अमेरिकी प्रशासन की एक उपलब्धि माना जाएगा.
ट्रम्प और अमेरिका का शासक वर्ग अच्छी तरह जानता है कि इस समय अमरीकी जनता को महामारी से मुक्ति चाहिए उसके लिए एक विराट स्वास्थ्य तंत्र की ज़रूरत है. चूँकि वहाँ का शासक वर्ग इसके पक्ष में नहीं है इसलिए उसका ध्यान एक दूसरे सस्ते विकल्प की ओर गया है. 13 मार्च के दिन जेम्स तोदारो नाम के एक ब्लॉक चेन इन्वेस्टर ने अपने ट्विटर हैण्डल से ट्वीट किया “यह बात प्रमाणित होती जा रही है कि कोरोना के इलाज़ में हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन काफी असरदार है”. 16 मार्च को इसे ख़बर बनाकर फॉक्स न्यूज़ ने प्रचारित करना शुरू किया और अगले दिन 17 मार्च को ऍलन मस्क ने अपने तीन करोड़ तीस लाख फॉलोवर वाले ट्विटर हैण्डल से ट्वीट किया “C19 के लिए शायद क्लोरोक्वीन की ओर ध्यान देना अच्छा रहेगा”. इसके बाद 19 मार्च को ट्रम्प ने पहली बार हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन के इस्तेमाल के पक्ष में बोला ओर फिर आक्रामक ढंग से इसके प्रचार में लग गए. हालाँकि इस दावे का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था और अमेरिका सहित कहीं पर भी इस दवा को वायरल इन्फेक्शन के इलाज़ के लिए मान्यता नहीं मिली है. ट्रम्प द्वारा आक्रामक प्रचार की वजह यह थी कि आम अमेरिकी ने इस दवा को कोरोना के रामबाण इलाज़ के रूप में देखा. बड़े पैमाने पर इस दवा की जमाखोरी होने लगी और बाज़ार माँग बढ़ने लगी. इस प्रचार का असर कितना गहरा था इसका अंदाज इस एक घटना से लगाया जा सकता है जिसमें एक व्यक्ति ने मछली की टंकी साफ़ करने वाली दवा को हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन समझ कर खा लिया और उसकी मौत हो गई.
ट्रम्प अपनी जनता से कह रहे हैं कि “यह एक ऐसी दवा है जो तुम्हारा भाग्य बदल सकती है” वो अमेरिकी जनता से पूछ रहे हैं “तुम्हारे पास खोने के लिए है ही क्या?”.
तपीश मैंदोला